राकेश दीवान
अपने तमाम रंज-ओ-गम के साथ गांव लौटते मजदूरों ने एक जरूरी बात और उजागर कर दी है। आजादी के पूर्व और बाद के सालों में हमारे राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, फिल्मी और ऐसे ही अनेक विमर्शों में जिस गांव को अनेकानेक व्याधियों का अबाध परनाला माना-बताया जाता रहा है, उसे करोड़ों शहरी मजदूरों ने गले लगा लिया है। दाल-रोटी की खातिर पीढि़यों से शहरों की झुग्गियों, ‘मलिन’ बस्तियों में बसे मजदूरों ने अपने कठिन समय में गांव को ही चुना है। क्यों? क्या इस चुनाव में कोई और तरह के संकेत भी छिपे हैं? क्या गंदगी, बीमारी और अपमान से भरे-पूरे शहरी रोजगारों-आवासों को छोडकर बगटूट गांव-वापसी करने वाले मजदूर भारत के सत्ता–प्रतिष्ठान को कोई जरूरी, जानने लायक इशारा भी कर रहे हैं?
तरह-तरह की फिल्मों, कविता-कहानियों, राजनीतिक-सामाजिक बातचीतों, दलीय व गैर-दलीय राजनीतियों और जीवन के लिए जरूरी ऐसे ही अनेकानेक विषयों के ‘रसास्वादन’ के बाद गांव की जो छवि बनती है उसमें आमतौर पर मुच्छड, क्रूर-हिंसक जमींदार, भ्रष्ट-लम्पट अधिकारी और झूठी-बेईमान पंचायतों के अंगूठे-तले दबी ‘बेचारी जनता’ का सदियों से चला आ रहा खाका भर दिखाई देता है।
जाति और वर्ग के इस अमानवीय बंटवारे में फंसे ऐसे लगभग ‘त्यागने योग्य’ इलाकों की छवि पूंजी के उस खेल में अहम भूमिका निभाती है जो गांव और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को नकारा मानकर उद्योगों और शहरों को अहमियत देती है। एक तरह से फिल्मों, कविता-कहानियों, राजनीतिक-सामाजिक हलकों में स्थापित गांवों की बदहाल छवि पूंजी-केन्द्रित विकास को सहारा ही देती रही है। कहा जाता है कि अपने ही बोझ-तले डूबती ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में, उसके ‘अतिरिक्त’ श्रम और संसाधनों को उद्योगों में खपाकर ही ‘विकास’ हो पाएगा।
वैसे तो हमारे यहां कृषि क्षेत्र के दम पर ही उद्योग समेत बाकी सभी क्षेत्र फलते-फूलते-इतराते रहे हैं, लेकिन ध्यान से देखें तो ‘विकास’ की इस तजबीज ने नब्बे के दशक में आए भूमंडलीकरण के बाद से ज्यादा जोर मारा है। उस जमाने में पूंजी के ‘हरावल दस्ते‘ में शुमार विश्व बैंक ने 1996 में भारत सरकार को गांवों की कीमत पर शहरों, उद्योगों को फलने-फूलने देने की निर्देश-नुमा-सलाह दी थी।
सन् 2003 में इन निर्देशों पर एक बार फिर ‘रिमॉइन्डर’ भी चेंप दिया गया। नतीजे में कांग्रेस के डॉ. मनमोहन सिंह, पी.चिदम्बरम और प्रणव मुखर्जी और भाजपा के अरुण जेटली, पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण जैसे वित्तमंत्रियों ने ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को अनदेखा करने का ‘अनुष्ठान’ जारी रखा। गांवों की बर्बादी को सपने तक में देखने वाले इनमें से कुछ वित्त-मंत्रियों ने एक तरफ, गांवों और उसकी कृषि आधारित अर्थ-व्यवस्था में लगातार निवेश की कमी की और दूसरी तरफ, अनाज के उत्पादन और रोजगार की संभावनाओं का भरपूर लाभ उठाया।
इस अनदेखी का सर्वाधिक गंभीर उदाहरण भंडारण के उन स्थानों, गोदामों के तत्काल निर्माण का है, जिनके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में (पीयूसीएल विरुद्ध भारत सरकार प्रकरण) स्पष्ट आदेश दिए थे और जो आज तक नहीं बन पाए हैं। आज भी, इसी बरसात में लाखों टन अनाज पानी में बर्बाद होने के लिए खुले में पड़ा है। इसके उलट, कृषि में निवेश के नाम पर उद्योगों, उनके खाद-दवा-कीटनाशकों जैसे उत्पादों समेत बीमा कंपनियों को तरह-तरह की सब्सिडी दी जाती रही, ताकि किसान-हितैषी छवि साधने के अलावा उद्योगों की चांदी कटती रहे।
अलबत्ता, कृषि-क्षेत्र को साधने के इन धतकरमों के बावजूद सभी रंगों-झंडों वाली सत्ताएं और योजनाकार एक तरफ, जरूरत से ज्यादा उत्पादन, रोजगार के सर्वाधिक अवसर, लगातार फैलते-बढ़ते कुपोषण और दिन-दूनी, रात-चौगुनी रफ्तार से बढ़ती किसान-आत्महत्याओं का कोई कारगर हल नहीं निकाल पाए और दूसरी तरफ, खेती करने के लिए जरूरी प्राकृतिक व मानव संसाधनों को उद्योगों की चाकरी में लगाया जाता रहा।
