इस बार ‘आम’ भी कुछ सहमा-सहमा सा है..!

अजय बोकिल

गलवान घाटी मामले में चीन की ‘शाब्दिक ठुकाई’ करने वालों को इस बात का अंदाज नहीं है कि चीन हमें अब आम उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में भी कड़ी चुनौती दे रहा है। अभी हम आम की पैदावार और निर्यात के मामले में दुनिया में नंबर वन हैं। लेकिन चीन भी दूसरे नंबर पर आ चुका है। हालांकि इस साल कोरोना वायरस ने हमारे आम को ‘रसहीन’ बना दिया।

लॉकडाउन के चलते ज्यादातर आम पेड़ों पर ही सड़ गए। मई के दूसरे पखवाड़े में कुछ आम बाजारों में दिखना शुरू हुआ तो जून की बारिश ने उसे भी बेस्वाद-सा कर दिया। हमारे आमों की खासियत और रंगत बनी रहे, इसके लिए अब यूपी के आमों की कुछ और लोकप्रिय किस्मों के लिए जीआई टैग हासिल करने के प्रयास शुरू हो गए हैं। लेकिन भारतीय आमों का परचम दुनिया में फहराते रखने के लिए और गंभीर प्रयासों की जरूरत है।

सच कहें तो कोरोना की दहशत में लिपटी गर्मियां इस बार बिना आम के ही निकल गईं। होली के बाद से ही बादाम या आम की और दूसरी किस्‍में बाजार में दस्तक देने लगती थीं, वह इस बार नदारद दिखीं। इसका एक कारण सर्दियों में मौसम की मार भी रही। जब बौर फल में बदलने लगा तो कोरोना उन्हें लील गया। लॉकडाउन में सारे साधन बंद हो गए। आखिर ‘आम’ को दाद देने ‘अवाम’ तो चाहिए।

बाजार न होने से बहुत से आम उत्पादकों ने आम तोड़े ही नहीं। कई डाल पर ही सड़ गए, जो बाजार में आए, तब तक काफी देर हो चुकी थी। यानी कोयल की कूक और आम की महक की जो जुगलबंदी रहती आई है, वह इस साल कोरोना के कहर में गुम हो गई। लिहाजा पूरा सीजन ही आम रस के बिना निकल गया। हालांकि अभी आम बाजार में मिल रहा है, लेकिन वैसी बात नहीं है। वो रसीला आम विरल है, जो कलेजे को ठंडा करता आया है।

यूं इस साल आम के साथ अंगूर भी गर्मियों में बहुत कम दिखा, लेकिन आम की कमजोर मौजूदगी ने सबको बेचैन किया। इसलिए भी क्योंकि आम हमारे लिए केवल एक फल भर नहीं है। वह मांगल्य का प्रतीक भी है। न सिर्फ फल बल्कि आम की पत्तियां वंदनवार के लिए जरूरी हैं। आम की लकड़ी हवन में समिधा के रूप में काम आती है। कच्चा आम भी कई रूपों में खाया जाता है तो आम की छांव लू को शीतल करने का काम करती है।

आम ‍इस देश में सदियों से होता रहा है। क्योंकि भारत ही आम का घर है। होली की मस्ती खत्म होते ही महकते आमों की आमद शुरू हो जाती है। बाजार में बादाम, दशहरी, लंगड़ा, चौसा, हापुस आदि आम लोगों को ललचाने लगते हैं। वैसे आमों के नामकरण की भी दिलचस्प कहानी है। बनारस का ‘लंगड़ा’ आम लंगड़ा क्यों कहलाता है, इस बारे में बहुतों को पता नहीं है। क्योंकि कोई फल ‘लंगड़ा’ कैसे हो सकता है?

इसके पीछे दास्तान ये है कि करीब ढाई सौ साल पहले बनारस के एक शिव मंदिर में एक साधु आम के दो पौधे लेकर आया। मंदिर से लगी जमीन में उसने ये आम के पौधे लगा दिए और पुजारी से कहा कि इसका रहस्य किसी को न बताए। कुछ साल बाद उनमें आम लगने लगे। बात राजा तक पहुंची और जल्द ही इस पौधे की कलमें कई जगह लगीं। लोगों को यह आम खूब पसंद आया। जो साधु ये पौधे लेकर आया था, वो लंगड़ा था। इसलिए आम भी ‘लंगड़ा’ कहलाने लगा।

इसी तरह दशहरी आम वास्तव में लखनऊ के पास स्थि‍त दशहरी गांव की उपज है। कहते हैं कि चौसा का नामकरण शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह हुमायूं को हराने की खुशी में किया था। रत्नागिरी का अल्फांजो पुर्तगाली अपने साथ लेकर आए थे। आजकल हाइब्रिड वेरा‍यटियों के नाम भी सुंदर-सुंदर रखे जाते हैं। जैसे कि आम्रपाली, गुलाब, खस वगैरह।

