मामला चूंकि ज्यादा पुराना नहीं है इसलिए मैं मानकर चलता हूं कि आपको उसके बारे में थोड़ा बहुत तो पता होगा ही। यदि आप थोड़े भी संवेदनशील हैं या फिर स्कूल जाने वाले बच्चों के मां बाप हैं तो उस मामले से जुड़ी यादें आज भी आपके भीतर सिहरन पैदा करके जाती होंगी। और यदि आपके किसी परिजन का उस घटना से कोई सीधा संबंध रहा होगा तब तो आपके घाव अभी सूखे नहीं होंगे…
मैं बात कर रहा हूं 5 जनवरी को इंदौर में हुए दिल्ली पब्लिक स्कूल यानी डीपीएस बस हादसे की। उस हादसे में स्कूल की अनियंत्रित बस दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से चार बच्चे और बस का ड्रायवर मारे गए थे। उस भयानक घटना ने न सिर्फ सारे स्कूली बच्चों के मां बाप को हिला दिया था बल्कि स्कूलों की परिवहन व्यवस्था पर भी कई सवाल खड़े किए थे।
उस घटना को चालीस दिन बीत जाने के बाद भी दोषियों को सजा मिल सकने जैसी स्थितियां बनती दिखाई नहीं दे रही हैं। घटना के तत्काल बाद से लेकर एकाध सप्ताह तक, जब तक हादसे के घाव हरे थे, तब तक, चौतरफा गुस्से के माहौल में तरह तरह की बातें हो रही थीं। राजनेता आवाजाही कर रहे थे और सरकार हमेशा की तरह जांच बिठाने के साथ साथ दोषियों पर सख्त कार्रवाई करने संबंधी बयान जारी कर रही थी।
लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, सारा उबाल ठंडा पड़ता जा रहा है। स्कूल बसों का ढर्रा सुधारने के लिए कुछ प्रयास हुए भी तो उनमें भी बस ऑपरेटर्स के संगठनों ने अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हुए पलीता लगा दिया। उन्होंने सारा ठीकरा सरकार और प्रशासन के माथे पर फोड़ते हुए धमकी दे डाली कि यदि ज्यादा सख्ती की गई तो वे बसें बंद कर देंगे।
इधर मामले में मीडिया के सुर भी बदलने लगे। शुरुआती दौर में जो मीडिया बसों की लचर हालत और उससे जुड़े बाकी मसलों पर लगातार लिख रहा था, उसका रवैया भी धीरे धीरे बदलने लगा और कंडम बसों व लापरवाह स्कूल बस संचालकों पर ‘सख्त कार्रवाई की मांग’ वाले शीर्षक, ‘प्रशासन की सख्ती से बस संचालक परेशान’ जैसे शीर्षकों में बदलने लगे।
चूंकि घटना इंदौर में हुई थी इसलिए वहां समाज का एक वर्ग दोषियों को सजा दिलाने के लिए लगातार दबाव डाल रहा है। सात दिन पहले डीपीएस में पढ़ने वाले बच्चों के पालक कलेक्टर की जनसुनवाई में पहुंचे और उन्होंने पूछा कि जब पूरा शहर जानता है कि स्कूल प्रबंधन और प्राचार्य दोषी हैं, तो फिर प्रशासन ने अब तक इनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज क्यों नहीं की।
जनता के भारी दबाव का नतीजा 12 फरवरी को सामने आया जब पुलिस ने इंदौर डीपीएस के प्रिंसिपल सुदर्शन सोनार को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस के मुताबिक सोनार को परिवहन संबंधी कायदे कानूनों के उल्लंघन और स्कूल बसों का समुचित रखरखाव न कर पाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। बाद में अदालत ने प्रिंसिपल की जमानत की अर्जी खारिज करते हुए उन्हें 22 फरवरी तक जेल भेजने के आदेश दिए।
प्रिंसिपल को जेल भेजे जाने के बाद से ही इस मामले में नया मोड़ आ गया है। पुलिस और प्रशासन की कार्रवाई के खिलाफ देश भर से पब्लिक स्कूल के प्राचार्य इंदौर में इकट्ठा हुए और उन्होंने साथी प्राचार्य की गिरफ्तारी की निंदा करते हुए आरोप लगाया कि सोनार को धोखे से पकड़ा गया है। यह इंदौर के लिए काला दिवस है।
इस पूरे घटनाक्रम में मंगलवार को एक नाटकीय लेकिन गंभीर मोड़ आया। इंदौर में जुटे पब्लिक स्कूल और गैर अनुदान प्राप्त स्कूलों के प्रिंसिपल्स और अन्य प्रतिनिधियों ने कहा कि वे 50 हजार वोटों की ताकत रखते हैं लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा कि सरकार पर अपनी मांग मनवाने के लिए किस तरह दबाव डाला जाए।
मैंने स्कूल प्राचार्यों का यह कथन भोपाल के एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित खबर से लिया है। खबर में इस कथन को कोट करते हुए इस तरह छापा गया है- ‘’We have a vote bank of 50,000 but we don’t know how to press the government to agree with our demands.’’
