‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ में हाथ ‘तंग’ है क्या भारतीयों का?

रमेश रंजन त्रिपाठी

‘सेंस ऑफ ह्यूमर कहां और कैसे प्राप्त किया जा सकता है?’ सुमेर के सवाल पर मैं उसका मुंह ताकने लगा। फिर मैंने पूछा- ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ की तलाश क्यों?’

‘सुना नहीं क्या, आईपीएल में विराट कोहली की बल्लेबाजी के बारे में अनुष्का शर्मा का नाम लेकर टिप्पणी कर सुनील गावस्कर ट्रोल होने लगे थे।’ सुमेर विस्तार से बताने लगा- ‘तब गावस्कर के बचाव में उतरे हमारे पुराने विकेट कीपर फारुख इंजीनियर ने कहा था कि हम भारतीयों में सेंस ऑफ ह्यूमर की कमी है। मुझे बात चुभ गई। मैंने तय कर लिया है कि सेंस ऑफ ह्यूमर की अपनी कमी को दूर करके रहूंगा।’

‘लेकिन तुम्हारे भीतर तो हंसी का माद्दा कूट-कूटकर भरा हुआ है।’ मैंने उसे आश्वस्त किया।

‘तो तुम्हारी बात सुनकर मुझे हंसी क्यों नहीं आ रही?’ सुमेर बोला- ‘बहलाओ मत। या तो अपनी बात साबित करो या मुझे ह्यूमर के डीलर का पता बताओ।’

‘अच्छा! तुम्हें नेताओं की बात पर हंसी आती है या नहीं?’ मैंने कुछ सोचते हुए पूछा।

‘आती है, खासकर विपक्षी दल के नेता की बात सुनकर जरूर हंसी आती है।’ सुमेर ने सिर खुजाया- ‘ट्विटर के भरोसे सियासत करने वालों पर हंसी आती है। दलबदल के कारण गिरती हुई सरकार के नेताओं द्वारा ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ को लेकर किए जानेवाले प्रलाप को सुनकर हंसी आती है। नेताओं के चुनाव जीतने, सरकार बनाने के पहले और बाद के बयानों पर हंसी आती है।’

‘ठहरो!’ मैंने उसे टोका- ‘इन बातों में हंसी क्यों आती है?’

‘नेताओं की इन बातों को सुनता कौन है?’ सुमेर हंसा- ‘इसलिए विरोधियों को अरण्य रोदन करते देख हंसी आ जाती है।’

‘हंसी और कब-कब आती है?’ मुझे भी मजा आने लगा था।

‘चुनावी वादे, भ्रष्टाचार की चर्चा, सरकारी उपलब्धियों का बखान और आम नागरिक के जीवन स्तर को लेकर किए जानेवाले दावों को सुनकर भी हंसी आ जाती है।’ सुमेर बात हंसी की कर रहा था किंतु उसका चेहरा गंभीर था- ‘कोरोना महामारी में अपने देश के उत्कृष्ट प्रदर्शन को देखकर हंसी आती है।’

‘जरूर यह आनंदित होने पर आनेवाली हंसी होगी।’ मैंने चुटकी ली।

‘हां!’ सुमेर फ्लो में बोलता जा रहा था- ‘मैं तो लॉकडाउन में मजदूरों के पलायन पर होनेवाली सियासत को देखकर भी हंसा था। अर्थव्यवस्था के चौबीस फीसदी माइनस में जाने की बात को भी मैंने हंसी में उड़ा दिया है। मैं तो चीन के साथ तनाव को भी हंसी-मजाक से कम करने का पक्षधर हूं। सोशल मीडिया पर मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर देखने लायक होता है। टीवी डिबेट में प्रतिद्वंद्वी की बात का मजाक बनाने में मेरा जवाब नहीं। रेप की खबरों के बीच कन्यापूजन के आयोजनों को देखकर कभी हंसी आती है तो कभी रोना।’

‘अब तो मान लो कि तुम्हारे भीतर ह्यूमर का सेंस कूट-कूटकर भरा हुआ है!’ मैंने सुमेर की बातों से फायदा उठाया।

‘यदि यही सेंस ऑफ ह्यूमर है तो सेलिब्रिटी और किसानों की आत्महत्या पर नेताओं और मीडिया का रवैया क्या है?’ सुमेर अभी अपने मजाकिया मोड से बाहर नहीं आया था- ‘संसद में सदस्यों के व्यवहार को क्या कहेंगे? सड़कों पर धरना-प्रदर्शन करनेवाली जनता के बारे में दी जानेवाली तवज्जो क्या है? किसी को मजलूम के परिवार से न मिलने देने पर केवल प्रशासन को दोषी साबित करना क्या है?’

‘देखो मजाक की बात को मजाक में लो।’ मैंने सुमेर को समझाया- ‘सीरियस होओगे तो तुमहारी हालत उस ट्रेजेडी किंग जैसी हो जाएगी जिसे दुखांत फिल्म करने के बाद कैरेक्टर से बाहर आने के लिए मनोचिकित्सक की सहायता लेनी पड़ती थी।’

‘तुम्हें मैं सीरियस दिखाई देता हूं?’ सुमेर ने पूछा।

‘तुम जैसे आम आदमी की यही समस्या है।’ मैंने सिर खपाया- ‘तुम कब गंभीर होते हो और कब मजाकिया मूड में, पता नहीं चलता। अच्छे-अच्छे धोखा खा जाते हैं। तुम्हारी समझदारी और तुम्हारी नासमझी को समझना अपने वश की बात नहीं।’

‘साफ-साफ बताओ, सेंस ऑफ ह्यूमर को लेकर मुझे चिंता करना चाहिए या नहीं?’ सुमेर अपने मूल प्रश्न पर लौट आया।

अब मैं सिर खुजाने लगा। क्या जवाब दूं? मेरी मदद करें, प्लीज।

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