श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी : उन्‍होंने सचमुच बलिदान किया  

प्रभात झा

पुण्यतिथियां तो अनेक महापुरुषों की मनायी जाती हैं और आगे भी मनायी जाती रहेंगी। वे पुण्यात्मा बहुत भाग्यशाली होते हैं, जिनके समर्थक या विचारधारा पर चलने वाले उनके ‘बलिदान’ को अपने प्रयासों से सार्थक कर दुनिया के सामने इतिहास रचते हैं। 23 जून को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि है। अखण्ड भारत के लिए डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि भारत में यानि एक देश में ‘दो निशान, दो विधान एवं दो प्रधान’ नहीं चलेंगे। उन्होंने भारतीय संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कह दिया था कि ‘या तो मैं संविधान की रक्षा करूंगा, नहीं तो अपने प्राण दे दूंगा’। हुआ भी यही।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर गए। उन्हें शेख अब्दुल्ला की सरकार ने गिरफ्तार किया। उन्होंने कहा मैं इस देश का सांसद हूँ। मुझे अपने देश में ही कहीं जाने से आप कैसे रोक सकते हैं। गिरफ्तारी के कुछ ही दिनों बाद उन्हें मृत घोषित किया गया। वे अखंड भारत के लिए बलिदान देने वाले पहले भारतीय थे, जो जनसंघ के अध्यक्ष के रूप में वहां गए थे।

23 जून के उसी बलिदान दिवस को भारतीय जनसंघ और अब भाजपा पुण्यतिथि के रूप में मनाती है। भारतीय जनसंघ से लेकर भाजपा के प्रत्येक घोषणा पत्र में अपने बलिदानी नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के इस घोष वाक्य को, कि “हम संविधान की अस्थायी धारा 370 को समाप्त करेंगे, सदैव लिखा जाता रहा। समय आया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्‍होंने स्वयं डॉ. मुरली मनोहर जोशी के साथ भारत की यात्रा करते हुए श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराया था और गृहमंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त 2019 को धारा 370 को राष्ट्रहित में समाप्त करनें के निर्णय दोनों सदनों से पारित करा कर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजली दी।

‘‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है,

जो कश्मीर हमारा है, वह सारा का सारा है।’’

विभाजन का विरोध किया

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत का विभाजन नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए वे महात्मा गांधी के पास भी गये थे। परंतु गांधीजी का कहना था कि कांग्रेस के लोग उनकी बात सुनते ही नहीं। जवाहरलाल नेहरू भी विभाजन के पक्ष में थे। जब देश का विभाजन अनिवार्य जैसा हो गया, डॉ. मुखर्जी ने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिंदुओं के हितों की उपेक्षा न हो। उनके ही प्रयासों से मुस्लिम लीग पूरा प्रांत हड़पने में कमयाब नहीं हो सकी। उनके प्रयत्नों से हिंदुओं के हितों की रक्षा तो हुई ही कलकत्ता बंदरगाह भी पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) को सौंपे जाने से बच गया। पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आ रहे हिंदुओं की दुर्दशा से वे विचलित थे। उन्होंने विस्थापितों के बीच रहकर उनको लाभान्वित करने वाली योजनाओं की पहल की।

नेहरू द्वारा विस्थापितों के प्रति उपेक्षा और राष्ट्रहितों के प्रति प्रतिबद्धता के कारण उन्होंने अंततः 8 अप्रैल 1950 को नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया, जिसमें वे 1947 में गांधीजी के निमंत्रण पर शामिल हुए थे। डॉ. मुखर्जी ने अनुभव किया कि नेहरू पाकिस्तान सरकार के प्रति बहुत ज्यादा नरम रवैया रखे हुए हैं और उनमें पश्चिमी (वर्तमान पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में छूट गए हिंदुओं के हितों की रक्षा सुनिश्चित करने का कोई साहस नहीं है।