किसानों की भलाई के नाम पर खाद-दवा-कीटनाशक बनाने वाली और बीमा करने वाली कंपनियों के स्पष्ट हित-साधन के अलावा कृषि क्षेत्र को फिसड्डी बनाए रखा गया। यहां तक कि किसानों को उनके उत्पादनों का वाजिब दाम तक नहीं मिल पाया। अपनी फसलों की लागत तक निकाल पाने में असफल और जगह-जगह कृषि उत्पादनों और दूध सड़क पर फेंकते किसानों के दृश्य आजकल आम हैं। इसी तरह उल्लेखनीय माने गए देश के पांच राज्यों समेत समूचे देश में किसानों ने अपनी जान लेना, आत्महत्या करना नहीं छोड़ा है।
सवाल है कि थोकबंद वापस लौटे प्रवासी मजदूरों द्वारा गले लगाए गए गांवों में क्या हो जिससे उन्हें फिर उन्हीं झुग्गियों, ‘मलिन’ बस्तियों में लौटकर बसना ना पडे? अव्वल तो ‘न्यूनतम यूनिवर्सल इनकम’ के तहत घर वापस लौटे मजदूरों को तत्काल एकमुश्त मदद करनी चाहिए। यानि सभी मजदूरों को जीवन-यापन के लिए एक न्यूनतम राशि दी जानी चाहिए। इस राशि के साथ गोदामों में पड़ा अनाज इन मजदूरों में वितरित किया जा सकता है।
आंकडे़ बता रहे हैं कि हमारे पास आज भी इतना अनाज है कि अगले पांच साल तक पूरे देश को बिना कुछ किए खिलाया जा सके। याद रखें, यह मदद कोई भीख नहीं है, इसे कमाने में मजदूरों ने अपना जीवन लगाया है। आखिर उद्योगों, शहरों में भी तो इसी निमित्त ‘प्रॉवीडेंट फंड’ या ‘पेंशन’ का प्रावधान होता है? इस फौरी आर्थिक सहायता के बाद कृषि और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के उन सवालों को हल करना जरूरी होगा जिनके चलते भारतीय कृषि दुर्दशा भोग रही है, हालांकि आज भी उसमें लाखों रोजगार और भारी उत्पादन की अनंत संभावनाएं मौजूद हैं।
यह बात सभी को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि भारत सरीखे देश का भविष्य कृषि और ग्रामीण अर्थशास्त्र के भरोसे ही टिकने वाला है। कोई उद्योग देश की अधिकांश कामकाजी आबादी को उतना लाभदायक रोजगार नहीं दे सकता जितना कृषि। कृषि के पास रोजगार के व्यापक अवसर हैं और बदले में मुआवजे के तौर पर देने के लिए भरपूर अनाज भी है।
मध्यप्रदेश में ही पिछले साल 67 लाख मीट्रिक टन गेहूं का उपार्जन इस साल लगभग दुगना बढ़कर 126 लाख मीट्रिक टन हो गया है। समूचे देश की कमोबेश यही स्थिति है। ‘शांताकुमार समिति’ के नतीजों के अनुसार देखें तो देश का समूचा उपार्जन करीब छह फीसदी किसानों से ही किया जाता है। यानि कुल छह फीसदी किसान ही मंडी तक पहुंच पाते हैं। अब यदि बाकी के 94 फीसदी किसान भी अपना अनाज मंडी में ले आएं तो किस तरह की हायतौबा मचेगी? वापस गांव पहुंचे प्रवासी मजदूरों के लिहाज से देखें तो उनके लिए इसमें कितनी अपार संभावनाएं नजर आ सकती हैं?
यदि ऐसा मान लिया जाए कि भूमंडलीकरण के सपने ने हमें कुछ साल अपने सही रास्ते से भटका दिया था, तो गांव और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में अब भी रोजगार, भोजन और बुनियादी जरूरतों के लिहाज से एक बड़ी संभावना दिखाई देती है। बुनियादी ढांचे की कुछ बातें हमें जरूर बदलनी होंगी, लेकिन वे मामूली हैं। मसलन- गेहूं, चावल, सरसों जैसी आरोपित, बाजारू फसलों की जगह मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी जैसी पारंपरिक फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। रासायनिक खादों, दवाओं और कीटनाशकों के बजाए पारंपरिक तरीकों, उपकरणों का प्रयोग करना सीखना होगा। और सबसे महत्वपूर्ण, ‘अधिक उत्पादन की बजाए अधिक लोगों द्वारा उत्पादन’ की बात गांठ बांधनी होगी।
‘कोविड-19’ ने हमें एक मौका दिया है कि हम अपने तौर-तरीकों को बदलें। यदि इस बार हम चूक गए, तो शायद दूसरा मौका नहीं मिलेगा।
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