क्या यह ‘विचार शून्य’ समाज की ओर बढ़ने का संकेत है?

अजय बोकिल

देश में एक टेबलॉयड अखबार के बंद होने की खबर ने इस बार देश के मीडिया जगत और खासकर पत्रकारों को जिस ढंग से भीतर तक हिला दिया, वैसा पहले शायद ही हुआ हो। क्योंकि अखबारों का निकलना, चैनलों का शुरू होना और बंद होना, अमूमन उनकी आर्थिक सेहत और व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर निर्भर होता है। लेकिन इस कोरोना काल में एक प्रमुख मीडिया हाउस के अखबार के बंद होने की बाकायदा घोषणा से समूचे मीडिया जगत के भविष्य, इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों तथा उन युवाओं की आंकाक्षाओं पर भी प्रश्नचिन्ह लगना शुरू हो गया है, जो बीते 3 दशकों से इसे प्रोफेशनल और इंटेलेक्चुअल लाइन समझ कर आ रहे थे या फिर आने की तैयारी में हैं। एक बौद्धिक धंधे के साथ-साथ किसी अखबार का असमय मर जाना एक धड़कते विचार बैंक का डूब जाना भी है। इससे एक डरावना सवाल भी जन्म ले रहा है कि क्या अब हम एक ‘विचार शून्य’ समाज की ओर बढ़ रहे हैं?

अखबारों के 240 सालों के स्वर्णिम इतिहास वाले इस देश में समाचार पत्र उद्योग आर्थिक दिक्कतों और सूचनाओं के वर्च्युअल साधनों के बढ़ते चलन के कारण पहले ही संकटों से जूझ रहा था, कोरोना ने मानो उसमें आखिरी कील ठोक दी है। इस दौर में अखबारों का प्रसार और विज्ञापन राजस्व दोनों रसातल को जाने लगे। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि अखबारों पर यह तालाबंदी असल में मीडिया संस्थानों की नफाखोरी कम होने की वजह से है। संभव है कि ऐसा हो, लेकिन जो घट रहा है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि  विचार तो छोडि़ए, एक व्यवसाय के रूप में भी प्रिंट मीडिया का भविष्य अब चंद दिनो का है।

यहां तर्क दे सकते हैं कि कम से कम अखबारों को मुनाफे के इतर धंधों की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए। अर्थात जिस भी तरह से इसे चलाया जा सके, चलाया जाना चाहिए, क्योंकि यह जनशिक्षण का सबसे प्रभावी और अपेक्षाकृत ज्यादा विश्वसनीय माध्यम है। यह बात आजमाई हुई भी है। लेकिन ऐसा करने की भी एक सीमा है और जब पूरा समाज ही पैसे के पीछे दौड़ रहा हो, तब अखबार उद्दयोग से ‘भूखे भजन’ की अपेक्षा कुछ ज्यादती ही है।

इस संदर्भ में ‘इंडिया टुडे’ ग्रुप के प्रधान संपादक अरुण पुरी का वह मेल महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘‘हमने इस अखबार (मेल टुडे) को काफी बेहतर निकाला। हमारी कई स्टोरीज को तमाम अखबारों ने फॉलो किया। हमारी स्टोरीज के आधार पर कई मामलों की जांच के लिए सबूत के तौर पर इस अखबार की कॉपियों को पार्लियामेंट में लहराया गया और टीवी न्यूज पर भी अक्सर इसका जिक्र किया गया। इतने वर्षों में हमने आर्थिक मंदी और नोटबंदी भी देखी। दुर्भाग्य से कोविड-19 महामारी ने पाठकों की प्राथमिकताओं को बदल दिया है। लॉकडाउन के दौरान डिजिटल रूप में न्यूज का उपभोग बढ़ने से यह स्पष्ट है कि अखबारों का प्रिंट मीडियम पुनर्जीवित नहीं होगा।‘‘

यानी जो आशंका जताई जा रही थी, वह इस मेल में हकीकत के रूप में देखी जा सकती है। एक टेबलॉयड बंद होने पर सोशल मीडिया में कई मीडियाकर्मियों ने अखबारों के अंधेरे भविष्य पर अपनी पोस्ट डाली हैं। कुछ लोग इसे सरकार की सोची-समझी साजिश का हिस्सा मान रहे हैं। इसके पीछे यह मान्यता यह है कि खुद सरकार ही नहीं चाहती कि अखबार चलें। क्योंकि टीवी चैनलों के मुजरा माहौल में अखबार फिर भी कभी-कभी सरकार और व्यवस्था की दुखती रग दबा देते हैं। सरकार के स्तर पर विज्ञापन घटाते जाना, अखबारी कागज पर जीएसटी बढ़ा देना, अखबारों के मुकाबले टीवी चैनलों पर इनायत फरमाना आदि ऐसे कदम रहे हैं, जो इस बात की तसदीक करते हैं कि अखबार जितनी जल्द हो, इतिहास का हिस्सा बन जाएं।

वैसे अखबारों के बंद होने का यह दुखद सिलसिला भारत में ही नहीं, उस अमेरिका में भी है, जिसके अखबारों की दमदारी की मिसालें अक्सर दी जाती हैं। सिर्फ कोरोना काल में ही वहां 50 समाचार पत्र बंद हो चुके हैं। इनमें सबसे पुराना अखबार ‘द जर्नल एक्सप्रेस’ है, जो 1855 से निकलता आ रहा था। यह अखबार इसी साल मई में बंद हुआ। तीन और अखबार जुलाई में बंद हुए, जो बीते डेढ़ सौ सालों से छपते आ रहे थे।