उनका स्पष्ट मानना था कि नेहरू-लियाकत समझौता निरर्थक था क्योंकि इसमें भारत सरकार पर तो अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी डाली गई थी, लेकिन पाकिस्तान की ओर से ऐसे ही आचरण की कोई पहल नहीं की गई थी। त्यागपत्र देने के बाद डॉ. मुखर्जी ने संसद में प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने का निश्चय किया। इस उद्देश्य से वे प्रतिपक्ष के राजनीतिक मंच के गठन की संभावनाओं को तलाशने की ओर अग्रसर हुए। 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ का गठन हुआ जिसके वे संस्थापक अध्यक्ष बने।

आई विल क्रश दिस क्रशिंग मेंटालिटी

देश में पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक हुआ। भारतीय जनसंघ को तीन सीटें मिली। डॉ. मुखर्जी भी दक्षिण कलकत्ता संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीत कर लोकसभा में आए। यद्यपि उन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं था लेकिन वे संसद में डेमोक्रेटिक एलायन्स के नेता थे। सदन में  नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार करते थे। नेहरू ने एक बार डॉ. मुखर्जी की तरफ इशारा करते हुए कहा था ‘जनसंघ एक कम्यूनल पार्टी है, आई विल क्रश जनसंघ।’ इस पर डॉ. मुखर्जी ने जवाब देते हुए कहा, ‘माय फ्रेंड पंडित जवाहर लाल नेहरू सेज देट ही विल क्रश जनसंघ, आई से आई विल क्रश दिस क्रशिंग मेंटालिटी।’

अपना जीवन बलिदान कर दूंगा

जिस समय संविधान सभा में धारा 370 पर विचार-विमर्श हो रहा था, शेख अब्दुल्ला की बात मानकर जवाहरलाल नेहरू स्वयं विदेश चले गए। यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया। धारा 370 के कारण कश्मीर की समस्या भले ही बाद में लोगों को दिखाई दी हो, डॉ. मुखर्जी उसकी गंभीरता को आरंभ में ही समझ गए थे। लोकसभा में 1952 के उनके भाषण अगर देखें जाएं तो साफ़ हो जाएगा कि बाद में कश्मीर में जो कुछ हुआ, आतंकवाद और हिंदुओं के साथ अत्याचार एवं पलायन,  उन्होंने तब देख लिया था।

जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की पृथकतावादी राजनीतिक गतिविधियों से उभरी अलगाववादी प्रवृतियां 1952 तक बल पकड़ने लगी थीं। डॉ. मुखर्जी ने प्रजा परिषद के सत्याग्रह को पूर्ण समर्थन दिया जिसका उद्देश्य जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना था। उन्होंने जोरदार नारा बुलंद किया था -’एक देश में दो निशान, एक देश में दो विधान, एक देश में दो प्रधान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।’ अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त करते हुए कहा ‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’

बिना परमिट के कश्मीर में प्रवेश करने से पहले उन्होंने कहा था ‘विधान लूंगा या अपने प्राण दूंगा।’ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया। 40 दिन तक न उन्हें चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई गई और न अन्य बुनियादी सुविधाएं दी गई। 23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। अपने संकल्प को साकार करने के लिए डॉ. मुखर्जी ने भारत माता के चरणों पर अपने जीवन को न्‍योछावर कर दिया।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू-कश्मीर की लड़ाई लड़ने वाले पहले भारतीय थे जिन्होंने अपना बलिदान दिया था। देश में 23 जून को ‘एक प्रधान, एक विधान और एक निशान’ दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। इससे डॉ. मुखर्जी को हर वर्ष उनके बलिदान दिवस पर राष्ट्र याद तो करेगा ही, देश में राष्ट्रीय एकता और अखंडता की भावना बलवती होगी। मां भारती के चरणों में  अपना जीवन अर्पण कर देने वाले इस महानतम राष्ट्रभक्त के लिए इससे बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती।

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)

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