जिसने मंजिल को तलाशा उसे बाजार मिले

राकेश अचल

कुर्सी के लिए घुड़दौड़ से खरीद-फरोख्त का कारोबार बहुत बदनाम हो गया है। लेकिन इसमें न बाजार का दोष है और न बिकने वाले घोड़ों का। दरअसल जब सियासत ही कारोबार हो गयी हो तो खरीद-फरोख्त को कोई दोष दे भी तो कैसे? कारोबार की पहली शर्त ही खरीद-फरोख्त है।

हमारे राम अवतार त्यागी अपनी जिंदगी से हमेशा पूछते रहे कि- तेरा इरादा क्या है? उनकी हसरत ‘आँचल का प्यार’ थी लेकिन जब भी उन्होंने इसे तलाशा उन्हें बाजार मिले। त्यागी जी की ही तरह अब हर विधायक को बाजार मिल रहा है। जो जिस दाम पर बिकना चाहे, बिक सकता है। खरीदार हाजिर हैं। देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जहां विधायक न बिकते हों! कहीं कम में बिकते हैं तो कहीं ज्यादा में। कहीं दस करोड़   मिलते हैं तो कहीं पैंतीस करोड़। बाजार ठंडा हो तो पच्चीस करोड़ में भी विधायक बिक जाते हैं। विधायकों की कीमत मांग और आपूर्ति पर निर्भर करती है।

एक गांधीवादी विधायक हमारे भी मित्र हैं। आजकल बड़े परेशान हैं इस खरीद-फरोख्त की वजह से। कहते हैं कि हमारी हालत तो मकानों, जैसी हो गयी है। हमारी और जो निगाह उठती है किसी खरीदार की तरह ही उठती है। अब उन्हें कौन समझाये कि इसमें उनका कोई दोष नहीं है। सारा दोष तो विधायकी का है जो अब एक जिंस में तब्दील हो गयी है। विधायक क्या हमारे यहां तो सांसद तक खरीदे जाते हैं, कोई बिकने को तैयार तो हो?

सियासत के बाजार में आजकल न माल की कमी है और न आपूर्ति की। सियासत के बाजार तीन तरह के हैं। एक साधारण बाजार, दूसरा काला बाजार, तीसरा चोर बाजार। खरीदार जो चीज जहाँ से मिलती है खरीद लेता है। अब इसे आप चाहे हार्स ट्रेडिंग कहिये या कोई और नाम दे दीजिये। अब लोग खामखां भाजपा को इस कारोबार के लिए बदनाम करते हैं। भाजपा है ही बनियों-व्यापारियों की पार्टी। व्यापार जिसके खून में हो वो खरीद-फरोख्त नहीं करेगा तो क्या जामुन तोड़ेगा? जरूरत पड़ने पर हर सियासी दल खरीद-फरोख्त करता है। कोई न दूध का धुला है और न टिनोपाल का। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

बिकने के मामले में हमारा अपना सूबा भी कम नहीं है।  हमारे यहां गधे-घोड़े ही नहीं, हाथी तक बिक जाते हैं। आजकल यहां सामंत खूब बिक रहे हैं। कुंवर से लेकर राजे-महाराजे तक नहीं बचे बिकने से। जो बिक गए वे मीर हो गए और जो नहीं बिके वे फकीर के फकीर रहे। बाजार में आजकल कीमत नगद के अलावा दूसरे रूप में भी मिलती है। आप की जैसी हैसियत होगी दाम भी वैसे ही मिलेंगे। आप राज्य सभा के सदस्य बन सकते हैं, मंत्री बन सकते हैं, किसी निगम के अध्यक्ष बन सकते हैं। कहीं, कोई रोक-टोक नहीं है। आप होशियार हैं तो बिजनिस डेवलपमेंट मैनेजर भी बन सकते हैं।

खबरें गर्म हैं कि इन दिनों राजस्थान की घोड़ा मंडी में बिकने के लिए बहुत सा माल उपलब्ध है। खरीदार मोल-भाव में लगे हैं। देखना होगा कि कौन सा माल कितने में बिकता है! हमारा अपना अनुभव है कि यदि माल बिकाऊ हो तो दाम हमेशा अच्छे मिलते हैं। खरीदार तो सब कुछ खरीद लेता है। आपने गुलाबो-सिताबो देखी है? उसमें तो मिर्जा चोरी के बल्ब तक बाजार में बेच आता है भाई।

भारत में विधायकों के अलावा मीडिया की बिकवाली भी   खूब हुई। बिकते-बिकते मीडिया इतना बिका कि अब बाजार में उसका कोई खरीददार नहीं बचा। अब तो मीडिया वाले फकीरों की तरह भटक रहे हैं, गरीबों को आत्महत्याएं करना पड़ रही हैं। बाजार में उनका कोई दाम ही नहीं बचा, जो बच गए हैं वे भोंपू बने फिर रहे हैं। बेचारों की विश्वसनीयता का दीवाला पिट चुका है।

हमारी तरह के कुछ लोग हैं जो इस बाजार में उतरने के लिए कभी राजी ही नहीं हुए। हमेशा पीठ पर ‘नॉट फॉर सेल’ की तख्ती लटकाये घूमते रहे, भले घर में चूल्हा बुझा पड़ा रहा हो। वैसे हमारा मानना है कि जो नहीं बिके वे अव्यावहारिक हैं।  सबको बिकना चाहिए। जिसके पास जो है उसे बेच दे तभी कोरोनाकाल में बचा जा सकता है। आपके पास और कुछ नहीं है बेचने के लिए तो अपना जमीर बेच दीजिये! खरीदार हाजिर हैं। आप एक बार हाँ तो कीजिये!

हकीकत तो ये है कि लोकतंत्र में सबसे ज्यादा बिकाऊ तो मतदाता होता है। उस बेचारे को पता ही नहीं चलता और वो बिक जाता है। कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर और आजकल तो देश के नाम पर उसे खरीदा-बेचा जा रहा है। इसे इमोशनल कारोबार कहते हैं। मतदाता अगर बिकना बंद कर दे तो देश की बड़ी-बड़ी मंडियां, बाजार बंद हो जाएँ लेकिन बदनसीबी कि मतदाता जाने-अनजाने बिकता ही है और बेचारे को मुफ्त के राशन के अलावा कुछ मिलता भी नहीं है। मौक़ा है आप भी देखिये कि आपके पास बेचने या खरीदने के लिए क्या है? हाथ आजमा लीजिये शायद थोड़ा-बहुत मुनाफ़ा हो जाये!

अपने देश की सरकार ने तो जो हाथ लगा सो आनन-फानन में बेच दिया। न कोई शर्म की और न लिहाज। बड़े-बूढ़े कहते हैं कि बाजार शर्म और लिहाज से नहीं चलता। बाजार की पहली शर्त है कीमत। सरकार ने इस बात को समझा और जो हाथ लगा उसे चुपचाप बेच दिया। फिर चाहे वो नवरत्न रहे हों या एयर इंडिया। सरकार तो रेलें तक बेचने पर आमादा है, कुछ तो बेच भी दी हैं, बाक़ी भी एक न एक दिन बिक ही जाएँगी। मैं सरकार की इस सूझबूझ का कायल हूँ।

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