उस आपातकाल को कोसें या इस आपत्तिकाल पर आंसू बहाएं

राकेश अचल

हम दुनिया के उन खुशनसीब लोगों में से हैं जिन्होंने एक ही जीवन में दो काल एक साथ देखे हैं। संधिकाल में जन्मे लोगों के लिए ये सौभाग्य होता ही है। हमने देश में आजादी के बाद पहली बार लगा आपातकाल देखा और पहला आपत्तिकाल भी देखा है। देखा क्या है, उससे तो गुजर रहे हैं। जिन लोगों ने पहला आपातकाल देखा था उनमें से बहुत से लोग ये आपत्तिकाल देखने के लिए आज जीवित नहीं है, ये उनकी बदनसीबी है या खुशनसीबी हम नहीं कह सकते!

देश में आपाकाल कोई 19 माह चला और इस आपातकाल ने बाद में देश की सरकार ही नहीं देश की सियासत ही बदल दी। आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने वाले आपातकाल हटते ही इतिहास बन गए और जो इस आपातकाल में जेल गए या भूमिगत रहे वे देश के भाग्यविधाता बन गए। देश को आपातकाल ने बहुत कुछ दिया, अनुशासन दिया दिया सो दिया लेकिन दंश भी बहुत दिए।

आपातकाल में बुलडोजर और कैंचियां बहुत चली थीं और ये ही बाद में देश के कायाकल्प का आधार बनीं। आपातकाल में मीसा भी जन्मी और मीसाबंदियों को भी बाद में इस मीसा का लाभ मिला। वे कालांतर में लोकतंत्र के सेनानी हो गए और सरकारी खजाने से उन्हें मोटी-मोटी पेंशनें भी मिलने लगीं, जैसी कि स्वतंत्रता सेनानियों को मिलती थीं।

देश की जिस पीढ़ी ने आपातकाल नहीं देखा वो आज कम से कम 40 -45 साल की तो हो ही गयी है। उसे आपातकाल के बारे में जो कुछ बताया जा रहा है, उसे गोली मारिये। आप तो आज के आपत्तिकाल पर आइये। ये आपत्तिकाल देश में अराजकता, असहिष्णुता, भ्रष्टाचार, मंहगाई, भाई-भतीजावाद जैसे किसी मुद्दे पर केंद्रित नहीं है। इसके पीछे एक विषाणु है, जिसे कोरोना कहते हैं।

इस कोरोना ने देश को पहले 70 दिन से ज्यादा लॉकडाउन में रखा और अब अनलॉक की गिनती गिन रहा है। आपातकाल में कुछ हजार लोग पकड़ कर जेलों में डाले गए थे, लेकिन आपत्तिकाल में पूरे देश को घरों में नजरबंद कर दिया गया। जैसे आपातकाल में अधिकांश नागरिक अधिकार स्थगित थे, वैसे ही आपत्तिकाल में भी सब कुछ स्थगित रहा, यहां तक कि न्याय भी।

आपातकाल का अर्धसत्य पढ़ने वाली पीढ़ी के लिए ये जानना जरूरी है कि दोनों कालों में क्या फर्क था? आपातकाल में रेलें, बसें, हवाई जहाज और दूसरी सेवाएं ‘मिनिट टू मिनिट’ चलाई जा रही थीं, आपत्तिकाल में उन्हें बिलकुल बंद कर दिया गया। यानि लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए तरस गए।

आपातकाल में एक बीस सूत्रीय कार्यक्रम बना और लागू किया गया, लेकिन आपत्तिकाल में एक 20 लाख करोड़ का विशेष पैकेज लागू किया गया, पर वह लागू हो नहीं पाया। आपातकाल में देश में भगदड़ नहीं मची। कोई बेरोजगार नहीं हुआ, किसी को पलायन के लिए मजबूर नहीं होना पड़ा, लेकिन आपत्तिकाल में करोङो मजदूर पलायन के लिए मजबूर किये गए।

दस करोड़ से ज्यादा नौकरियां चली गयीं जो आज तीन महीने बाद भी वापस नहीं मिली हैं। हाँ इस दौर में बड़ी संख्या में लोगों को ‘कोरोना-वॉरियर’ होने के प्रमाण पत्र जरूर मिले हैं। खांसी-खुल्ला के लायसेंस पर कोरोना नाशक दवाएं बनाने की छूट जरूर मिली है।

आज वैसे आपातकाल की 45 वीं सालगिरह है, लेकिन ये ऐसी सालगिरह है जिसे मनाया नहीं जाता, इसे कोसा जाता है। इसे कोसा भी जाना चाहिए क्योंकि ये लोकतंत्र के दामन पर एक काला दाग जैसा काल था, लेकिन इस आपत्तिकाल के बारे में फैसला अगले साल किया जाएगा कि इसे कोसा जाये या इसकी सालगिरह पर जश्न मनाया जाये।

क्योंकि इस आपत्तिकाल में जनता की विपत्तियां लगातार बढ़ी हैं। देश की सरहदों पर तनाव बढ़ा है। 45 साल बाद चीन से भिड़ंत में हमारे 20 जवान शहीद हुए हैं। 73 साल में पहली बार नेपाल ने हमें आँखें दिखाई हैं और सबसे बड़ी बात, पहली बार देश में वर्चुअल सरकार चली है। देश में जब आपातकाल लगा तब मेरी उम्र 17 साल की थी, आज 62 की है, इसलिए मुझे ये पात्रता है कि मैं दोनों युगों के बारे में अपने नौजवानों को बता सकूं।

मेरे ख्याल से आपातकाल लोकतंत्र के दामन पर धब्बा था तो ये आपत्तिकाल लोकतंत्र के दामन को तार-तार करने वाला काल है। भगवान ऐसा दौर देश को दोबारा न दिखाए।

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टीम मध्‍यमत

 

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