अजय बोकिल
दुनिया में सैनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अब स्वास्थ्य अथवा ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ के खतरों पर बहस छिड़ गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने शनिवार को चेन्नई में कहा कि कोरोना वैक्सीन राष्ट्रवाद पूरी दुनिया के लिए अहितकर होगा। अगर ऐसा हुआ तो हमें कोविड 19 के बाद अपनी पुरानी और सामान्य दुनिया में लौटना लगभग असंभव हो जाएगा।
सौम्या ने कहा कि कोरोना वैक्सीन के विकास और निर्माण में सभी की बराबरी की हिस्सेदारी और हित जुड़े हैं। अगर कुछ ही देशों ने इस पर अपना एकाधिकार जताना शुरू किया तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना असंभव हो जाएगा। उन्होंने कहा कि भारत कोरोना वैक्सीन के विकास में अहम भूमिका निभा सकता है।
सौम्या ने यह बात इसलिए कही क्योंकि पूर्व में एच-1 एन-1 वायरस महामारी फैलने पर कुछ अमीर देशों ने वैक्सीन की जमाखोरी कर ली थी, जिससे गरीब देशों को यह टीका मिलने में बहुत मुश्किल हुई और कई लोग इलाज के अभाव में मौत के मुंह में चले गए। सवाल यह है कि अगर दुनिया को स्वास्थ्य रक्षा की आड़ में वैक्सीन (टीका) राष्ट्रवाद ने घेर लिया तो विश्व की बड़ी आबादी जो पहले ही गरीबी,आतंकवाद और कुपोषण से जूझ रही है, उसे कौन बचाएगा?
गौरतलब है कि सौम्या के बयान के पहले खुद डब्लूएचओ ने दुनिया को चेताया था कि कोरोना वैक्सीन के नाम पर राष्ट्रवाद का डंका बजाना सही नहीं है। उसने कहा था कि कोरोना टीके विकसित कर रहे अमीर देशों को ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ से बचना होगा। यदि दुनिया के गरीब देशों से कोरोना संक्रमण खत्म नहीं हुआ तो अमीर देश भी दोबारा इसकी चपेट में आने से बच नहीं पाएंगे।
कोरोना महामारी पर विवादों में घिरे डब्ल्यूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अधानोम घेब्रेयेसस ने कहा था कि यह अमीर देशों के भी हित में होगा कि वे वहां विकसित होने वाला कोई भी कोरोना टीका पूरी दुनिया में उपलब्ध करवाएं, जिससे इस बीमारी का दुनिया भर में अंत किया जा सके।
उधर डब्लूएचओ के आपातकालीन विभाग के निदेशक माइकल रयान के अनुसार कोविड 19 का मुकाबला करने के लिए कई तरह के टीकों की जरूरत होगी। रयान के मुताबिक फिलहाल मनुष्यों पर 26 प्रकार के कोरोना टीके टेस्ट किए जा रहे हैं। जिनमें से 6 टीके परीक्षण के तीसरे चरण में पहुंच चुके हैं। लेकिन इन टीकों के चरण-3 में पहुंचने का मतलब कोरोना वैक्सीन तैयार होना नहीं है। इसका अर्थ केवल यह है कि अब इन टीकों का आम लोगों पर परीक्षण किया जाएगा और देखा जाएगा कि वह उन्हें कोरोना संक्रमण से बचाता है या नहीं।
यहां सवाल उठता है कि यह वैक्सीन राष्ट्रवाद है क्या? क्योंकि राजनीतिक राष्ट्रवाद की प्रचलित परिभाषा तो अपने राष्ट्र को सर्वोपरि मानने और उसके लिए सर्वोच्च बलिदान देने के लिए तैयार रहने का आग्रह है। लेकिन इसमें यह भाव भी निहित है कि अपना राष्ट्र ही सर्वप्रथम है। बाकी सब बाद में। जहां तक ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ की बात है तो इससे तात्पर्य जब एक देश कोई दवा या वैक्सीन तैयार करे तो पहले सिर्फ वह अपने ही लोगों को उपलब्ध कराए।
यह काम वह वैक्सीन निर्माता कंपनी से वैक्सीन का पूर्व खरीदी करार करके कर सकता है। यह किसी एक देश के नागरिकों की स्वास्थ्य रक्षा के लिहाज से तो ठीक हो सकता है, लेकिन यह विचार अपने आप में स्वार्थ प्रेरित है। अर्थात हम पहले अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की ही चिंता करेंगे बाकी दुनिया जाए भाड़ में। दूसरे हम केवल अपने दवा बाजार की ही सोचेंगे। अगर वैक्सीन किसी को देंगे भी तो ऐसे दामों में देंगे कि सामने वाले का खरीदने में ही दम निकल जाए।
