विजयमनोहर तिवारी
अगर अनदेखी, नाकामी और फाकाकशी खुदकुशी करने की वाजिब वजह हैं तो मीडिया में हर दिन ऐसा होना चाहिए था। हर अखबार और चैनल में हर दिन किसी को पंखों से झूलना चाहिए था, किसी को जहर पीना चाहिए था, किसी को रेल पटरी पर कूद जाना चाहिए था या किसी ऊंची इमारत से छलांग लगा देनी चाहिए थी। लेकिन यहां लोग टिकते हैं। सब्र करते हैं। मेहनत करते हैं। अवसर का इंतजार करते हैं।
फैशन, सिनेमा और मीडिया की दुनिया बाहर से देखने पर चकाचौंध से भरी लगती है। यही चकाचौंध लाखों युवाओं को अपनी तरफ खींचती है। ये कॉलेज की उम्र के होते हैं। छोटे कस्बों और शहरों के ऐसे नौजवान, जिनकी आंखों में अपने आने वाले कल के ऊंचे सपने सजे होते हैं। ऊपर चंद कामयाब लोग इन्हें लुभाते हैं। जब वे ऐसे हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं? मुंबई में हर दिन हजारों लोग इन्हीं सपनों के साथ पहुंचते हैं। मीडिया के दरवाजों पर भी ऐसी ही दस्तकें होती रही हैं। खासकर चौबीस घंटे के चैनलों के आने के बाद पत्रकारिता में भी वैसा ही ग्लैमर आया। ग्लैमर एक ऐसी चिपचिपाहट है, जो एक बार चिपकाने के बाद चिपकाए रहती है।
34 साल के सुशांतसिंह राजपूत इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के पहले ही एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे। अभिनय की अनजानी दुनिया में भी इतनी कम उम्र में उन्होंने अपना ऊंचा नाम कमाया। छोटे परदे से बड़े परदे तक ही दूरियां नापीं। वह सब हासिल किया, जो लाखों युवाओं की आंखों में सजा सपना ही रह जाता है। उसमें जी-तोड़ मेहनत और बेशक काबिलियत के बावजूद कभी रंग नहीं भरते। हम नहीं जानते वे नाकाम नौजवान बाद में कहां क्या करते हैं? हर कोई खुदकुशी तो नहीं ही करता है। जूझने के लिए जिंदगी उन्हें दूसरे रास्तों पर धकेल देती होगी।
सुशांत की मौत के बाद से ही सिनेमा उद्योग में चंद घरानों के एकाधिकार, अंदरुनी राजनीति और साजिशों पर खूब कहा-सुना गया है। यह कुछ हद तक सही भी है। दिखता भी है। लेकिन पूरी तरह सच होता तो अभिषेक बच्चन आज पहली कतार के सुपर सितारे होते। एकता कपूर की जगह तुषार कपूर जितेंद्र के उत्तराधिकारी बनते। विनोद खन्ना के बेटों को हम नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? शशि कपूर और शम्मी कपूर की अगली पीढ़ी उनके बराबर पर कहां है? राजकुमार, मनोज कुमार, राजेंद्र कुमार और देवानंद के बेटों के कॅरियर भी कहां चल पाए? दूसरी तरफ पिछले 40 साल में छोटे गांव-कस्बों से एनएसडी होकर ऐसे कई सितारे चमके, जिनका कोई माई-बाप मुंबई में नहीं था। मधुर भंडारकर की 15 साल पहले एक फिल्म आई थी-पेज थ्री। यह फैशन की दुनिया के अंधेरे की एक दास्तान थी, जो रैम्प की चकाचौंध से उतरी एक हताश मॉडल की असल कहानी पर केंद्रित अच्छी फिल्म थी।
25 साल मीडिया में बिताने के बाद मैं कह सकता हूं कि मीडिया में हालात ज्यादा भयावह हैं। टीवी न्यूज चैनलों के आने के पहले पत्रकारिता में कोई आकर्षण नहीं था। चकाचौंध तो बिल्कुल ही नहीं थी। तब जो लोग अखबारों की नौकरियों में आते थे, उन्हें लिखने-पढ़ने के शौक यहां धकेलते थे और मन के किसी कोने में समाज के लिए कुछ अच्छा करने की चाहत दबे पांव ठहरी होती थी। वे विश्वविद्यालयों में एकाध साल के कोर्स करके अखबारों में दस्तक देते थे, जहां उन्हें नामचीन संपादक और पॉलिटिकल एडिटर ठीक वैसे ही लगते थे, जैसे सुशांत सिंह राजपूत को शाहरुख, सलमान, आमिर या अक्षय लगते होंगे। उनकी बायलाइन स्टोरी, संपादकीय टिप्पणियों को पढ़कर एक किस्म का रोमांच पैदा होता था।
अखबारों में जगहें आसान नहीं थीं। जगह मिलने के बाद कुछ भी आसान नहीं था। वेतन मासिक शर्म का विषय था। लिखने-पढ़ने में दूसरों से बेहतर होना कई बार घातक भी हो सकता था, क्योंकि वहां कोई ऋषि-मुनि नहीं बैठे थे, जो शिष्य की सक्रिय कुंडलिनी को और ऊंचे चक्रों पर ले जाने के लिए साधना की नई विधियां बताते। वे आम दुनिया के लोग थे, जो अलग-अलग कारणों से अखबारों में आ जमे थे। उन्हें भी जमे रहने के लिए तीन-तिकड़में भिड़ानी अनिवार्य थीं। मगर वे कामयाब थे। यह सांप-सीढ़ी का ऐसा खेल था, जिसमें आपका एक सही फैसला एक आसान सीढ़ी तक ले जाता था और एक गलत आदमी सांप की तरह सामने आकर नीचे लाकर कहीं पटक सकने की सामर्थ्य रखता था।
