सुप्रीम कोर्ट ने 4 अक्टूबर को महाराष्ट्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं और आपको कोई चिंता ही नहीं है। कोर्ट ने यह टिप्पणी मीडिया की उन रिपोर्ट्स का संज्ञान लेते हुए की, जिनमें कहा गया था कि राज्य (महाराष्ट्र) में कुपोषण से 600 आदिवासी बच्चों की मौत हो गई है। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के वकील से बड़े तल्ख अंदाज में पूछा- ‘’आपको क्या लगता है कि हम यहां मजे लेने के लिए बैठे हैं? क्या आप यह मानते हैं कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में कुछ बच्चों के मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता?’’
कोर्ट ने भले ही सवाल के रूप में यह बात पूछी हो, लेकिन शायद असली बात यही है। कुपोषण हो या चिकनगुनिया, सरकारें यही मानकर चल रही हैं कि सौ दो सौ या हजार दो हजार लोग मर भी गए तो क्या फर्क पड़ता है। महामारी का रूप लेने वाली बीमारियों को लेकर तो फिर भी हो हल्ला मच जाता है, मलेरिया, डेंगू या चिकनगुनिया को लेकर तो फिर भी सरकारों पर दबाव बन जाता है, लेकिन कुपोषण जैसे मामलों में तो सरकारें रेंगती तक नहीं।
सुप्रीम कोर्ट में जो मामला चल रहा है वह दरअसल कई राज्यों में सूखे की स्थिति को लेकर ‘स्वराज अभियान’ नामक संस्था की याचिका से जुड़ा है। पता नहीं ‘स्वराज अभियान’ ने सुप्रीम कोर्ट में केवल महाराष्ट्र से जुड़ी मीडिया रिपोर्ट्स ही क्यों प्रस्तुत कीं, हाल तो मध्यप्रदेश का भी बहुत बुरा है। यदि याचिका से जुड़े लोग सुन रहे हों, तो उनसे गुजारिश है कि अगली सुनवाई में जरा मध्यप्रदेश के अखबारों की कटिंग भी माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रस्तुत कर दें। ताकि देश की सर्वोच्च अदालत को पता तो चले कि इस मामले में एक भाजपा शासित राज्य महाराष्ट्र को दूसरा भाजपा शासित राज्य मध्यप्रदेश कड़ी टक्कर दे रहा है। खेती की रिकार्ड वृद्धि दर हासिल करके देश और दुनिया में वाहवाही लूटने और चार बार कृषि कर्मण जैसा अवार्ड पाने वाले इस प्रदेश में एक जनवरी 2016 से जून 2016 तक 152 दिनों में डायरिया, निमोनिया और कुपोषण से 9167 बच्चों की मौत हुई। यानी रोज 60 बच्चे मरे। और यह आंकड़ा किसी निजी संस्था, किसी एनजीओ या किसी मीडिया का नहीं बल्कि खुद सरकार का है, जो उसने राज्य विधानसभा में प्रस्तुत किया है।
मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में पिछले दिनों कुपोषण से बच्चों के मरने का मानो सिलसिला सा चला। जिले के विधायक रामनिवास रावत के मुताबिक श्योपुर में दो माह की अवधि में 70 से अधिक बच्चों की कुपोषण से मौत हुई। वहां आज भी हजारों बच्चे कुपोषण से पीडि़त हैं। यह भी आदिवासी इलाका ही है। सरकार ने गत जुलाई माह में खुद विधानसभा में मंजूर किया था कि प्रदेश में जिन 87 लाख 62 हजार 638 बच्चों का सर्वे किया गया उनमें से 13 लाख 31 हजार 88 बच्चे कुपोषित पाए गए। श्योपुर जिले में 80 हजार 918 में से 19 हजार 724 बच्चे कुपोषित मिले। बहुत शोर मचा तो सरकार ने इस मामले पर श्वेतपत्र लाने की घोषणा करके मामले को ठंडा कर दिया।
विडंबना देखिए कि एक तरफ ये आंकड़े आपके अपने घर की भयावह स्थिति को उजागर कर रहे हैं और दूसरी तरफ मध्यप्रदेश सरकार के मंत्रियों से लेकर सत्तारूढ़ दल भाजपा के तमाम आला नेतागण पाकिस्तान के खिलाफ बयानबाजी में उलझे हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि देश पर आने वाले किसी भी संकट में पूरा देश एकजुट रहे और यह एकजुटता दिखाई भी दे। लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता कि आप सीमा की तो चिंता करें और घर को भूल जाएं।
राज्य के नेता उड़ी की घटना के बाद भारतीय सेना द्वारा पाक अधिकृत कश्मीर में की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को लेकर चल रहे राजनीतिक विवाद में विरोधी पार्टियों के नेताओं को ‘जयचंद’ और ‘पापी’ कहते घूम रहे हैं। लेकिन प्रदेश में हो रही घटनाओं और कुपोषण से होने वाली बच्चों की मौतों पर ध्यान देने की उन्हें फुर्सत नहीं है। इन मौतों के लिए जिम्मेदार ‘जयचंदों’ और‘पापियों’ पर उनकी निगाह ही नहीं पड़ती।
मुद्दा यह है कि सीमा पर मुकाबला बयानों से नहीं गोलियों से होगा। वह काम सेना करेगी। भारतीय सेना हमारी सीमाओं की रक्षा करने में सक्षम है और हर बार उसने यह साबित करके भी दिखाया है। पर नागरिक नेतृत्व का दायित्व क्या है? क्या उसका दायित्व अपने नागरिकों को जीने लायक माहौल देना नहीं है? जान चाहे सीमा पर जाए या फिर देश के किसी गांव में…, मरने वाला कोई सैनिक हो या कोई बच्चा, वह जान इस देश के नागरिक की है। सुप्रीम कोर्ट का सरकारों से किया गया यह सवाल बिलकुल जायज है कि- ‘’क्या आप यह मानते हैं कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में कुछ बच्चों के मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता?’’
कोर्ट के इस सवाल पर महाराष्ट्र सरकार के प्रतिनिधि ने क्या जवाब दिया यह तो पता नहीं है, लेकिन इस मामले में कोर्ट की ही एक तल्ख टिप्पणी को, सरकारों की तरफ से इस सवाल का जवाब माना जा सकता है कि- ‘’यहां तो सब मजे लेने के लिए ही बैठे हैं…’’