गिरीश उपाध्याय
देश के प्रधान न्यायाधीश के बाद अब भारत के राष्ट्रपति ने भी अदालतों में लाखों की संख्या में मुकदमे लंबित रहने की बात को लेकर न्याय के वैकल्पिक तंत्र को मजबूत करने की बात कही है। वैसे यह मुद्दा समय समय पर उठता रहा है और इस पर बार और बेंच के साथ साथ समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने भी चिंता जताई है। ऐसे में एक बार फिर देश के सर्वोच्च स्तर से इस बात को रेखांकित किया गया है कि मामलों को कोर्ट तक ले जाने से पहले, विवाद के निपटारे के लिए, कोर्टबाजी से इतर न्याय के वैकल्पिक तंत्र को विकसित और मजबूत किया जाना चाहिए।
संस्कारधानी के नाम से चर्चित मध्यप्रदेश के जबलपुर में शनिवार को ऑल इंडिया ज्यूडिशियल एकेडमीज़ डायरेक्टर्स रिट्रीट के दो दिवसीय आयोजन के उद्घाटन समारोह में यह महत्वपूर्ण मुद्दा फिर उठा। कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति डॉ. रामनाथ कोविंद ने कहा कि अदालतों पर बढ़ते मुकदमों का बोझ कम करने के लिए न्यायाधिकरणों और माध्यस्थम अभिकरणों जैसी संस्थाओं की भूमिका को और प्रभावी बनाया जाना चाहिए। भारत के प्रधान न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे ने भी कहा कि बदलती हुई परिस्थिति में न्याय प्रणाली और न्यायाधीशों के प्रशिक्षण के तौर तरीकों को भी बदलना होगा।
दरअसल प्रधान न्यायधीश बोबडे लंबे समय से कोर्टबाजी में मध्यस्थता की भूमिका पर जोर देते रहे हैं। ठीक एक साल पहले उन्होंने ‘वैश्वीकरण के युग में मध्यस्थता’ विषय पर तीसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए भारत में संस्थागत मध्यस्थता के विकास के लिए एक मजबूत ‘आरबिट्रेशन (मध्यस्थता) बार’ की जरूरत बताई थी और कहा था कि यह ज्ञान और अनुभव रखने वाले पेशेवरों की उपलब्धता और पहुंच को सुनिश्चित करेगा।
उन्होंने कहा था कि यह बिलकुल सही समय है जब ऐसा व्यापक, सुविचारित और सशक्त कानून बनाया जाए जिसमें मुकदमे से पहले ‘मध्यस्थता’ को अनिवार्य किया जाए। इस तरह का कानून बनने से न सिर्फ अदालतों की कार्यक्षमता बढ़ेगी बल्कि अदालतों में मुकदमों की संख्या घटने के साथ ही वहां बरसों बरस उनके लंबित रहने की समस्या भी कम होगी।
प्रधान न्यायाधीश का कहना था कि न्यायाधीशों का उद्देश्य एक विवाद को हल करना होता है, लेकिन फैसले पर असंतोष के कारण अपील की जाती है जिसे टाला भी नहीं जा सकता है। न्याय करना एक कठिन है और जजों को फैसला लेना पड़ता है, जिससे सब बचते हैं। ऐसे में ‘मेरा मानना है कि एक व्यापक कानून बनाने का यह बिल्कुल सही समय है, जिसमें मुकदमे से पहले मध्यस्थता अनिवार्य हो…’
जबलपुर के संवाद में अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी उसी बात को आगे बढ़ाया है। इसके बाद मध्यस्थता का मैकेनिज्म मजबूत करने के सुझाव पर न सिर्फ सरकार बल्कि देश की तमाम कानूनी संस्थाओं खासतौर से बार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। यह सुझाव हमारी अदालतों को काम के बोझ के दमघोटू दबाव से राहत तो देगा ही साथ ही उन लाखों लोगों के समय और धन की बचत भी करेगा जो छोटी छोटी बात में अदालत तक पहुंच तो जाते हैं लेकिन बाद में महसूस करते हैं कि उन्होंने अदालत से बाहर एकदूसरे से बात कर ली होती तो दोनों पक्षों का भला हो सकता था।
भारत में वैसे मध्यस्थता के लिए कानून मौजूद है। 1996 में सरकार मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) कानून बना चुकी है। 2015 में इस कानून में संशोधन के जरिये मध्यस्थता प्रक्रिया को सहज बनाने, प्रक्रिया की लागत को कम करने, मामलों का तेजी से निपटारा करने और मध्यस्थता करने वालों की तटस्थता सुनिश्चित करने जैसे प्रावधान किए गए थे।