अनिश्चितताओं से भरी एक ऐसी दुनिया, जहां हर दिन का संघर्ष था और राहत कहीं नहीं थी। कम वेतन की शर्म से पीछा छुड़ाने के लिए ज्यादातर लोग आकाशवाणी वगैरह में हाथ आजमाया करते थे, जिससे नए संपर्क भी बनते थे और दो-तीन महीने में एक चैक मिल जाता था। यह पत्रकारिता में आए आम युवाओं की जिंदगी की कहानी है। अपवाद हर जगह होते हैं। यहां भी थे। कुछ लोग इसी माहौल में रहते हुए ज्यादा कामयाब थे। वे अपनी जन्म कुंडलियों में चमकदार ग्रह लिखाकर लाए थे। तकदीर उन्हें तेजी से शानदार रास्तों पर ले गई। कई बार उनकी कामयाबी दूसरे नौजवानों के लिए चकाचौंध की चिपचिपाहट का काम करती थी। कम समय में ज्यादा कुछ हासिल करने के आकांक्षी युवाओं की नजर में वे लोग सितारे थे, जो राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में सक्रिय रहते हुए अपने भवसागर की भी बराबर फिक्र करते थे और भंडारे में उनका भी हिस्सा तय हो जाता था। ऐसे लोग हमेशा से कम थे। मेरे आदर्श कभी नहीं थे।
रिपोर्टिंग में काम करने वालों को यही तसल्ली कम नहीं थी कि उनका लिखा हुआ उनके नाम से पढ़ लिया जाता है और सारे शहर को खबर हो जाती है कि आका का यह इंटरव्यू अपन ने लिया है। यह भूखे पेट हीमोग्लोबिन बढ़ाने वाला एक अजीब नुस्खा था। दो-चार फोन आ गए। किसी ने सिर्फ बायलाइन पढ़कर कह दिया कि शानदार लिखा है। यह सुनते ही स्वर्गिक अनुभव हो गया। रिपोर्टिंग में नए-नए लोगों से मिलना, नए-नए विषयों और इलाकों में जाना, एक किस्म का रोमांच भी पैदा करता था। टिके रहने के लिए काफी था। लेकिन सबको रिपोर्टिंग नसीब नहीं थी। जितने लोग फील्ड में होते थे, उससे दस-बीस गुना ज्यादा लोग डेस्कों पर परदे के पीछे रहे। भूखे पेट हीमोग्लोबिन बढ़ाने वाली इस दवाई से वे वंचित थे। वे गुमनाम साधक थे, जो पदोन्नतियों के जरिए संपादक बनने की उम्मीद में गहरे सब्र से काम लेते थे।
34 साल की उम्र में सुशांत ने जो कुछ हासिल किया, मीडिया में वह सेवानिवृत्ति तक अकल्पनीय था। टीवी चैनलों ने जरूर हवा बदली। सन् 2000 के बाद ग्लैमर की चिपचिपाहट बढ़ गई। अच्छा लिखने-पढ़ने का शौक या समाज में कुछ अच्छा करने का लक्ष्य पीछे छूट गया। एक किस्म की सितारा हैसियत हासिल करने की होड़ ने युवाओं को खींचा। कुछ कामयाब हुए। कुछ भीड़ में गुम गए। कइयों का कोई पता नहीं। स्क्रीन कभी हरेक के हिस्से में नहीं थी। जिनके हिस्से में थी, वे भी तब तक जिंदा थे, जब तक स्क्रीन पर रहे। कई चेहरे कई सालों से स्क्रीन से नदारद हैं। हमें चेहरे याद होंगे, नाम नहीं। नाम याद होगा, चेहरा नहीं। बस इतनी सी दुनिया है। डिजिटल मीडिया ने सारी दीवारें तोड़ दीं। काम के अवसर तो बढ़ाए। गुणवत्ता मेड इन चाइना हो गई।
अगर अनदेखी, नाकामी और फाकाकशी खुदकुशी करने की वाजिब वजह हैं तो मीडिया में हर दिन ऐसा होना चाहिए था। हर अखबार और चैनल में हर दिन किसी को पंखों से झूलना चाहिए था, किसी को जहर पीना चाहिए था, किसी को रेल पटरी पर कूद जाना चाहिए था या किसी ऊंची इमारत से छलांग लगा देनी चाहिए थी। लेकिन यहां लोग टिकते हैं। सब्र करते हैं। मेहनत करते हैं। अवसर का इंतजार करते हैं। अपनी ऊर्जा को सही काम में लगाए रहते हैं। वे सांपों के बीच से सीढ़ियों को खोजते रहते हैं। वे अपने एकांत में रोते हैं। सालों बाद भी कहीं न पहुंच पाने का दर्द सहकर आज का काम पूरा करके आधी रात को अंधेरी सड़कों से निढाल घर लौटते हैं। वे गीत लिखते हैं। कहानियां लिखते हैं। किताबें लिखते हैं। मगर वे मरते नहीं हैं। वे जिंदगी में भरोसा रखते हैं। वे ईश्वर में आस्था रखते हैं…
(अगली कड़ी में- सांप-सीढ़ी के खेल में मीडिया के सांपों और सीढ़ियों पर कुछ बातें।)
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