भारत जैसे देश में तो मीडिया और खासकर अखबार दोहरी मार से गुजर रहे हैं। एक तरफ अखबारों और छोटे न्यूज चैनलों के बंद होने से मीडिया कर्मियों और पत्रकारों के सामने बेरोजगारी मुंह पसार रही है, वहीं अपना कर्तव्य निभा रहे पत्रकारों को सरकारों की प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है। अकेले महाराष्ट्र में ही राज्य सरकार ने कोरोना काल में 15 अलग-अलग मामलों में आपराधिक केस दर्ज किए हैं। ये पत्रकार कहीं राज्य सरकार तो कहीं केन्द्र सरकार की नाराजी का शिकार हो रहे हैं। क्योंकि सच सभी को कड़वा लगता है और सरकारें आलोचना सह नहीं सकती।

हालांकि कुछ मामलों में मीडिया का रवैया भी अतिरेकी रहा है। पर कुल मिलाकर स्थि‍ति उन अखबारों के लिए, उन पत्रकारों के लिए और उन पाठकों के लिए भी क्रिटिकलहै, जो समाचारपत्रों को विचारों के ब्रेकफास्ट के रूप में लेते रहे हैं। यह बात भी अहम है कि सरकारों ने मीडिया से जो चाहा, जिस मुद्रा की अपेक्षा की, उससे पहले ही ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने अखबारों से विचार और सवालों को यह कहकर हाशिए पर खिसकाना शुरू कर दिया था कि अब इसकी पठनीयता नहीं रही। क्योंकि समाज की सोच, अपे‍क्षाएं और प्राथमिकता बदल रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो समाज एक बाजार में तब्दील हो रहा है या उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, इसलिए समाज को मीडिया से भी उसी तरह की ‘ट्रीट’ चाहिए।

यह बात पूरी तरह गलत भी नहीं है। हमने देखा कि कोरोना लॉकडाउन में वो पाठक खासकर युवा, अखबार से जो डिसकनेक्ट हुए, उनमें से उंगली पर ‍गिनने लायक ही इस प्लेटफार्म पर वापस लौटे। इसके पीछे कारण हम खुद अखबारों का विचार शून्य होना मानें या फिर डिजिटल सूचनाओं का वो मायाजाल मानें, जिसके आनंद ने युवाओं को अपने आगोश में ले लिया है।

कह सकते हैं कि अखबार भी अंतत: एक धंधा है और धंधा पैसे से चलता है। केवल विचार की पूंजी से कोई व्यवसाय नहीं चल सकता। समाज के वैचारिक अखाड़े से अखबारों का धीरे-धीरे हटते जाना 21 वीं सदी के सामाजिक सोच और मानसिक बदलाव का परिचायक हो सकता है। यह इस बात का भी द्योतक है कि लोग अब विचार से ज्यादा अगंभीर मनोरंजन और निरर्थक बातों में ही जीवन का रस खोजने लगे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन इतना तय है कि समाचारपत्र के रूप में विचार संचय, बौद्धिक विमर्श और प्रश्नाकुलता अब उस रूप में नहीं रही है, जो हम सदियों से देखते-समझते आ रहे थे।

अखबारों के बंद होते जाने से उन संस्थानों में काम कर रहे हजारों पत्रकारों, कर्मचारियों का भविष्य तो अनिश्चित है ही, उससे ज्यादा देश के उन 972 पत्रकारिता संस्थानों से हर साल निकलने वाले 20 हजार से ‍‍अधिक पत्रकारिता स्नातकों के भवितव्य पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है। दूसरी तरफ वेब और टीवी जर्नलिज्म में भी संभावनाएं कम होती जा रही हैं। अगर इस क्षेत्र में युवाओं की रुचि घटी तो इन संस्थानों पर भी ताले डलने की नौबत आ सकती है या फिर वो लोग मीडिया को चलाएंगे, जो मशीनी पत्रकारिता के मैकेनिक होंगे।

कहा जा सकता है कि देश को जगाने, संसूचित करने या विचार देने का ठेका अकेले अखबारों ने थोड़े ही ले रखा है। मनुष्य है तो विचार तो रहेगा, केवल उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम बदल जाएंगे। नहीं होगा तो विचार की गंभीरता और प्रामाणिकता का वो आवरण, जो अखबार अथवा प्रिंट मीडिया में साफ-साफ प्रतीत होता था। बहुत से विचारकों का मानना है कि अखबारों का बंद होना लोकतंत्र के मैदान से उन तोपों का हटना है, जो बोफोर्स की तरह करगिल की चोटियों पर बैठी निरंकुश सत्ताओं को निशाना बना सकती हैं।

अखबारों का हस्तक्षेप खत्म होने का साफ मतलब चैनलों के वृंदगान को चौथे खम्भे की ध्वजा सौंपना है। लोगों को वही दिखाया, समझाया और सुचवाया जाएगा, जो सरकारें चाहती हैं। सत्ताएं, जो ज्यादा से ज्यादा निरंकुश होना चाहती हैं। मशहूर अमेरिकी पत्रकार रिचर्ड क्लूगर ने कहा था- ‘’जब भी कोई अखबार मरता है, चाहे वह बुरा अखबार ही क्यों न हो, पूरा देश निरंकुशता के और नजदीक पहुंच जाता है।‘’ क्या हम इसी दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए हैं?

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