लोकसभा चुनाव के परिणामों ने दरअसल भारतीय राजनीति में गठबंधन की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित करने या उस पर नए सिरे से सोचने की स्थितियां पैदा की हैं। वैसे ऐसा नहीं है कि चुनावी गठबंधन सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही हुआ हो। खुद भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ और पंजाब में अकाली दल और बिहार में जनता दल युनाइटेड के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। कहने को कांग्रेस ने भी बिहार में लालू यादव की पार्टी राजद के साथ हाथ मिलाया था।
लेकिन जितनी चर्चा उत्तरप्रदेश में बसपा-सपा गठबंधन की हुई, जितनी निगाहें और उम्मीदें इस गठबंधन के परफार्मेंस पर लगी थीं उतनी किसी पर नहीं। पर अब दोनों के रास्ते एक बार फिर अलग-अलग हो गए हैं। वैसे मायावती की राजनीति हमेशा से ही अप्रत्याशित रही है। वे कब क्या कर बैठेंगी, कब कौनसा फैसला ले लेंगी, कोई नहीं कह सकता। उनके व्यक्तित्व की इस अनबूझी फितरत का सबसे बड़ा उदाहरण 1999 में संसद में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार को गिराना था।
अब स्थिति यह है कि सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों के रास्ते उत्तरप्रदेश में अलग-अलग हैं। अखिलेश अपनी सत्ता गंवाने के बाद राहुल के साथ यारी और ‘बुआ’ मायावती के साथ ‘राजनीतिक रिश्तेदारी’ करके देख चुके हैं। वैसे तो राजनीति अनहोनी का ही दूसरा नाम है, पर आने वाले समय में ऐसा नहीं लगता कि ये तीनों ही दल बहुत जल्दी फिर से एक दूसरे का हाथ थामकर, एकसाथ राजनीति की जाजम पर आ बैठेंगे।
ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों के बीच हुए गठबंधनों में ही पलीता लगा है। खुद दलों के भीतरी हालात भी ठीक नजर नहीं आ रहे। पार्टी की भारी पराजय के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी नेतृत्व संभालने पर किसी भी सूरत में राजी नहीं हो रहे। एक तरफ कांग्रेस की मुश्किल यह है वह गांधी परिवार की अगुवाई या नेतृत्व में ही चलने की तासीर बना चुकी है, वहीं दूसरी तरफ गांधी परिवार की नेतृत्वकर्ता पीढ़ी कह रही है कि वह अब नेतृत्व नहीं करेगी, बेहतर होगा पार्टी किसी और को अपना मुखिया चुने।
इधर बसपा में, मायावती ने सपा से अलग रास्ता चुनने का फैसला करने के साथ ही पार्टी संगठन में फेरबदल करते हुए अपने भाई को उपाध्यक्ष और भतीजे को राष्ट्रीय संयोजक बनाकर पार्टी पर परिवारवाद का ठप्पा लगा दिया है। इस बीच उत्तरप्रदेश में यह चर्चा भी बहुत जोरों पर है कि बहनजी का वोट बैंक तेजी से खिसक रहा है। शायद यही कारण है कि वे अपने परंपरागत दलित वोट को छीजने से बचाने की कोशिश करने के साथ-साथ मुसलमान वोटों को साधने में भी लगी हैं। मुसलमानों को टिकट न देने के अखिलेश यादव के कथित सुझाव का मायावती के द्वारा सार्वजनिक खुलासा करना इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी जिस तरह देश में अपना विस्तार कर रही है और जिस तरह उसने लोकसभा चुनाव लड़कर अपेक्षित सफलता पा ली है, उसने उसे जबरदस्त मैदानी और राजनीतिक ताकत दे दी है। देश में कांग्रेस सहित अब कोई भी दल ऐसा नहीं बचा है जो अकेले भाजपा को टक्कर दे सके या उससे मुकाबला कर सके। ऐसे में एंटी भाजपा वोटों को एकजुट करके, मोदी-शाह का मुकाबला करना ही एकमात्र विकल्प बचता है। और इसके लिए जरूरी है कि विपक्षी दलों का एक मजबूत गठबंधन हो। लेकिन उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के हश्र ने इस संभावना पर भी पलीता लगा दिया है।
