ई-मेल, एसएसएस और व्हॉट्सएप ने चिठ्ठी-पत्री लिखने का जमाना बिसरा दिया है, लेकिन इन दिनों खुली चिठ्ठियाँ लिखने का चलन जोरों पर है। पत्रकार, नेता, अधिकारियों से लेकर आम आदमी भी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री व अहम् ओहदों पर बैठे लोगों के नाम पर खुला खत लिख रहे हैं। ऐसे में मेरा मन भी चिठ्ठीबाजी के लिये मचल उठा, तो मैंने भी लिख मारा एक खत फिल्म निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप को..
प्रिय अनुराग कश्यप जी,
मेरी पहचान केवल इतनी है कि मैं आपकी फिल्मों का जबरदस्त प्रशंसक हूँ। इसी नाते मैं ‘उडता पंजाब’ की रिलीज पर आपको बधाई देना चाहता हूँ। फिल्म को न केवल दर्शकों का बेहतर रिस्पॉन्स मिल रहा है, बल्कि समीक्षकों से भी खासी सराहना मिल रही है। जाहिर है कि फिल्म की सफलता से आप भी काफी प्रसन्न होंगे, लेकिन मेरे पत्र लिखने की वजह केवल इतनी नहीं है। दरअसल, ‘उडता पंजाब’ की कामयाबी के बीच मुझे करीब एक हफ्ते पुराना आपका ट्वीट याद आ रहा है। जी हाँ, वही ट्वीट जब आपका गुस्सा चरम पर रहा होगा और शायद इसीलिये आपने देश की तुलना उत्तर कोरिया से कर दी। अनुराग जी आपने ट्वीट कर लिखा था कि- ‘मुझे हमेशा आश्चर्य होता था कि उत्तर कोरिया में रहने पर कैसा महसूस होगा, अब तो प्लेन पकड़ने की भी जरूरत नहीं है।’ आपके ट्वीट का मैं अपनी सामान्य समझ से इतना अर्थ निकाल पाता हूँ कि आप भारत में भी अभिव्यक्ति की आजादी (उडता पंजाब के संदर्भ में) को लेकर उत्तर कोरिया जैसे हालात महसूस कर रहे हैं।
उत्तर कोरिया के बारे में मेरी जानकारी बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन मीडिया में बनने वाली सुर्खियों के कारण इतना समझ पाया हूँ कि उत्तर कोरिया की पहचान उसके क्रूर और सनकी कहे जाने वाले तानाशाह को लेकर है। क्या आपको लगता है कि भारत में भी ऐसे किसी सनकी तानाशाह का राज चल रहा है?
क्या आपको लगता है कि उत्तर कोरिया में कोई फिल्मकार अपनी फिल्म को लेकर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है और वहाँ का कोर्ट फिल्मकार की याचिका पर सेंसर बोर्ड को फटकार लगा सकता है?
आपको लगता है कि उत्तर कोरिया में गैरवाजिब ढंग से किसी फिल्म में की गई कांट-छांट के बाद वहाँ की जनता सोशल मीडिया पर फिल्मकार का जबरदस्त समर्थन कर सकती है? (जैसा भारत में किया गया)
क्या उत्तर कोरिया की फिल्म इंडस्ट्री किसी फिल्मकार के समर्थन में भारत की तरह खडी हो सकती है?
मेरी समझ से तो इन सभी सवालों के जवाब ‘ना’ में हैं। मुझे नहीं लगता की उत्तर कोरिया जैसे देश में कोई फिल्म निर्माता या निर्देशक अपनी फिल्म को लेकर इस तरह की कानूनी लडाई के बारे में सोच भी सकता है।
कश्यप जी, इसमें कोई शक नहीं कि लेखक, फिल्मकारों से लेकर आम आदमी तक को अपनी अभिव्यक्ति की पूरी आजादी होनी चाहिए। ‘उडता पंजाब’ को लेकर सेंसर बोर्ड, पहलाज निहलानी और यहाँ तक की सरकार या उसके किसी नुमाइंदे से आपकी नाराजगी को भी समझा जा सकता है। हमारे देश में किसी फिल्म, किताब या तस्वीर को लेकर उठने वाले विवाद नये नहीं है। सरकारें चाहें किसी की भी रहीं हो, अभिव्यक्ति की राह में काटें हमेशा से ही बिछाए जाते रहे हैं। लेकिन इसे भारतीय लोकतंत्र की खूबी ही कहेंगे कि इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चलकर हमारे लेखक, पत्रकार व कलाकार अभिव्यक्ति का हक हासिल करते आये हैं (जैसा आपने भी किया है)। ये भी सच है कि कई बार हमारी व्यवस्था कलात्मकता का गला घोंटने का प्रयास करती है, लेकिन ऐसे हालात में हमला सिस्टम व उसकी कमियों पर होना चाहिए। क्या आपको लगता है कि किसी एक फिल्म पर लगाए गए अंकुश के कारण दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को तानाशाह मुल्कों की जमात में खडा कर देना उचित है?
आप और आपके जैसे ख्यातनाम कलाकारों के न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में हजारों प्रशंसक होते हैं। आपकी कही हर बात से पूरी दुनिया में एक मजबूत संदेश जाता है। यही वजह है कि आप लोगों से अतिरिक्त संवेदनशीलता की उम्मीद की जाती है। रही बात अभिव्यक्ति को कुचलने वाली व्यवस्था से नाराजगी की, तो आप ही की तरह देश के कई खासो-आम इस सिस्टम से परेशान है। ऐसे में मुल्क छोडने या उसकी तुलना अलोकतांत्रिक देशों से करने से पहले इस सिस्टम से ही दो-दो हाथ कर लें। फिर आपके साथ तो ये लड़ाई लड़ने के लिए दीवाने प्रशंसकों की एक लंबी फौज खडी है। अपेक्षा केवल इतनी है कि कोई ट्वीट ऐसा भी हो- ‘उडता पंजाब को मिला इंसाफ और उत्तर कोरिया में ये मुमकिन नहीं होता….’
आपका प्रशंसक
बकलम आशुतोष नाडकर
(आशुतोष नाडकर पिछले डेढ दशक से टेलीविजन पत्रकारिता में सक्रिय हैं। सहारा समय, ईटीवी जैसे चैनलों के अलावा वे बेवदुनिया व नवभारत जैसे संस्थानों में रहे हैं। वर्तमान में साधना न्यूज, म.प्र-छ.ग. में स्टेट ब्यूरो प्रमुख के रुप में कार्यरत हैं।)