उर्दू का एक मशहूर शेर है- मरीजे इश्क पर रहमत खुदा की, मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की.. यह शेर इन दिनों बहुत मौजूं हो गया है। ऐसा इसलिये कि यह देश की राजनीतिक स्थिति, खासतौर से सरकार की हालत पर बिलकुल फिट बैठ रहा है। बस इस शेर की आखिरी लाइन में आपको थोड़ी सी तब्दीली करते हुए इसे यूं कर देना है कि- बवाल बढ़ता गया ज्यों ज्यों सफाई दी।
दरअसल संसद में जब से नागरिकता संशोधन कानून पास हुआ है सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बल्कि बढ़ती जा रही हैं। हालात से निपटने के लिए सरकार और पार्टी के तमाम बड़े नेता जितनी सफाई दे रहे हैं, मामला उलटे उतना ही उलझता जा रहा है। ऐसा लगता है कि अच्छे दिन का वादा करके सत्ता में आई सरकार के दिन इन दिनों अच्छे नहीं चल रहे। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या वजह है कि बात को समझाने या ‘सच्चाई’ बताने के लिए आप कुछ कहें और उसमें से भी लोग झूठ के रेशे निकाल लें।
नागरिकता संशोधन मामले पर विवाद होगा इसकी आशंका तो पहले से थी, लेकिन जब सरकार ने संसद में इसे आसानी से पास करवा लिया था तो वह मानकर चल रही थी कि संसद से बाहर थोड़ी बहुत उलझन होगी तो उससे चुटकियों में निपट लेंगे। पर उलझन ज्यादा हो गई, इतनी ज्यादा कि अब उसे सुलझाने के जितने जतन हो रहे हैं, कानून का विरोध करने वाले बाल की खाल निकालकर हर सुलझे हुए सिरे में से एक गांठ निकालकर सामने रख दे रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि सरकार ने नागरिकता संशोधन मामले पर संसद से लेकर सड़क तक लोगों को समझाने में कोई कसर छोड़ी हो। संसद में भी गृहमंत्री अमित शाह ने बार बार जोर देकर यही बात कही थी कि इस बिल का देश के नागरिकों की नागरिकता से कोई लेना देना नहीं है। यह नागरिकता देने वाला बिल है न कि नागरिकता छीनने वाला। उन्होंने यह भी सफाई दी थी कि शरणार्थियों को नागरिकता देने की मंशा सिर्फ वर्तमान मोदी सरकार की ही नहीं है, कांग्रेस की सरकारें और कांग्रेस के दिग्गज नेता तक समय समय पर इस बात की पैरवी करते रहे हैं।
अपने इस दावे को पुख्ता करने के लिए गृह मंत्री ने संसद में महात्मा गांधी से लेकर नेहरू-लियाकत समझौते और अशोक गहलोत से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह के बयानों को अधार बनाया था। लेकिन उसके बावजूद लोग सड़कों पर निकल आए। बवाल इतना बढ़ा की कई लोग मारे गए और सरकारी एवं निजी संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचा। भीड़ की हिंसा की चपेट में कई पुलिसवाले भी आए।
मामला बढ़ता देख प्रधानमंत्री ने मोर्चा संभाला और 22 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने अपने भाषण का ज्यादातर हिस्सा नागरिकता संशोधन कानून को ही समर्पित किया। हालांकि यह रैली दिल्ली की अवैध कॉलोनियों को वैध करने के केंद्र सरकार के फैसले को लेकर धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए बुलाई गई थी।
प्रधानमंत्री ने नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन और उसे लेकर फैलाए जा रहे कथित भ्रम को लेकर बहुत कुछ कहा। पर विपक्ष के लोगों को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने जिन दो बातों का पुरजोर खंडन किया, अब वही खंडन सरकार के गले की हड्डी बन गया है। प्रधानमंत्री ने पहली बात यह कही कि देश में कहीं कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है और उनकी दूसरी बात यह थी कि सरकार में पिछले साढ़े पांच सालों में एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स को लेकर कोई बात तक नहीं हुई।
बस इसके बाद से ही प्रधानमंत्री की ओर से किया गया शंका निवारण तो एक तरफ रह गया और सारी बहस इस बात पर केंद्रित हो गई कि सरकार सरेआम झूठ बोल रही है। विपक्ष के नेताओं से लेकर मीडिया तक डिटेंशन सेंटर्स की जानकारियां सार्वजनिक करने लगे। कहा गया कि असम में तो बाकायदा ऐसे सेंटर चल रहे हैं। फिर प्रधानमंत्री कैसे कह सकते हैं कि देश में एक भी डिटेंशन सेंटर नहीं है।
इसी तरह प्रधानमंत्री का दूसरा बयान भी विवाद से अछूता नहीं रहा। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि खुद गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में एक बहस के दौरान बहुत जोर देते हुए यह बात कही थी कि देश में एनआरसी लागू होगा और हमारी सरकार उसे लागू करके रहेगी। खुद राष्ट्रपति के अभिभाषण में यह बात थी। अब सवाल यह उठ रहा है कि जब देश के गृह मंत्री ने संसद में पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात कही है तो क्या उन्होंने बगैर प्रधानमंत्री की जानकारी या सहमति के ऐसा किया होगा?
यह बात बिलकुल दुरुस्त है कि असम को छोड़कर एनआरसी मामले में देश के बाकी हिस्सों के लिए अभी कोई ठोस पहल नहीं हुई है। असम में भी जो एनआरसी की प्रक्रिया हुई है वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत हुई है। लेकिन प्रधानमंत्री का बयान इस आशंका का पर्याप्त आधार है कि सरकार या तो कुछ छिपा रही है या फिर वह लोगों को भ्रमित कर रही है। यह स्थिति एक और सवाल खड़ा करती है कि क्या देश के गृह मंत्री और प्रधानमंत्री के बीच संवाद की सहज स्थिति नहीं है? ऐसा इसलिए क्योंकि एक तरफ गृह मंत्री एनआरसी को लागू करने का संकल्प जाहिर करते हैं और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री कहते हैं कि इस पर बात तक नहीं हुई।
इस बीच राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर नया विवाद खड़ा हो गया है। उस पर बहुत विस्तार से स्थिति स्पष्ट करते हुए गृह मंत्री ने मंगलवार को समाचार एजेंसी एएनआई को एक लंबा इंटरव्यू दिया। उसमें उन्होंने एनआरसी के बारे में दिए गए प्रधानमंत्री के बयान को सही बताया लेकिन डिटेंशन सेंटर वाले मुद्दे को लेकर गृह मंत्री असहज नजर आए।
ऐसा लगता है कि सरकार विपक्ष के आरोपों और सड़कों पर उतरी भीड़ के कारण तनाव में है। पर तनाव के समय तो आपसे और भी अधिक सतर्कता और संतुलन की अपेक्षा होती है। तनाव की स्थितियां न तो नरेद्र मोदी के लिए नई हैं न ही अमित शाह के लिए। और यह कठिन समय तो और भी ज्यादा धैर्य और संयम की मांग करता है। उग्रता में दिया गया कोई भी बयान मुश्किल का सबब बन सकता है। आज सरकार के लिए सबसे बड़ी मुश्किल लोगों में फैल रही यह धारणा है कि सरकार खुद भ्रम फैला रही है। इस स्थिति से उपजा यह सवाल गले में फंस सकता है कि जब सरकार ही भ्रम फैलाए तो जनता उसके निवारण की उम्मीद किससे करे?