विजय मनोहर तिवारी
जिंदगी वाकई अजीब है। कहीं पहुंचाने के पहले भटका जाती है। इन्क्रीमेंट की खुशी को इस्तीफे की आफत में बदल देती है। ठगे जाने का अहसास बनाए रखती है। जब लगा कि मंजिल आ गई, खुद को चौराहों पर खड़ा पाया। शहर में जमने की सोची तो सामान बंधवा दिया। कभी इस शहर, कभी उस शहर। सालों-साल दर-बदर। रास्ता काटने की घात में काली बिल्लियां झाड़ियों के पीछे आंखें चमका रही थीं। मगर राह बताने वाले भी दूर न थे। सुबहें उम्मीदों से भरी थीं। शामें हताश थीं। मायूस रातों में चमकीले ख्वाब पंख फड़फड़ा रहे थे…
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कभी राजेंद्र माथुर ने अपने मार्गदर्शक और प्रिय संपादक राहुल बारपुते के लिए लिखा था- ‘वे अखबार का अनहद नाद थे। एक ऐसा नीला आकाश, जो किसी भी गरुड़ या विमान को अपने विस्तार में पंख फैलाए देखकर उत्फुल्ल होता है। अखबार में लिखकर आप उनसे ज्यादा यश कमा लें या आगे निकल जाएं, इससे उसकी चादर पर खरोंच भी नहीं लगती।’
मीडिया एक ऐसा ही खुला आकाश है, जो अपने विस्तार में उड़ानें भरने के लिए युवाओं को आमंत्रित करता है। ऐसे युवा, जिनकी आंखों में सिर्फ ऊंची उड़ानों के सपने नहीं हैं, दूर तक देखने की गहरी दृष्टि भी है और हिम्मत से कुछ बताने लायक कलम की कूवत भी। एक बंगला और लग्जरी गाड़ी के फूहड़ सपने तो सुशांत सिंह राजपूत के भी थे, जिन्होंने उसे दिल्ली से मुंबई की तरफ धकेला था।
मैं अक्सर विद्यार्थियों के बीच कहता हूं कि विश्वविद्यालयों की डिग्रियां मीडिया के दरवाजे पर काम आने वाला एक गेटपास भर हैं। अंदर जाते ही वह कागज का एक टुकड़ा है, जिसे फाइल में कहीं रख लीजिए। अब वह किसी काम का नहीं है। अब हर दिन एक नया इम्तहान है। रिपोर्टिंग या संपादन के लिए सौंपी गई हर खबर अगले दिन की गारंटी होगी। ऐसा हर दिन होगा। सालों-साल तक। इस बीच बायलाइन पर चील और गिद्ध भी मंडराएंगे। सियारों के रुदन भी सुनाई पड़ेंगे। हर अवार्ड बैठे-ठाले दुश्मनों की फेहरिस्त बढ़ाएगा। किताब लिख दी तो जाने कितने आकाश चुल्लू भर पानी में सिकुड़ जाएंगे। कहीं से बड़ा ऑफर आ गया तो बहुतों को लगेगा कि अक्ल ठिकाने लगने का वक्त आ गया है। कोई फुसफुसाहट सुनाई दे जाएगी- बहुत तेज दौड़ रहा है। मरेगा!
