उज्जैनवासियों की भावना को समझा जा सकता है। उनके मानस में यह उथल-पुथल थोड़े दिनों तक बनी रहेगी। पूरे एक महीने तक, दो चार नहीं, बल्कि लाखों लोग आपके आसपास हों और अचानक पूरा माहौल खाली हो जाए, तो खुद को सामान्य स्थिति में लाने में वक्त तो लगता ही है। वैसे आज की आपाधापी वाली दुनिया में समय के घाव कुछ ज्यादा ही जल्दी भर जाते हैं। लेकिन सिंहस्थ जैसे आयोजन की स्मृतियां मानस पटल से इतनी जल्दी धूमिल नहीं होंगी।
पर्व बीत गया है, अब उसका लेखा जोखा तैयार करने का समय है। वैसे सिंहस्थ का कोई कारोबारी हिसाब नहीं हो सकता। आप उसका आकलन किसी मेले-ठेले की तरह नहीं कर सकते कि इतनी कमाई हुई यानी मेला सफल रहा। महाकुंभ में लाभ की बात तो होती है, लेकिन पुण्य लाभ की। और पुण्य लाभ का पैमाना हर व्यक्ति का अपना अपना होता है। आकार-प्रकार या वजन से लेकर परिमाण तक में पुण्य को नहीं तौला जा सकता। इसलिए मानकर चला जाना चाहिए कि जो भी इस एक महीने की अवधि मे उज्जैन आया और उसने क्षिप्रा नर्मदा के संगम में डुबकी लगाई उसने पुण्य भी अर्जित किया।
लोग तो चले गए, अब सारा दारोमदार उज्जैनवासियों पर है। सिंहस्थ के लिए,सिंहस्थ के नाम पर, वहां जो भी सुविधाएं विकसित की गई हैं, वे इस शहर की धरोहर हैं। 12 साल में ही सही, लेकिन उज्जैन को सजने-सवंरने और खुद की मरम्मत करने के लिए सिंहस्थ के बहाने काफी सारे अतिरिक्त संसाधन मिल जाते हैं। जो काम बरसों बरस लटके रहते हैं, वे सिंहस्थ के नाम पर तय सीमा में पूरे हो जाते हैं। ऐसे कई काम और निर्माण उज्जैन में हुए हैं। यदि इन सुविधाओं का ठीक से इस्तेमाल हो और इनका समुचित रखरखाव हो तो उज्जैन धार्मिक नगरी के अलावा एक अत्याधुनिक शहर के रूप में अपनी पहचान बना सकता है।
लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा उस क्षिप्रा को जीवित और प्रवहमान बनाए रखने का है,जिसमें सिंहस्थ के लिए नर्मदा का पानी मिलाकर, बनावटी तौर पर प्रवाह बनाया गया था। सरकार ने तो सिंहस्थ का आयोजन निर्विघ्न संपन्न कराने के लिए यह उपाय कर लिया, लेकिन सच्चा संकल्प उज्जैन के लोगों को लेना होगा कि वे 2028 यानी अगले सिंहस्थ तक इस क्षिप्रा को स्वयं के नीर से पूरित और सतत प्रवहमान बना देंगे। बाहर के लोग तो इस एक माह की अवधि में पुण्यलाभ लेकर चले गए, लेकिन उज्जैन के लोगों को यदि पुण्य अर्जित करना है, तो उन्हें क्षिप्रा को स्वयं के जल से पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाना होगा।
1963 की फिल्म ‘हरिश्चंद्र तारामति’ में हेमंत कुमार का गाया एक गीत है। ऐसे बहुत कम ही गीत होंगे, जो प्रकृति के शाश्वत प्रतीकों पर ऐसी भावना के साथ लिखे गए हों। इस गीत के रचयिता महान गीतकार कवि प्रदीप ने सूर्य को उसकी सामाजिक जिम्मेदारी का स्मरण कराया है। वे सूर्य को उसके दायित्व की याद दिलाते हुए कहते हैं-
जगत भर की रोशनी के लिये/ करोड़ों की ज़िंदगी के लिये/ सूरज रे जलते रहना…