इसके आगे प्राचार्यों ने कहा- ‘’यदि हम अपनी बसों को एक दिन के लिए भी बंद रहने को कह दें तो बच्चों के माता पिता परेशान हो जाएंगे।‘’ उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि जिला प्रशासन सारे निर्देश भोपाल से ले रहा है। और यदि ऐसा ही है तो अब हम भोपाल जाकर ही अपनी आवाज उठाएंगे और सरकार पर दबाव डालेंगे कि वह इस तरह की कार्रवाई को रोके।
प्राचार्यों का कलेक्टर से यह भी कहना था कि किसी भी मामले में ‘नैतिक जिम्मेदारी’ और ‘आपराधिक जिम्मेदारी’ को अलग करके देखा जाना चाहिए। एक हादसे में किसी व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी होना अलग बात है, लेकिन उस पर आपराधिक धाराएं लगाकर उसे गिरफ्तार कर लेना उचित नहीं है। इसके साथ ही यह सवाल भी उठाया गया कि बस हादसे को लेकर आरटीओ और नैशनल हाइवे अथॉरिटी के अफसरों पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई।
मुझे लगता है कि बच्चों को शिक्षित और दीक्षित करने के लिए जिम्मेदार संस्थाओं के मुखियाओं ने ये जो दो तर्क दिए हैं उन पर पूरे समाज को गंभीरता से सोचना चाहिए। उनका यह कहना गंभीर सवाल खड़े करता है कि हमारे पास 50 हजार वोटों की ताकत है फिर भी हम सरकार को झुका नहीं पा रहे हैं। तो क्या इसका मतलब यह समझा जाए कि इन प्राचार्यों ने अपने यहां पढ़ने वाले बच्चों के परिवारों को अपनी जेब में पड़ा वोट बैंक मान लिया है? क्या बच्चों के परिजन उनके बंधक हैं?
प्राचार्यों के मन में यह भाव आना ही बहुत खतरनाक है। यदि समाज में किसी भी संस्था के कर्ताधर्ता खुद से जुड़े लोगों को इस तरह अपनी जागीर समझकर अपने गलत सलत कामों की ढाल बनाने लगेंगे तो सिस्टम को ढहने से कोई नहीं रोक सकेगा। अब तक तो जातीय और सांप्रदायिक तौर पर ही इस तरह के वोट बैंकों की चर्चा होती रही है। लेकिन इंदौर में प्रचार्यों के बयान से नया और खतरनाक ट्रेंड सामने आया है जिस व्यापक बहस होनी चाहिए।
और दूसरा मामला बच्चों में नैतिकता के संस्कार जगाने वालों के इस कथन का है कि ‘नैतिक जिम्मेदारी’ और ‘आपराधिक जिम्मेदारी’ में फर्क होना चाहिए। यदि इस कथन को समाज स्वीकार करता है तो फिर उसे यह भी तय करना होगा कि किसी भी ‘अनैतिक’ कार्य के ‘अपराध’ सिद्ध होने तक क्या वह मुंह पर पट्टी बांधे रखने को तैयार है?