राकेश दीवान
अब, जब लाखों-लाख मजदूर शहर और उसकी औद्योगिक बस्तियों से पिंड छुडाकर वापस अपने-अपने गांवों में पहुंच गए हैं, यह पूछा जाना वाजिब है कि अब उन्हें कैसे, कहां समाहित किया जाएगा? आखिर अपनी मातृभूमि को छोड़ने के पीछे बेरोजगारी और सामाजिक गैर-बराबरी बड़े कारण थे और अब वापस लौटने पर उन्हें हालात में कोई खास तब्दीली दिखी हो, ऐसा नहीं लगता। वर्ग और जाति ठीक उसी तरह, अपने-अपने रौब-रुतबे के साथ जहां-की-तहां मौजूद हैं, जैसी उनके ‘बिदेस’ जाने के पहले थीं।
तीस-पैंतीस साल पहले भी गांव कोई ‘अहा ग्राम्य जीवन’ की धज का तो नहीं ही था, लेकिन आजादी के बाद और अभी भूमंडलीकरण के कारण, खासतौर पर बर्बाद होना शुरू हुए गांव अब अपनी सर्वाधिक बदहाली में पहुंच गए हैं। कमाल यह है कि गांवों की यह बदहाली अपनी केन्द्र व राज्य की सरकारों के अलावा दुनिया के सबसे बडे वित्तीय सरगनाओं– विश्व बैंक और ‘अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष’ (आईएमएफ) की पहल-सुझावों पर हुई है। जाहिर है, प्रवास से लौटे मजदूरों को यहीं बसना-बसाना है तो दिमाग में ठसीं उन तमाम नीतियों, कार्यक्रमों को सिरे से तब्दील करना होगा, जिन्हें विकास मानकर अब तक सबने, सबके गले उतारा था।
सरकार मानती है कि तरह-तरह की परिवहन सुविधाओं से देशभर के करीब आठ करोड़ प्रवासी मजदूर वापस यानि ‘रिवर्स माइग्रेशन’ करके अपने-अपने गांव पहुंचे हैं। इन मजदूरों की सबसे पहली जिम्मेदारी सरकारों की ही होती है और इसे पूरा करने के लिए केन्द्र सरकार ‘मनरेगा’ और ऐसी ही अन्य योजनाओं के अलावा अपना 50 हजार करोड रुपयों का ताजा ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ लेकर गांव पहुंची भी है।
बिहार के खगडिय़ा जिले से शुरू होकर राजस्थान के बाड़मेर जिले तक चलने वाला ‘यह अभियान ग्रामीण क्षेत्रों में वृहद और व्यापक स्तर पर रोजगार सृजन के लिए’ रचा गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार, उ.प्र. से अधिकांश मजदूर देश के अन्य राज्यों, महानगरों में काम की तलाश में जाते हैं। कटाई और बुवाई के वक्त उत्तर और पश्चिम भारत के पंजाब, गुजरात, मध्यप्रदेश तथा दक्षिण भारत के अनेक राज्यों में खेतिहर श्रमिकों की मांग बढ़ जाती है।
सरकारी घोषणा के मुताबिक ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ में ‘स्थायी बुनियादी ढांचे के निर्माण’ के लिए 50 हजार करोड़ रुपयों की राशि खर्च की जाएगी। कथित मिशन मोड में शुरू हुए इस अभियान में देश के छह राज्यों के 116 जिले हैं। इनमें बिहार के 32, मध्यप्रदेश के 24, उत्तरप्रदेश के 31, राजस्थान के 22, झारखंड के तीन और ओडिशा के चार जिले शामिल हैं।
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इस रोजगार अभियान में जो 25 गतिविधियां शामिल की गई हैं, उनमें प्रमुख हैं- ‘सामुदायिक स्वच्छता केन्द्र’ का निर्माण, ग्राम-पंचायत भवन निर्माण, जल-संरक्षण और फसल कटाई कार्य, कुओं, तालाबों, राजमार्गों का निर्माण, पौधारोपण कार्य, बागवानी, आंगनवाड़ी केन्द्रों का निर्माण, ग्रामीण आवासीय कार्यों, ठोस और तरल कचरा प्रबंधन कार्य, मवेशी-घरों, पोल्ट्री-शेड्स व बकरी शेड का निर्माण, वर्मी कम्पोस्ट ढांचों का निर्माण, भारत नेट, पौधारोपण, पीएम ऊर्जा गंगा परियोजना आदि।
लोक-कल्याणकारी योजनाओं वाले राज्य के अलावा वापस लौटे मजदूरों को गैर-दलीय संगठन यानि ‘एनजीओ’ की सेवा, मदद भी मिल सकती है। सभी जानते हैं कि राज्य के विस्तार और विरोध की भूमिकाओं में ‘एनजीओ’ बरसों से गांव-गांव की खाक छानते गरीबों, भूमिहीनों, पिछडों, दलितों और ऐसे ही समाज के हाशिए पर विराजे तबकों के साथ काम करते रहे हैं।
मोटे तौर पर ‘एनजीओ’ सेवा-राहत, विकास, राजनीतिक शिक्षण और गैर-दलीय राजनीतिक समूहों के रूप में काम करते हैं। इनमें पहले दो राज्य का ही विस्तार होते हैं जबकि अंतिम दो राज्य की नीतियों की समीक्षा और कई बार विरोध की भूमिका भी अख्तियार करते हैं और इसीलिए इन्हें जन-संगठन या जनांदोलन की संज्ञा से पहचाना जाता है। सवाल है कि क्या ये ‘एनजीओ’ अपनी पहले की पारंपरिक भूमिकाओं में, वापस लौटे प्रवासी मजदूरों को उनकी ‘जगह’ दिला सकेंगे? या फिर बदली हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में कोई और तरह के, नवाचारी तरीके ढूंढेंगे?