जिंदगी की इस जद्दोजहद में दूर किसी गांव में बूढ़े होते मां-बाप आस लगाए दुआ करते हैं। दूसरे रास्तों पर कमाने-खाने निकले दोस्त आपका नाम पढ़कर या टीवी पर चेहरा देखकर खुश होते हैं। रिश्तेदार निगाह टिकाए रखते हैं। उन्हें लगता है कि नए रास्तों पर गया लड़का ठीक-ठाक कर रहा है। मगर तब तक किराए के फ्लैटों में जिंदगी कभी ठीक-ठिकाने पर लगती खुद को तो दिखाई नहीं देती। जाने कब इन्क्रीमेंट के कागज की आवक इस्तीफे के कागज की जावक में बदल जाए! सांप-सीढ़ी का यह खेल दूर के दर्शकों को नहीं दिखता। वे खुले आकाश में ऊंची उड़ानें देखते हैं। दूर से दलदली जमीन नजर भी कैसे आ सकती है? आधी से ज्यादा उम्र दलदलों को पार करने में गुजरती है और दलदल कभी पीछा ही नहीं छोड़ते।
तब कोई ज्योतिषी जन्मकुंडली में दलदल की जड़ देखकर बताता है कि त्रयंबकेश्वर में अनुष्ठान अनिवार्य है। महाकाल के दर्शन कीजिए। आदित्य ह्दयस्त्रोत का जाप कीजिए, मुनि अगस्त्य की यही तरकीब लंका में राम के काम आई थी। एक माला गायत्री मंत्र की करते रहिए, मुनि विश्वामित्र की लिखी हजारों साल पुरानी वह कॉपी करोड़ों लोगों के काम आई है। पंडितजी के परामर्श के बाद पहली चिंता बजट की होती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी डॉक्टर के पास जाने पर ढेर महंगी जांचों और दवाओं के परचे बीमारी से ज्यादा डरावने होते हैं।
उम्मीद एक ऐसा फरेब है, जिससे पीछा छुड़ाने से भी मजा किरकिरा ही है। कभी पीछा मत छुड़ाइए। पीछा करिए। देखिए कहां ले जाती है। ऋषियों ने इसे ही साक्षी भाव कहा है। वह एक मजेदार अवस्था है। जिंदगी को अहसास ही मत होने दीजिए कि आप साक्षी भाव में हैं। उसे चक्कर में डाले रखिए कि आप उसके फरेब में हैं। वह आपका मजा लेगी। आप उसका लुत्फ लीजिए।
यह कहना वाकई बहुत आसान है। जीना इतना आसान नहीं है। लेकिन दूसरा कोई रास्ता नहीं है। मीडिया का मार्ग एक ऐसा ही आमंत्रण है। एक भयावह चुनौती भी है। दुनिया क्रोधित समुद्र को देखकर कांपती है। लेकिन उफनते समंदरों में अपने जहाज उतारने वाले जिज्ञासु नाविकों को कहीं बहुत दूर अज्ञात किनारे नजर आते हैं। और एक दिन तूफानों को झेलते, भूख-प्यास से निढाल अपनी जर्जर नाव के सहारे नाविक उन किनारों तक जा पहुंचते हैं। जिंदगी उन्हें उनकी मंजिल तक ले ही आती है, क्योंकि वे कांपे नहीं। डरे नहीं। जिंदगी ने उनकी आंखों में सिर्फ किनारे देखे।
यह लिखना भी कम्बख्त आसान है। झेलना इतना आसान नहीं है। मगर एक तरफ नाविक है, बीच में क्षितिज पर घुमड़ते तूफान हैं, डरावना समुद्र है और दूसरी तरफ किनारा है। फैसला नाविक के हाथ में है! वह झंझट छोड़कर अपनी दुनिया में लौट सकता है। लेकिन आरामदेह दुनिया वहां भी नहीं है। हर जगह आकाश चील-गिद्धों से भरा हुआ है।
मीडिया के मार्ग किसी आरामदेह जिंदगी के न्योते नहीं हैं, जहां सावन के झूलों पर रंगीन चोलियां हवाओं में उड़ाती प्रेयसियां गुनगुनाती मिलेंगी। कोयल के मुधर गान होंगे। पंख फैलाए मोर शरमाकर आम्रकुंज में गायब हो जाएंगे। चिड़ियों का शोर होगा। कबूतर पंख फड़फड़ाएंगे। मोगरा महक रहा होगा। यह सत्तर के दशक की कोई ऐसी मूवी नहीं होगी, जहां हरियाली और रास्ता रफी या लता की आवाज में उम्मीदें जगाने वाला होगा।
यह विएतनाम वॉर पर बनी हॉलीवुड की बेहतरीन फिल्मों जैसा कुछ होगा। मेरी पसंदीदा ऐसी ही एक मूवी में एक अमेरिकी फौजी कई सालों बाद युद्ध स्थल पर लौटता है। अब वहां एक वॉर म्यूजियम है। वह पूर्व सैनिक इसके गाइड से मिलने आया है। इसी गाइड ने कभी बंदी बनाए जाने पर उसे मृत्युतुल्य कष्टों जितनी अमानवीय यातनाएं दी थीं!
मीडिया ऐसा ही है। वह कांच की तरह बिखरे छलनी सपनों की क्षणभंगुर दुनिया है। हारने की दुआ करने वाले कम नहीं हैं। छुपकर वार करने वाले हर आड़ के पीछे हैं। छोटे दिल के टटपुंजिए गिराने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। सुनहरे चेहरों पर कालिख की परतें हैं। कुछ चेहरे कालिख से ही मले हुए हैं। चुल्लुओं में अपने-अपने आकाश चमकाते लोगों के हाथ में परचम है। जिनकी शक्लें अच्छा-भला दिन खराब कर दें, वे हर रोज सुबह आंखें मटकाकर पूछते हैं- क्या खबरें हैं!