पूरी दुनिया के आम उत्पादन का 40 फीसदी केवल भारत में होता है। हम सबसे बड़े आम निर्यातक भी हैं। एपीडा के अनुसार भारत ने साल 2018-19 में 406.45 करोड़ रुपए का 46510.23 मीट्रिक टन आम निर्यात किया था। जबकि पिछले साल देश में 2 करोड़ 10 लाख टन आम पैदा हुआ था, लेकिन इस साल 10 लाख टन कम पैदावार हुई बताई जाती है। देश में आम की डेढ़ हजार से ज्यादा किस्में पैदा होती हैं। स्वाद के मामले में भारतीय आमों की बात ही अलग है।

वैसे आम और मानसून का भी अजीब रिश्ता है। हापुस और बादाम जैसे आम लू में भी गरमी से लोहा लेते हैं, लेकिन प्री मानसून की फुहारें पड़ते ही वो गर्मी से मुकाबला करने वाली अग्रिम चौकियों से पीछे हट जाते हैं। उनकी जगह दशहरी, लंगड़ा, चौसा, तोतापरी आदि आम लेते हैं। इसके अलावा रसीला सफेदा भी मोर्चा संभाल लेता है। आजकल देसी चूसने वाले आम कम मिलते हैं। वरना कुछ बरस पहले तक रस का आम ही आम रस का स्रोत हुआ करता था। क्योंकि आम का शेक भी बनता है, यह लोगों को पता न था।

इस बार लॉकडाउन के चलते बड़ी तादाद में आम न तो बाजारों में और न ही घरों तक पहुंच पाया। ऐसे में आम की तमाम किस्मों को जीआई टैग दिलवाने के प्रयास तेज हो गए हैं। लखनऊ के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फार सबट्रापिकल हार्टिकल्चर (सीआईएसएच) ने अब बनारसी, लंगड़ा, चौसा और रटौल आमों की खास किस्मों के जीआई (ज्यो‍ग्राफिकल इंडिकेशन) टैग हासिल करने की कोशिशें तेज कर दी है।

जीआई टैग उन उत्पादों को दिया जाता है जो किसी क्षेत्र विशेष में पैदा होते हैं और उनकी स्थानीय पहचान इससे संरक्षित होती है। इसके पूर्व जीआई टैग पाने वालों में लखनऊ का दशहरी आम, रत्नागिरी का अल्फांजो (हापुस), गुजरात के गीर और महाराष्ट्र के मराठवाडा में होने वाला केसर, आंध्र प्रदेश का बंगनापल्ली, भागलपुर का जर्दालू, कर्नाटक का अप्पामिडी और बंगाल के मालदा के हिमसागर शामिल हैं। जी आई टैग मिलने से इन आमों को बेहतर दाम मिलते हैं, साथ ही इस क्षेत्र के उत्पादकों का इस पर एकाधिकार रहता है।

अब बात चीन की। तकरीबन हर तरह के प्राणियों का भक्षण करने वाले चीनियों को आम का स्वाद पहले पता न था। कहते हैं कि 1968 में पहली बार पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री सैयद शरीफुद्दीन पीरजादा चीन यात्रा पर जाते समय खास आम की 40 पेटियां बतौर तोहफा साथ ले गए थे। चीनी नेता माओ त्से दंग को ये आम बेहद भाए। उन्होंने इन्हें मजदूर नेताओं को भिजवा दिया।

इसके बाद चीन में भी आम पैदा होने लगा। अब वही चीन हमें आम उत्पादन और निर्यात के मामले में खुली चुनौती दे रहा है। हालांकि भारतीय आम गुणवत्ता और साख के मामले में बहुत आगे हैं। लेकिन निर्यात के जो इन्फ्रास्ट्रक्चर और लॉजिस्टिक्स चीन के पास हैं वैसे भारत के पास नहीं हैं। यहां तक कि फिलीपींस भी इस क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है।

ये देश आमों की नई प्रजातियां विकसित कर रहे हैं। वहां आम पर काफी शोध और अनुसंधान हो रहा है। इसके विपरीत हमारे देश में आम पर शोध और अनुसंधान करने वाला एकमात्र संस्थान है लखनऊ का सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर सबट्रापिकल हार्टिकल्चर। वह भी केवल आम के लिए नहीं है। इस क्षेत्र में कुछ काम निजी क्षेत्र में जरूर हो रहा है।

कहते हैं कि आम ऐसा फल है, जो आम के साथ अपनी गुठलियों के दाम भी दिलवा जाता है। लेकिन उसके लिए आमों के ठीक से संवर्द्धन, देखभाल और व्यापक अनुसंधान की जरूरत होती है। भारतीय आम सचमुच ‘फलों का राजा’ बना रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम आम को भी ‘खास’ की तरह लें। क्योंकि आम ‘स्वदेशी’ का भी हरकारा है। उसका स्वाद, रंग, रस, मंगल भाव और आर्थिक मू्ल्य यूं ही कायम रहे, इसके लिए जरूरी है कि सरकार इसे पूरी गंभीरता से ले। कम से कम ये बाजार तो चीन हमसे छीन न सके।

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टीम मध्‍यमत

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