प्रवासियों को अपनी जड़-जमीन से जोड़े रखने में रोजगार की अहम भूमिका होती है। यानि यदि ठीक-ठाक रोजगार मिले तो कोई अपनी पीढि़यों की बसाहट, घर-परिवार और जाने-पहचाने माहौल को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहेगा। पिछले दशक के 2005 में ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून’ (मनरेगा) लागू होने और 2008-09 की वैश्विक मंदी से निपटने में उसकी कारगर भूमिका ने गांवों को आत्मनिर्भरता का एक नया औजार थमा दिया था। सालभर में सौ दिन के रोजगार की गारंटी ने ही सैकड़ों मजदूरों को अपने-अपने ठियों पर रोक लिया था, लेकिन अब यह स्थिति नहीं बची है।
प्रवासियों के पलायन के पहले भी ‘मनरेगा’ उसके कानून के मुताबिक नहीं चल पाई थी और उसके ठीक-ठाक संचालन में ‘एनजीओ’ भी कोई खास भूमिका नहीं निभा पाए थे। जाहिर है, अब इसे बदलकर क्रियान्वित करना होगा। अव्वल तो सौ दिन की मजदूरी प्रवासियों के परिवारों के भरण-पोषण के लिए कम होगी। यानि इसे बढ़ाकर दो-ढाई सौ दिन तक ले जाना होगा। दूसरे, इसमें दी जाने वाली मजदूरी भी ‘न्यूनतम मजदूरी’ से कम होने से काम नहीं चलेगा।
वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के मुताबिक न्यूनतम से कम मजदूरी देना अपराध है और ‘मनरेगा’ के संदर्भ में यह अपराध देश के अधिकांश राज्यों में खुलेआम किया जा रहा है। तीसरे, ‘मनरेगा’ के तहत होने वाला काम सरकारी ‘शेल्फ -ऑफ’ योजनाओं के आधार पर ना होकर ग्रामसभाओं की अनुशंसाओं के आधार पर करना होगा। ध्यान रखें, दूसरी तमाम 50-55 सरकारी योजनाओं से भिन्न ‘मनरेगा’ एक मांग आधारित योजना है और इसमें काम का निर्धारण ग्रामसभाएं करती हैं।
और चौथे, ‘मनरेगा’ को कानून और उसकी मंशा के तहत क्रियान्वित करवाने के लिए ‘मनरेगा’ मजदूरों का ही एक गैर-सरकारी ढांचा, मसलन-यूनियन या मजदूर संगठन तैयार करना होगा। क्या शुरुआती तौर पर ही, ‘एनजीओ’ ये सब काम कर पाएंगे? क्या उन्हें ‘मनरेगा’ कानून की पेचीदिगियों का अंदाजा होगा?
गांव में टिकने के लिए रोजगार के अलावा बुनियादी ग्रामीण ढांचों को समझकर बदलना होगा। अब तक शहरों यानि उद्योगों को रोजगार का स्रोत माना जाता था, लेकिन अब गांव चुनने वाले प्रवासियों ने इसके ठीक विपरीत राय दी है। यानि गांव और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ही नए सिरे से रोजगार के अवसरों का सृजन करना होगा। जाहिर है, खेती ‘विपुल पैदावार की बजाए अधिक हाथों द्वारा पैदावार’ के आधार पर करनी होगी।
इस पद्धति में वापस पुरानी तकनीकों की ओर लौटना होगा। ऐसी तकनीकें जो हमारे नियंत्रण में हों और जिनमें ज्यादा लोग उत्पादन प्रक्रिया से जुड सकें। ऐसी तकनीकें जो पूरी तरह आत्मनिर्भर हों और उनके लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत न पडे।
असल में प्रवासी मजदूरों ने वापस अपने गांव लौटकर हम सबको नए सिरे से विकास की समझ विकसित करने की चुनौती दी है। यह चुनौती अपने ही कुछ साल पहले के ढांचों को देखने-समझने और आत्मसात करने से क्रियान्वित की जा सकती है। संयोग से ठीक, उपयुक्त विकास का तरीका भी यही है। सवाल है, क्या हम इसे मंजूर करना चाहेंगे?
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