यह मिटाने, गिराने, तोड़ने और हराने का खेल है। दिन-रात की जद्दोजहद सब्र का अंतहीन इम्तहान है। सब्र टूटते ही सब बिखर जाता है। सामान बंध जाते हैं। शहर बदल जाते हैं। फिर एक नई जगह। फिर एक नई सुबह। फिर एक रात। फिर कुछ सपनों की सजावट। लहूलुहान स्मृतियां।
यह किसी बंधी-बंधाई सरकारी नौकरी सा बिल्कुल नहीं है, जहां तीन-चार साल में ट्रांसफर और प्रमोशन के तयशुदा पड़ावों से होकर जिंदगी किसी शाही काफिले सी बढ़ी चली जाती है। पालकी ढोने वाले कभी रास्तों के ऊबड़खाबड़ होने का अहसास ही नहीं होने देते। जिंदगी जहां जीते-जी जन्नत का अहसास है। त्रयंबकेश्वर या आदित्य ह्दय स्त्रोत के पाठ का नुस्खा बताने वाला ज्योतिषी तभी तस्वीर में आता है, जब ‘तेज धावक’ अफसर किसी गड्ढे में खुद को गिरा ले या बिना ब्रेक की गाड़ी किसी दीवार से जा टकराए।
तरह-तरह के ‘डरावने नामों वाली सरकारी जांच एजेंसियां’ तब कुछ देर के लिए जिंदगी का जायका बिगाड़ जाती हैं और अखबारों में छापे, जब्ती, काली कमाई की सुर्खियां छाने लगती हैं। खबरों के ऐसे मौसम में मीडिया मानसून का मजा लेता है, जिसकी नजर में सचिवालयों की सरकारी इमारतों में रिश्वतखोरी और कमीशनखोरी के सिवा कुछ होता नहीं है।
चंद काबिल अफसरों की दुर्लभ प्रजाति वहां भी है, जो कुछ बेहतर काम के अच्छे अवसर का इंतजार करती है, लेकिन ऊपर बैठे शातिर करतबबाजों को इनकी जरूरत नहीं होती। ऊंची बोलियां, ऊंचे दाम। ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद। ईमानदारी और निष्ठा के हाशिए यहां भी हर पन्ने पर हैं। कोई काबिल लीडर कभी आया तो बात और है। वर्ना हाशिए से चुपके से दस्तावेज बाहर आते हैं और मीडिया में पसर जाता है-‘एक और घोटाला।‘
देर रात खबरों पर काम करने वाले रिपोर्टर और डेस्क एडिटर छापे में जब्त नकदी के आंकड़े और ब्योरे बॉक्स में सजाते हुए गहरी सांसें लेते हैं-‘अपन कहां फंस गए दुबेजी। किसी सरकारी नौकरी में ही चले जाते। देखो ये जोशी युगल की कुंडली किस ज्योतिषी ने मिलाई होगी! योगीराज नोटों के बिस्तर पर सो रहा है। किले के नीचे खरे के फार्महाऊस से क्या-क्या निकला है, वो ओपी शुक्ला, बड़ा तेज धावक निकला और वो हनीट्रेप वाले बागड़ बिल्ले फिर मलाई के कटोरों पर हैं! साला यहां दो कमरों का किराया भारी है!’
फ्रंट पेज की सबसे बड़ी सुर्खी रचने के बाद देर रात पार्किंग में अपने पुराने स्कूटर पर किक लगाता हुआ रिपोर्टर विएतनाम वॉर की किसी टुकड़ी के थके-मांदे और भूख-प्यास से निढाल फौजी की तरह घर लौटता है, जहां एक उचटी नींद उसके इंतजार में दरवाजे की आहट पर कान दिए टिकी है। एक मासूम बच्चा बिस्तर पर लेटा हुआ है, स्कूल में जिसके एडमिशन के लिए आज भी किसी से बात नहीं हो पाई। गांव से कोई चिट्ठी आई है। मकान मालिक अगले महीने फ्लैट की चाबी चाहता है। एक स्याह रात और सामने है। चमकीले ख्वाबों की दस्तक है…
(बात कुछ पूरी हुई नहीं। दार्शनिक व्याख्या ज्यादा हो गई। वैसे तसल्ली रखें, नामजद अगली किताब जल्दी ही इन्हीं आपबीतियों पर है। सांपों और सीढ़ियों तक पहुंच ही नहीं पाया। मूड बना तो अगली बार इनकी झाड़-पोंछ करेंगे। टिप्पणियों में शालीनता हो। शब्द शालीन ही होने चाहिए। कि नहीं?)