वैक्सीन राष्ट्रवाद की यह बात केवल आशंका भर नहीं है। 2009 में एच-1एन-1फ्लू महामारी के समय दुनिया के कई अमीर देशों ने वैक्सीन निर्माता कंपनियों से प्री पर्चेस एग्रीमेंट कर डाले थे। अकेले अमेरिका ने ही एच-1 एन-1 वैक्सीन के 6 लाख डोज खरीद लिये थे, जबकि उस वैक्सीन की कुल वैश्विक उत्पादन क्षमता 2 अरब डोज की थी। इस बार तो कोरोना का कहर एच-1 एन-1 से कई गुना ज्यादा है। ऐसे में कोरोना वैक्सीन की पूर्व खरीदी की आहट सुनाई देने लगी हैं, जबकि वैक्सीन अभी तैयार हुई ही नहीं है। लेकिन अमीर देश अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के बारे में ही सोच रहे हैं।
‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ का मुद्दा इसलिए भी उठा क्योंकि फ्रांस की एक दवा कंपनी ‘सनोफी’ ने यूएस की आर्थिक मदद से कोरोना वैक्सीन पर काम शुरू किया। उसने यह भी कहा कि चूंकि इस शोध के लिए पैसा अमेरिका ने दिया है, इसलिए वैक्सीन की पहली सप्लाई अमेरिका को ही की जाएगी। इस पर फ्रांस में काफी बवाल मचा। अंतत: कंपनी ने सफाई दी कि वह किसी देश के साथ प्राथमिकता अधिकारों को लेकर कोई समझौता नहीं करेगी।
उधर जर्मनी में भी कोरोना वैक्सीन तैयार हो रही है। वहां मार्च में ही कुछ अमेरिकी प्रतिनिधि मिले थे। उनकी कोशिश थी कि वो संभावित वैक्सीन के पूरे अधिकार हासिल कर लें। इसके बाद जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने साफ किया कि ‘जर्मनी बिकने के लिए नहीं है।‘ हम वैक्सीन न सिर्फ जर्मनी बल्कि पूरी दुनिया के लिए बनाएंगे। यही नहीं वहां की सरकार ने उस जर्मनी कंपनी में 30 करोड़ यूरो निवेश कर 23 फीसदी हिस्सेदारी भी हासिल कर ली।
इधर भारत में एक निजी कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ने कोरोना वैक्सीन तैयार किया है। इसके 225 रुपये प्रति डोज के हिसाब से बाजार में उपलब्ध होने की संभावना है। रशिया में बन रहा कोरोना वैक्सीन अगले हफ्ते उपलब्ध होने की उम्मीद है। कहते हैं अमेरिका पहले ही अपनी मंहगी दवाइयों के लिए बदनाम है। वहां भी इस बात पर बहस चल रही है कि कोरोना वैक्सीन सस्ती कैसे मिले?
कोरोना वैक्सीन किस भाव लोगों को मिलेगी, इस पर भी बहस चल रही है। अमेरिकी स्वास्थ्य मंत्री एलेक्स अजर ने कांग्रेस में कहा कि सरकार कोरोना वैक्सीन के सस्ते होने के मामले में कोई दखल नहीं देने वाली है। उन्होंने कहा कि अमेरिका का करदाता पहले ही कोविड 19 वैक्सीन पर शोध और अनुसंधान के लिए काफी निवेश कर चुके हैं।
कोरोना वैक्सीन का महत्व इसलिए भी बहुत ज्यादा है, क्योंकि इसने पूरी दुनिया को ही अपनी चपेट में ले लिया है। डब्लूएचओ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक विश्व में कोरोना संक्रमितों की संख्या 2 करोड़ तक पहुंच चुकी है और इससे मरने वालों की संख्या लगभग 8 लाख तक पहुंच रही है। केवल भारत में ही कोरोना वायरस से 43 हजार मौतें हो चुकी हैं और हम संक्रमण के मामले में दुनिया में नंबर वन पर आ गए हैं।
विडंबना यह है कि एक तरफ कोरोना वैक्सीन अभी पूरी तरह से तैयार भी नहीं हुई है, लेकिन उस पर देशों की दावेदारी अभी से शुरू हो गई है। यह मानवता की दृष्टि से भी गलत है। जानकारों का कहना है कि वैक्सीन राष्ट्रवाद वैसे भी वैक्सीन विकास के बुनियादी उसूलों और वैश्विक लोक स्वास्थ्य की भावना के खिलाफ है। क्योंकि इस काम में दुनिया के कई देश लगे हुए हैं और वैश्विक लोक स्वास्थ्य की कोई भौगोलिक सीमाएं नहीं होतीं।
कोविड 19 भी देशों, महाद्वीपों की सरहदों से परे एक वैश्विक बीमारी है। वैक्सीन राष्ट्रवाद का तत्काल दुष्परिणाम तो यही होगा कि वो देश जिनके पास संसाधन सीमित हैं और सौदेबाजी की क्षमता कम है, वहां की आबादी को वैक्सीन आसानी से उपलब्ध नहीं होगी। खासकर विकासशील और गरीब देश से इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
भारत ने अपनी संभावित कोरोना वैक्सीन को लेकर कोई नीति घोषित नहीं की है। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम ‘सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:’ की संस्कृति वाले देश हैं। उम्मीद करें कि हम जो वैक्सीन बनाएंगे, वहां सबकी जेब की माफिक में होगी और ‘जगत कल्याण’ के भाव से पूरी दुनिया की पहुंच में होगी। क्योंकि स्वास्थ्य के मामले में इस अंतरराष्ट्रीयवाद में ही हमारा राष्ट्रवाद भी समाया हुआ है।