अजय बोकिल
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिलक्यारा टनल (सुरंग) का एक हिस्सा ढह जाने से वहां फंसे 41 मजदूरों को 17 वें दिन सकुशल निकाले जाने के अभूतपूर्व बचाव अभियान ने रेस्क्यू ऑपरेशनों के इतिहास में एक नया अध्याय रच दिया है। यह समूचा घटनाक्रम मनुष्य की जिजीविषा और मानवीय गलतियों का मिश्रित आख्यान है, जो अंतत: मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता को साबित करता है। साथ ही प्रकृति से दुस्सासिक छेड़छाड़ से आगाह भी करता है।
तमाम खट्टे- मीठे और आस-निरास से भरे इस महाअभियान ने यह फिर से साबित किया कि मनुष्य और उसकी इच्छाशक्ति तमाम मशीनों और प्रौद्योगिकियों पर भारी है। आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस से मानव सभ्यता को मिल रही चुनौतियों का सिलक्यारा टनल ऑपरेशन सटीक जवाब है। जब सारी मशीने फेल हो गईं तब मानव शक्ति और जिद ही काम आई। मनुष्य को बचाने के लिए मनुष्य के हाथ ही सर्वशक्तिमान साबित हुए। आस्था ने अनास्था को अतिक्रमण नहीं करने दिया। धैर्य और संयम, अवसाद और निराशा पर भारी पड़े। मृत्यु पर मनुष्य की जिजीविषा की ताकत सवा सेर सिद्ध हुई। फिर भरोसा बना कि मनुष्य का मनुष्य ही रक्षक है। मनुष्य बचेगा तो मानवता बचेगी।
उत्तर काशी का यह बचाव अभियान विश्व के अब तक चले सबसे लंबे थाम लुआंग गुफा रेस्क्यू ऑपरेशन का रिकॉर्ड भले न तोड़ पाया हो, लेकिन उसकी लगभग बराबरी जरूर कर गया। गौरतलब, है कि 23 जून 2018 को थाईलैंड में किशोर फुटबॉल खिलाडि़यों की एक टीम प्रेक्टिस के दौरान अपने सहायक कोच के साथ थाम लुआंग नांग नोम गुफा देखने पहुंची। थोड़ी बाद ही मौसम बदला और भारी बारिश शुरू हो गई। बाढ़ और पानी की तेज धारा ने गुफा से निकलने का रास्ता बंद कर दिया। उन गुफा में फंसे बच्चों को सुरक्षित निकालना पूरी मानवता के लिए चुनौती बन गया।
बच्चों से कोई संपर्क न होने से यह पता लगाना भी मुश्किल था कि गुफा में फंसे बच्चे जिंदा हैं भी या नहीं। पूरे थाईलैंड में भारी चिंता फैल गई। वहां की सरकार ने दुनिया भर से बचाव अभियान में सहायता मांगी। घटना के नौवें दिन ब्रिटिश गोताखोरों ने पता लगाया कि गुफा में कैद बच्चे जिंदा हैं। ये बच्चे गुफा के प्रवेश द्वार से चार किमी दूर एक उठी हुई चट्टान पर शरण लिए हुए थे। लेकिन सवाल यह था कि भारी मानसूनी बारिश में इन बच्चों को कैसे सुरक्षित निकाला जाए।
इसके लिए बहुत व्यापक बचाव अभियान चलाया गया और अंतत: घटना के 18 वें दिन गुफा में फंसे सभी 12 बच्चों को सुरक्षित निकाल लिया गया। इस पूरे महाभियान में 10 हजार से ज्यादा राहत कर्मी, 100 गोताखोर, 100 सरकारी एजेंसियां, 2900 पुलिस कर्मी, पुलिस के 10 हेलीकॉप्टर, 7 एंबुलेंस, 100 डायविंग सिलेंडर लगे थे। बच्चों को बचाने के लिए गुफा से एक अरब लीटर पानी उलीचना पड़ा था। 18 जुलाई 2018 को यह बेहद चुनौतीभरा अभियान सफलतापूर्वक पूरा हुआ। हालांकि, इस अभियान के दौरान थाई सेना को अपना एक नेवी सील कमांडो खोना पड़ा था।
इसी कड़ी में ताजा उत्तरकाशी टनल बचाव अभियान भी थाम लुआंग गुफा से कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। राहत की बात केवल इतनी थी कि जो मजदूर टनल के धंसने से दूसरे सिरे पर फंस गए थे, उनसे संपर्क जल्द ही स्थापित हो गया था और यह संपर्क ही जीवन ज्योत जलते रहने की गारंटी साबित हुआ। थाम लुआंग में 12 बच्चे थे, सिलक्यारा टनल में 41 युवा मजदूर फंसे थे, जिन्हें इस बात का अहसास शायद ही होगा कि जिस टनल का 60 फीसदी काम वो पूरा कर चुके थे, उसकी छत अचानक एक दिन धंस जाएगी और उनके लौटने का रास्ता बंद हो जाएगा।
सिलक्यारा टनल रेस्क्यू ऑपरेशन की कहानी भी पल-पल उभरती नई चुनौतियों और उनसे जूझने के अथक परिश्रम की रोमांचक कहानी है। टनल में फंसे मजदूरों ने वो अंधेरे में वो 17 दिन और रातें किस तरह काटी होंगी, इसका खुलासा तो कुछ दिन बाद ही होगा। लेकिन जो हुआ होगा, उसकी कल्पना भी सिहरा देने वाली है।
