अजय बोकिल
यह किसी हिंदी के पेपर में पूछा गया निबंध नहीं है, बल्कि यथार्थ की सहज बयानी है। जाने माने अभिनेता अनुपम खेर से एक इंटरव्यू में पूछे गए सवाल का जवाब उन्होंने बेहद संजीदगी से दिया। उनसे पूछा गया था कि ‘आप पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समर्थक होने का आरोप लगता है, इसके जवाब में खेर ने कहा कि किसी की बाल्टी होने से अच्छा है कि मोदी का चमचा हुआ जाए।‘
अनुपम खेर आजकल पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट के चेयरमैन भी हैं। यह पद उन्हें अपनी प्रतिभा के अलावा केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उनकी अपनी पत्नी किरन खेर के चंडीगढ़ से भाजपा सांसद होने के कारण भी मिला है। ऐसे में यह सवाल ही बेतुका था कि ‘आपके विरोधी कहते हैं कि आप मोदी सरकार का गुणगान करना चाहते हैं।‘ इसके जवाब में अनुपम ने ठंडे दिमाग से जवाब दिया कि ‘वो‘ सही कहते हैं, कहने दीजिए। किसी की बाल्टी होने से अच्छा है मोदी का चमचा होना!’ इस ‘सत्य वचन’ के बाद खेर की सियासी और नैतिक प्रतिबद्धताओं के बारे में शंकाएं खत्म हो जानी चाहिए थीं। लेकिन उनके इस जवाब में ही कई सवाल वायरस की तरह घुमड़ रहे हैं।
63 वर्षीय अनुपम खेर कश्मीरी मूल के और हिमाचल प्रदेश के रहवासी हैं। वे कश्मीरी पंडितों के बेघर होने का मुददा भी जब- तब उठाते रहते हैं। वे कुशल अभिनेता तो हैं, भाजपा में असहिष्णुता अभियान के खिलाफ बुद्धिजीवियों की एक ब्रिगेड खड़ी करने का श्रेय भी उन्हीं के खाते में जाता है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित अनुपम फिल्मों में सभी तरह के रोल प्रभावी ढंग से करते रहे हैं। लेकिन ताजा इंटरव्यू में उन्होंने फिल्मी डायलॉग से हटकर जो ‘अनुपम’ डायलॉग बोला, वह बारीक विश्लेषण की मांग करता है।
पहली बात तो यह है कि अनुपम ने निस्संकोच माना कि वे मोदी के चमचे हैं। मोदी की अदाओं के प्रशंसक लाखों है। कुछ तो अंधभक्त भी हैं। लेकिन अनुपम खुद को चमचा ही मानते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘बाल्टी’ होने से किसी का ‘चमचा’ होना बेहतर है। यह एक तुलनात्मक स्थिति है। इस बात को गहराई से समझना जरूरी है कि बाल्टी और चमचे में क्या अंतर्सबंध है? कोई सम्बन्ध है भी या नहीं? क्या दोनों का काम एक-दूसरे के बगैर चल सकता है? या फिर सियासत में टिकने के लिए बाल्टी और चमचा होने में सौ फीसदी समन्वय जरूरी है। साथ ही चमचा और बाल्टी होने का निश्चित अर्थ क्या है और खुद अनुपम अभी किस फेज में हैं?