भाजपा तो चाहती ही रही है कि उसकी खिलाफत करने वाले दल किसी सूरत में एकजुट न हो पाएं। यही कारण था कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी रैलियों में सपा-बसपा गठबंधन में दरार डालने या उनके बीच अविश्वास के बीज बोने का उपक्रम करते हुए एक सभा में कहा था-‘’कांग्रेस और उनके साथ गठबंधन कर चुके अखिलेश यादव ने आपस में साठगांठ करके बहनजी को धोखा दिया है..’’ यह बात अलग है कि मोदी के उस बयान के बाद मायावती और अखिलेश दोनों ने उस समय गठबंधन को मजबूती से कायम रखने के संकेत दिए थे।
पर चुनाव के बाद हालात बदल गए हैं। अब विपक्षी दल हर तरफ निराशा से घिरे नजर आ रहे हैं। चुनाव के दौरान न सिर्फ अखिलेश और मायावती बल्कि ममता बैनर्जी और चंद्रबाबू नायडू भी विपक्षी एकता की धुरी बनने की कोशिश करते नजर आ रहे थे। बल्कि इनमें से कई तो खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी मानकर चल रहे थे। लेकिन चंद्रबाबू नायडू की आंध्रप्रदेश में ही कमर टूट गई और बंगाल में भाजपा ने ममता को ऐसा तगड़ा झटका दिया कि वे उससे अभी तक उबर नहीं पाई हैं।
चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के राज्यसभा के चार सांसदों का भाजपा में शामिल हो जाना तो शुरुआत भर है। आने वाले दिनों में ऐसी स्थितियां बनेंगी या बना दी जाएंगी कि नेताओं में भाजपा में शामिल होने की भगदड़ सी मच जाए। भाजपा को भी अब इन स्थितियों से कोई परहेज नहीं है। उसका एकमात्र लक्ष्य अपने उस कथन को सच साबित करने की ओर बढ़ना है कि वह तो कम से कम पांच दशकों तक राज करने का इरादा लिए हुए है।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा का अगला लक्ष्य राज्यसभा में किसी भी तरह बहुमत जुटाना है। फिर विपक्षी दलों के नेताओं को बैसाखियों पर लाना और अंतत: उन दलों के वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित कर, अपने वोट बेस को और व्यापक बनाना है। किसी व्यक्ति या जाति के बूते चलने वाले दल इसका सर्वाधिक शिकार होने वाले हैं।
विपक्ष की हालत क्या हो गई है इसका अंदाजा आप बुधवार को ममता बैनर्जी के इस बयान से ही लगा लीजिए जिन्होंने एक तरह से भाजपा से अकेले लड़ने में अपनी हार मानते हुए गुहार लगाई है कि सभी विपक्षी दल साथ आएं ताकि मिलकर भाजपा का मुकाबला किया जा सके। इसका अर्थ यह लगाया जा रहा है कि वे भाजपा से लड़ने के लिए अब वामपंथियों और कांग्रेस से हाथ मिलाने को भी तैयार हैं।
आज की स्थिति में भाजपा भारत की राजनीति का इतना बड़ा और इतना ताकतवर चुंबक बन गई है कि वह बैठे बैठे ही बहुत सारी पार्टियों का लोहा-लंगड़ अपनी तरफ खींच सकती है। और इसका निशाना ज्यादातर वे दल बनेंगे जो सिर्फ एक व्यक्ति के द्वारा खड़े किए गए हैं या एक व्यक्ति के बूते पर ही चलाए जा रहे हैं। और दुर्भाग्य से देश में अब ऐसा कोई दल नहीं बचा है जो इस परिभाषा के तहत न आता हो।