न खाने का पूरा इंतजाम, न सोने की जगह और न नित्य कर्म की कोई सुविधा। ऐसे में आशा और निराशा की लहरों के बीच 17 दिन गुजारना और वो भी बगैर अवसाद का शिकार हुए, अपने आप में बहुत बड़ी और प्रेरक बात है। हालांकि, उन मजदूरों तक खाना, पानी और ऑक्सीजन पहुंचाने के इंतजाम संभव हो सके थे। उनसे टेलीफोन के जरिए बातचीत भी हो रही थी। लेकिन इस बात की गारंटी देने की स्थिति में कोई नहीं था कि ये मजदूर नई सुबह कब देख सकेंगे।
बाहरी संपर्क ने उम्मीद की किरण कायम रखी थी। टनल में फंसे ये मजदूर जब बाहर आए तब भी उनके चेहरे राहत का भाव स्पष्ट था, लेकिन व्यवहार में कहीं कोई असामान्यता नहीं थी। बेशक उत्तरकाशी का यह टनल बचाव अभियान भारत का सबसे लंबा और सफल बचाव अभियान था। इसमें भी एनडीआरएफ, भारतीय सेना, उत्तराखंड सरकार की सभी एजेंसियां और अंतरराष्ट्रीय टनल एक्सपर्ट रात दिन लगे थे। समय लग रहा था, लेकिन प्रयासों और इच्छाशक्ति में कहीं कोई कमी नहीं थी। वैसे भी प्रकृति से लड़ना मनुष्य के लिए सबसे कठिन है। इस बचाव अभियान में भी कई प्लान बने। कई नाकामयाब हुए तो कुछ कामयाब भी हुए।
जीवन बचाने की दौड़ में मशीनें ज्यादा साथ नहीं दे पाईं। अंतत: मनुष्य की ताकत और इच्छाशक्ति पर भरोसा किया गया। वही काम भी आया। इस अभियान में देवदूत बने रैट होल माइनर मजदूरों का यह कहना बहुत मायने रखता है कि हमारे सामने बस एक लक्ष्य था, अपने मजदूर भाइयों को बचाना है। वो हमने कर दिखाया। यह बात अलग है कि दुर्गम पहाड़ों और धरती की गहराइयों को अपनी खुदाई के हुनर से नापने वालों की तुलना अंग्रेजी में चूहों से की जाती है।
असल में इन मजदूरों के हाथ मृत्यु की चट्टानों को जीवन की छेनी से भेदने वाले हाथ हैं, जो खुद मौत के खतरों को अपने कंधों पर थामे चलते हैं। इनकी मेहनत रंग लाई और आखिरकार मलबे में उस पार फंसे मजदूरों तक फिर से जीवन रेखा खिंच गई। हालांकि, रेट होल माइनिंग में होने वाले हादसों के मद्देनजर हाई कोर्ट ने पांच साल से इस पर रोक लगा रखी है, लेकिन यह प्रतिबंधित तकनीक ही आड़े वक्त पर संजीवनी साबित हुई।
मंगलवार की शाम 7 बजकर 5 मिनट पर टनल में कैद जिंदगियों तक रिहाई की रोशनी पहुंची और दो ढाई घंटों में सभी को मौत के कुएं से बाहर खींच लिया गया। 41 मजदूरों को बचाने के प्रयत्नों की पराकाष्ठा में असफलता के खतरे भी छिपे हुए थे। लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय स्तर पर समूचे बचाव अभियान की निरंतर मॉनिटरिंग और आपसी समन्वय ने इस महाभियान को सफलता की मंजिल तक पहुंचाया।
आस्था के पुट ने इस महा बचाव अभियान को अपने ढंग से ताकत दी। कुछ लोग इसे अंधविश्वास अथवा महज संयोग भी मान सकते हैं, लेकिन सुरंग के मुहाने पर बने स्थानीय देवता बाबा बौखनाग की प्रतिमा के आगे टनल विशेषज्ञ और इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन (आइटीयूएसए) के प्रेसीडेंट अर्नाल्ड डिक्स ने भी रोज सिर नवाया।
इस समूचे हादसे ने जीवन रेखा को अधोरेखित करने के साथ सवालों और चेतावनियों की लाल रेखाएं भी हाई लाइट कर दी हैं। पहला तो यह कि अपेक्षाकृत कच्ची चट्टानों से बने हिमालय के साथ विकास के नाम पर मानवीय छेड़छाड़ कितनी घातक है। और दूसरा यह कि क्या ऐसे संभावित हादसों का पूर्वानुमान लगाते हुए एहतियाती उपाय नहीं किए जाने चाहिए? पर्यावरणविदों का कहना है कि यह हादसा हम सभी के लिए सीखने का एक मौका है।
रोमन दार्शनिक ल्युसियस एनायस सेनेका का वाक्य है- दुनिया में सबसे बहादुर दृष्टि किसी महान व्यक्ति को आपदा से लड़ते हुए देखना है। इसी तरह कन्हैयालाल नंदन की कविता की पंक्ति है- जीवन के साथ थोड़ा-बहुत मृत्यु भी मरती है। इसीलिये मृत्यु जिजीविषा से बहुत डरती है।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)
(मध्यमत)
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