हालांकि मध्यस्थता और सुलह कानून में कमियों को लेकर भी लगातार बात होती रही है। 2015 के संशोधित अधिनियम पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बी.एच. श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की गई थी जिसका मुख्य कार्य प्रचलित कानून में आ रही कठिनाइयों को दूर करते हुए मध्यस्थता के असर का आकलन करना और ऐसे सुझाव देना था जिसमें मध्यस्थता की व्यवस्था को संस्थागत रूप से प्रोत्साहित किया जा सके।
उसके बाद मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में 2018 में इसमें कुछ जरूरी संशोधन किए थे। उन संशोधनों की सबसे प्रमुख बात थी एक स्वतंत्र संस्था के रूप में मध्यस्थता परिषद (एसीआई) का गठन। इस संस्था का काम मध्यस्थता करने वाले संस्थानों को ग्रेड देना और नियम तय करके मध्यस्थता करने वालों को मान्यता प्रदान करना था। इस संस्था के जिम्मे यह दायित्व भी था कि वह मध्यस्थता और वैकल्पिक विवाद समाधान व्यवस्था से जुड़े सभी मामलों में पेशेवर मानकों को बनाने के लिए नीति और दिशा निर्देश तय करे और मध्यस्थता वाले सभी निर्णयों का इलेक्ट्रॉनिक रिकार्ड रखे।
दरअसल भारतीय समाज में मध्यस्थता या सुलहसफाई जैसी परंपरा नई नहीं है। हमारी पंचायतों की व्यवस्था का मूल आधार ही यही रहा है जहां लोग आपस में मिल बैठकर अपने विवादों और झगड़ों को सुलझाते रहे हैं। लेकिन जैसे जैसे कानूनी पेचीदगियां बढ़ती गईं, पंचायतों का, स्थानीय स्तर पर ‘न्याय’ करने वाली संस्था का स्वरूप खत्म होता गया। पंचायत स्तर पर राजनीति के प्रवेश ने भी इस व्यवस्था को दूषित किया, नतीजा यह हुआ कि लोग एक दूसरे को विश्वास में लेकर, आपसी बातचीत से मामले सुलझाने के बजाय उन्हें कोर्ट में ले जाने लगे।
एक और जटिलता बार के कारण भी आई। ‘न्याय’ के लिए पैरवी करने वाले वकील तंत्र ने थोड़ी सी समझाइश से मामले सुलझ जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के बजाय मामलों को अदालतों में ले जाने और वहां उन्हें लंबा खींचने की प्रवृत्ति अपनाई और नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ अदालतों पर काम का बोझ बढ़ा बल्कि लोगों को न्याय मिलने में सालों साल लगने लगे। कई पीढि़या कोर्ट की तारीख पर तारीख के मकड़जाल में उलझकर बरबाद हुईं।
अब जब प्रधान न्यायाधीश से लेकर राष्ट्रपति तक, न्याय व्यवस्था के वैकल्पिक मंचों को मजबूत करने तथा कोर्ट में मामले ले जाए जाने से पहले मध्यस्थता या सुलह समाधान को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने जैसे सुझाव दे रहे हैं तो इस पर तेजी से अमल की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। यदि ऐसा हो जाता है तो कई सारे मामले अदालतों की दहलीज तक पहुंचेंगे ही नहीं और न्याय तंत्र पर पड़ने वाला मुकदमों का बोझ भी काफी हद तक कम होगा। उम्मीद तो यह भी है कि इससे मुकदमों के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली दुश्मनी की भावना भी कम होगी।
देश में जब छोटी-छोटी बात पर एक दूसरे का गला तक काट लेने जैसा माहौल पैदा किया जा रहा हो और छोटे-छोटे मसलों को लेकर लोग रोज अदालतों का दरवाजा खटखटा रहे हों ऐसे में कोई भी विवाद अदालतों से बाहर निपटाने के प्रयास की बात करना स्वागत योग्य है। कई बार व्यक्ति आवेश में आकर कोर्ट में केस तो लगा देता है लेकिन अदालतों के चक्कर में फंसने के बाद उसे अहसास होता है कि उसने कितनी बड़ी गलती कर दी। वह किसी तरह इस जंजाल से निकलना चाहता है, ऐसे में मध्यस्थता के मंच उसके लिए अपेक्षित राहत का बहुत सशक्त माध्यम हो सकते हैं। जो धन और समय दोनों की बचत कर सकते हैं। सुलहनामे की व्यवस्था हर दृष्टिकोण से कोर्टबाजी से भली है, इसे बढ़ावा दिया ही जाना चाहिए।(मध्यमत)