आज मैं अपनी बात पाठकों से माफी मांगने के साथ शुरू करूंगा। माफी इसलिए कि साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा के अपने पत्रकारीय जीवन में मैं पहली बार ‘उस दृष्टिकोण’ से भी कोई बात कहने जा रहा हूं जो मैंने कहना तो दूर कभी सोचा तक नहीं…
मेरा मानना रहा है कि पत्रकार संपूर्ण समाज के लिए होता है, वह न तो किसी जाति या संप्रदाय विशेष का होता है, न किसी राजनीतिक दल का और न ही किसी एक विचारधारा का। उसका काम है समाज में होने वाली गतिविधियों और घटनाओं को लोगों के सामने लाना।
लेकिन आज यह कॉलम पढ़कर कई लोग मुझ पर आरोप लगाने का बिरला अवसर पा सकते हैं। आरोप की यह गुंजाइश उस बात से जुड़ी है जो मैं अब कहने जा रहा हूं। हालांकि मैं सिर्फ अपने पत्रकार होने के दायित्व का निर्वाह कर रहा हूं, आप इसका क्या अर्थ या आशय निकालते हैं, यह मैं आप पर ही छोड़ता हूं।
यह मामला जबलपुर के सेठ गोविंददास जिला अस्पताल का है। यह सरकारी अस्पताल है और यहां मेडिकल ऑफिसर के रूप में डॉ. रचना शुक्ला काम करती हैं। उन्होंने गत 7 मई को फेसबुक पर जैसे ही एक पोस्ट डाली, तो हंगामा हो गया। इस पोस्ट के जरिए डॉ. शुक्ला ने अपना इस्तीफा देते हुए लोकस्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के संचालक से उसे मंजूर करने का अनुरोध किया था।
डॉ. शुक्ला का कहना था कि अस्पताल में ड्यूटी के दौरान उन्हें कुछ लोग लगातार परेशान कर रहे हैं। यह डॉक्टर प्रोटेक्शन एक्ट का खुला उल्लंघन है और वे तीन महीने से आरोपियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश कर रही हैं लेकिन वहां भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही।
यहां तक आपको कहानी सामान्य लग सकती है। आप सोच सकते हैं कि ऐसा तो आमतौर पर होता ही रहता है। लेकिन यदि आप इस मामले को यहीं तक सीमित समझ रहे हैं तो जरा रुकिये। पहले यह जान लीजिए कि डॉ. शुक्ला कौन हैं और उनके साथ बदतमीजी करने वाले लोग कौन हैं?
डॉ. शुक्ला मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिवंगत दिग्गज नेता श्यामाचारण शुक्ल की बहू लगती हैं। वे जिस परिवार से आती हैं उसके कई सदस्य डॉक्टर, वकील और पुलिस अधिकारी हैं। दूसरी तरफ जिन लोगों पर यह घिनौनी हरकत करने का आरोप है उनकी पहचान डॉ. शुक्ला ने अपनी फेसबुक पोस्ट में ’स्थानीय भाजपा नेता और कार्यकर्ताओं’ के रूप में की है।
यानी मध्यप्रदेश में, उस जबलपुर शहर में, जहां मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की मुख्य बेंच है, वहां एक पूर्व मुख्यमंत्री की सरकारी डॉक्टर बहू को कुछ गुंडे अस्पताल में आकर धमका रहे हैं और पुलिस में शिकायत करने की तमाम कोशिशों में नाकाम रहने पर वह लाचार होकर फेसबुक पर घटना का ब्योरा देते हुए अपना इस्तीफा दे रही है।
और आगे सुनिए… खुद डॉ. शुक्ला के अनुसार इन गुंडों ने उनसे आखिर कहा क्या? इसका ब्योरा सोशल मीडिया पर चल रही डॉ. शुक्ला की उस हस्तलिखित चिट्ठी में है जो उन्होंने अपने विभागाध्यक्ष को लिखी है। जो बातें उन्होंने लिखी हैं वैसी बात शायद कोई महिला सपने में भी लिखने की न सोचेगी।