चमचा बुनियादी तौर पर उस बर्तन या उपकरण का नाम है, जिसका उपयोग खाद्य वस्तुओं को सुविधाजनक रूप से खाने, घोलने, चलाने अथवा मिलाने के लिए किया जाता है। वह एक दैनिक उपयोग का जरूरी किचन वेयर है, जिसके बगैर खाना बनाना या उसे खाना कठिन हो सकता है। जबकि बाल्टी एक ऐसी वस्तु है, जो पानी भरने या कपड़े धोने के काम आती है। उसका चम्मच से कोई सीधा रिश्ता नहीं है, ठीक वैसे ही कि जैसे चम्मच को भी बाल्टी की दरकार नहीं है।
इन दोनों वस्तुओं का समन्वय अमूमन भंडारे के भोज में ही दिखाई पड़ता है, जहां सब्जी दाल इत्यादि बाल्टी में भरे जाते हैं और बड़ा चम्मच उसे खाने वाले की थाली तक ले जाता है। अर्थात बाल्टी और चम्मच सामूहिक उपयोग की वस्तु ज्यादा हैं। अब सवाल यह है कि अगर दोनों की सामाजिक जीवन में अपने ढंग से उपयोगिता है तो अनुपम ने खुद को चमचा कहलाना क्यों पसंद किया और आकार और क्षमता में उससे बड़ी बाल्टी को खारिज क्यों किया?
इसका कारण संभवत: चमचे के भौतिक स्वरूप से ज्यादा महत्वपूर्ण उसमें छिपा भाव और तासीर है। चमचा तरल पदार्थ परोसने के साथ-साथ घी चुपड़ने के और मुंह में रखा जाए तो मुंह बंद करने के काम भी आता है। चम्मच की इसी भूमिका का सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक महत्व है। क्योंकि चमचा होना किसी भी योग्य अथवा अयोग्य व्यक्ति का स्थायी चापलूस बनकर अपना उल्लू सीधा करने की स्थिति है। जिसका मकसद अपने आराध्य की झूठी प्रशंसा और उसके माध्यम से अपना मतलब साधने की कला से है।
जब व्यक्ति चमचे में तब्दील होता है तो वह मान-अपमान, नीति-अनीति, सच-झूठ और मानवीय गरिमा की लक्ष्मण रेखा से ऊपर उठ चुका होता है। राजनीति में ऐसे लोगों की भारी पूछ होने के साथ-साथ हमारे देश में जीवन के हर क्षेत्र में चमचत्व हमेशा फायदेमंद ही होता है। अगर आपने बेशरमी और बेगैरती का च्वयनप्राश खाया हुआ है तो आप किसी को भी शीशे में उतार सकते हैं। यही जीवन में कामयाबी की गारंटी भी है।
इसकी तुलना में बाल्टी होने में कोई खास लाभ नहीं है, सिवाय किसी वीआईपी के बाथरूम में सजने के। बाल्टी एक ऐसा उपकरण है, जो अपनी तासीर या उपयोगिता से कोई मुहावरा नहीं रचती। चमचागिरी की तरह उसे छुपाया भी नहीं जा सकता। उल्टे बाल्टी अगर नहाने धोने में इस्तेमाल हो रही है तो वह कपड़ों और मन के मैल को उजागर कर सकती है। यानी बाल्टी एक बेबाक चीज है। इसके विपरीत चमचों का उपयोग समाज में बहुआयामी और बहुफलदायी है।
चमचा होना आपको स्वाभाविक कृपा पात्र बनाता है। तरक्की की गारंटी देता है। भविष्य की संभावनाओं को सुरक्षित करता है। अपात्रता को पात्रता में बदलता है। मूर्खताओं को काबिलियत में तब्दील करता है और आपको हमेशा ‘सेफ जोन’ में रखता है। इस हिसाब से चमचे पालना और उनका संवर्द्धन करना आज भारत का सबसे बड़ा और सबसे तेजी से बढ़ने वाला उद्योग है।
यह बात अलग है कि जीडीपी में इसे कभी शामिल नहीं किया गया। अलबत्ता यह बयान देकर अनुपम ने जरूर साबित कर दिया कि एफटीआईआई चेयरमैन का पद भी उन्हें इसी काबिलियत की वजह से मिला है। दरअसल उपेक्षा से भरी बाल्टी के चम्मच में रूपांतरण के यही प्रत्यक्ष फायदे हैं। इसलिए अनुपम खेर के बयान को आप भी संजीदगी से लें, स्टैंड अप कॉमेडी न समझें!
(सुबह सवेरे से साभार)