जगत कल्याण की खातिर तू जन्मा है/ तू जग के वास्ते हर दुःख उठा रे/ भले ही अंग तेरा भस्म हो जाए/ तू जल जल के यहां किरणें लुटा रे/ लिखा है ये ही तेरे भाग में/ कि तेरा जीवन रहे आग में…
इस गीत की अंतिम पंक्तियां तो मानो यथार्थ का चरम उद्घोष हैं-
करोड़ों लोग पृथ्वी के भटकते हैं/ करोड़ों आँगनों में है अँधेरा/ अरे जब तक न हो घर घर में उजियाला/ समझ ले अधूरा काम है तेरा/ जगत उद्धार में अभी देर है/ अभी तो दुनिया में अन्धेर है… सूरज रे, जलते रहना…
उज्जैन से करीब 50 किमी दूर बड़नगर में पैदा हुए, इसी इलाके की माटी के कवि प्रदीप यदि आज होते तो जरूर क्षिप्रा पर भी ऐसा ही कोई गीत लिखते और कहते-
करोड़ों लोग पृथ्वी के भटकते हैं/ करोड़ों आंगनों में प्यास का डेरा/ अरे जब तक न हो हर कंठ को पानी/ समझ ले अधूरा काम है तेरा/ क्षिप्रा रे तू बहती रहना…
और क्षिप्रा बहती रहे, यह काम हम सभी का है। सिंहस्थ जैसे आयोजन हमें हमारा धर्म याद दिलाते हैं। धर्म का अर्थ केवल सिर को पानी में डुबा लेना या किसी मंदिर में जाकर मत्था टेक आना नहीं है। धर्म वही है जो मनुष्य और प्रकृति दोनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए सन्नद्ध हो। उज्जैन को यदि अपने पास ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर के होने का गर्व है, उन्हें यदि अपने यहां सिंहस्थ जैसे आयोजन के होने का गर्व है, तो इस आयोजन की अनिवार्य शर्त क्षिप्रा को भी उन्हें संरक्षित और संवर्धित करना होगा। उज्जैन के ही ख्यात कवि डॉ. शिवमंगलसिंह‘सुमन’ बड़े गर्व से कहा करते थे-
मैं शिप्रा सा तरल, सरल बहता हूँ/ मैं कालिदास की शेष कथा कहता हूँ/ मुझको न मौत भी, भय दिखला सकती/ मैं महाकाल की नगरी में रहता हूँ
इन पंक्तियों में से यदि क्षिप्रा को निकाल दें, तो क्या इनमें वो रस बचेगा? उज्जैन के सामने आज सबसे बड़ा सवाल यही है।
गिरीश उपाध्याय
क्या सटीक लिखा सर आपने।
उज्जैन इन दिनों ‘सफल’ सिंहस्थ के होर्डिंग से पटा पड़ा है, भाजपा नेताओ के फ़ोटो के साथ। मन में सवाल आता हे हां अगर कोई आतंकवादी घटना नहीं होना, कोई महामारी नहीं फेलना, कोई भगदड़ नहीं मचना, कोई डूबने से अकाल मोत नहीं होना ही सफलता की कसोटी था फिर तो ठीक है, इसके लिए भगवान के आशिर्वाद के साथ साथ शासन प्रशासन को बधाई दी जा सकती है।
सिंहस्थ असल में तभी सार्थक रहेगा जब शिप्रा हरदम हु ही बहती रहे, नालो से बची रहे, धार्मिक पर्यटन सिर्फ एक माह का नहीं हर समय के लिए रोजगार लाये, पंडालो से निकली जीवन के सच्चे मायनो की सीखे व्यव्हार में दिखे, अनजान की मदद का भाव हमेशा बना रहे और हा झूठन में व्यर्थ गए हजारो क्विंटल भोजन का मोल पहचाना जाये।
जिम्मेदारी सरकार और प्रजा दोनों की है।
प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद संदीप। इसके लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे, सरकार के साथ साथ समाज को भी अपनी जवाबदेही तय करनी होगी।