गुंडों ने जिस भाषा में डॉ. शुक्ला को धमकाया वह शब्दश: उन्होंने लिखा है और वह इतना रोंगटे खड़े कर देने वाला है कि उसका जिक्र तक यहां नहीं किया जा सकता। एक महिला के साथ कोई गुंडा या गुंडे क्या कर सकते हैं, वह धमकी उसमें पूरी लिखी गई है। गुंडों ने एक बार नहीं दूसरी बार आकर भी उनसे उसी भाषा में बात की और धमकी दी कि दस (लोग) आकर तुम्हारी इज्जत उतार देंगे।
मामला मीडिया में आने के बाद इसकी चर्चा हुई। मध्यप्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष कमलनाथ, पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, म.प्र. विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता अजयसिंह आदि ने इसे प्रदेश में महिलाओं की हालत की असलियत करार दिया। उन्होंने दोषियों पर तुरंत कार्रवाई की मांग की।
लेकिन अफसोस कि इस मामले में सरकार या संगठन की ओर से ऐसी कोई सक्रियता नहीं दिखी जिससे यह साबित होता कि सरकारी एजेंसियों ने घटना को गंभीरता से लिया है। ऐसे मामलों को देखने के लिए जिम्मेदार महिला आयोग भी नजर नहीं आया।
क्या यह रवैया इस बात का संकेत नहीं कि डॉ. रचना शुक्ला के मामले को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। ऐसा क्यों न माना जाए कि मामले में इतनी ढिलाई इसलिए बरती जा रही है क्योंकि रचना शुक्ला एक कांग्रेसी परिवार से हैं और आरोपी सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़े दलित नेता अथवा कार्यकर्ता बताए जा रहे हैं।
और अब वो बात जिसके लिए मैंने शुरुआत में ही माफी मांगी थी। मैं यह सवाल भी यहां उठाना चाहता हूं कि क्या ऐसे मामलों में भी सरकारों या दलों की संवेदनाएं तभी जागेंगी जब उन्हें कोई राजनीतिक फायदा हो? यदि आज इस प्रसंग में पीडि़त महिला ब्राह्मण या उच्च वर्ग की न होकर दलित होती और उसका मामला मीडिया में उछलता तो भी क्या ऐसी ही ठंडी प्रतिक्रिया होती?
तय मानिए ऐसा कतई नहीं होता, बल्कि उस महिला के घर नेताओं की कतार लग जाती। भोपाल से लेकर दिल्ली तक के नेता बयान दे देकर जमीन आसमान एक कर देते। वोट बैंक के राजनीतिक हवनकुंड में आहुतियां डाली जाने लगतीं।
तो क्या हम उस समाज में खड़े हैं जहां अब महिलाओं की अस्मत का मुद्दा भी उनकी जाति, वर्ण या राजनीतिक कनेक्शन से तय होगा। महिला अगर शुक्ला है तो अपनी लड़ाई खुद लड़े और यदि निम्न वर्ण की है तो उसकी लड़ाई राजनीतिक रणबांकुरे लड़ेंगे।
कुछ तो शर्म करो यार, महिलाओं की इज्जत को तो ऐसे खांचों में मत बांटो। दिन रात महिला सम्मान की रक्षा के भाषण झाड़ते झाड़ते तुम्हारे मुंह से झाग निकलने लगते हैं। अपनी धमनियों में बहने वाले खून की नहीं तो कम से कम मुंह से निकलने वाले उस थूक ही लाज रख लो…
पुनश्च– यदि डॉ. रचना शुक्ला की कहानी का कोई दूसरा चेहरा भी है तो सरकार बेशक उसे भी सामने लाए पर यूं शुतुरमुर्गी मुद्रा तो अख्तियार न करे…