सोशल मीडिया को लेकर चल रही देशव्यापी बहस के बीच इसी मुद्दे से जुड़ा एक मामला सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए पहुंचा है। ममता बैनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की विधायक महुआ मोइत्रा ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सोशल मीडिया कम्युनिकेशन हब बनाए जाने की कोशिशों को कोर्ट में चुनौती दी है।
मोइत्रा की याचिका की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम.खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच कर रही है। सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, ”सोशल मीडिया के कंटेट पर नजर रखने और उसे रेगुलेट करने से ये देश सर्विलेंस स्टेट (निगरानी राज्य) बन जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर अभी कोई अंतिम फैसला नहीं सुनाया है इसलिए अभी यह नहीं कहा जा सकता कि उसका निर्णायक रुख इस मामले में क्या होगा। लेकिन उसने जिन अर्थों में ‘सर्विलेंस स्टेट’ या निगरानी राज्य जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है उसके संकेतों को समझना बहुत जरूरी है।
इस मामले पर बात करने से पहले हमें यह जान लेना होगा कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित यह कदम आखिर है क्या? दरअसल अगला लोकसभा चुनाव नजदीक आते देख भाजपा ने केंद्र में अपनी सरकार के कामकाज पर लोगों के मूड को भांपने के लिए कोशिशें शुरू कर दी हैं।
सरकार चाहती है कि ऐसा कोई मैकेनिज्म विकसित किया जाए जिसमें उसके द्वारा शुरू किए गए विकास कार्यों और जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर नजर रखी जा सके। साथ ही यह भी पता लगाया जा सके कि उन योजनाओं के साथ साथ सरकार के ओवरऑल परफार्मेंस पर लोग क्या सोचते हैं।
इसी कवायद के तहत सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने देश भर के 716 जिलों में सोशल मीडिया एग्जिक्यूटिव नियुक्त करने की योजना बनाई। ये एग्जिक्यूकटिव्स विभिन्न अखबारों के स्थानीय संस्करणों, कैबल चैनलों और लोकल एफएम चैनलों आदि के कंटेंट पर नजर रखेंगे। इसके साथ ही प्रादेशिक स्तर पर हो रहे आयोजनों को लेकर भी डाटा जुटा कर इन सभी का विश्लेषण किया जाएगा।
कोर्ट में महुआ मोइत्रा की ओर से वरिष्ठ वकील एएम सिंघवी ने कहा कि सरकार के इस कदम से गोपनीयता के अधिकार का पूरी तरह से उल्लंघन होगा। उन्होंने इसे मौलिक अधिकारों पर भी हमला बताया। कोर्ट ने मामले पर केंद्र सरकार से दो सप्ताह में जवाब मांगा है।
दरअसल सोशल मीडिया के उपयोग और दुरुपयोग को लेकर कई मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच रहे हैं और ऐसे में यह आशा बंधी है कि अपनी सूचनात्मक उपयोगिता के बावजूद यह मीडिया जिस तरह से भस्मासुर बनता जा रहा है, उस प्रवृत्ति पर भविष्य में कुछ रोक लगाने में मदद अवश्य मिलेगी।
भारत में सबसे ज्यादा प्रचलित सोशल मीडिया प्लेटफार्म वाट्सएप की लाइसेंसिंग पॉलिसी से संबंधित एक और मामला न्यायालय में लंबित है। इसमें भी यह प्रस्ताव रखा गया है कि सर्विस देने वाली कंपनी पहले मैसेज देखेगी और फिर उसे आगे भेजेगी। इसे लेकर भी निजता संबंधी कुछ सवाल उठाए गए हैं।
सूचना प्रसारण मंत्रालय को अपनी योजना के तहत ऐसे टूल्स की दरकार है, जिसके जरिये उसे न्यूज कवरेज के बारे में भी पूर्वानुमान मिल सकें। साथ ही दुनिया भर में विभिन्न चैनलों और अखबारों में चल रहीं ब्रेकिंग न्यूज और हेडलाइंस के द्वारा उनके झुकाव, व्यापार सौदों, निवेशकों, देश की नीतियों, लोगों की भावनाओं और पिछले ट्रेंड्स आदि के बारे में भी पता लगाया जा सके।
मंत्रालय की अपेक्षानुसार यह टूल ऐसा होना चाहिए जिससे अनुमान लगाया जा सके कि इन हेडलाइंस और ब्रेकिंग न्यूज से दुनिया भर के लोगों में क्या धारणा बनेगी। देश के लिए कैसे इस धारणा को सकारात्मक बनाया जा सकता है। कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों के भीतर राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जा सकती है।
सरकार चाहती है कि यह टूल सभी प्रमुख सेवा प्रदाता कंपनियों के डाटा का विश्लेषण करने में सक्षम हो। वह यह भी बताए कि दुनिया के सामने कैसे देश की छवि को सुधारा जा सकता है और सोशल मीडिया अथवा इंटरनेट न्यूज और चर्चाओं को देश के पक्ष में सकारात्मक रूप से कैसे मोड़ा जा सकता है।
दरअसल जब भी सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों की बात उठती है, सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि इस पर लगाम लगाने से अभिव्यक्ति की आजादी पर असर पड़ेगा। धारणा बनाई जाती है कि सरकार लोगों की आवाज को दबाना या उसे सेंसर करना चाहती है। लेकिन हाल के दिनों में सोशल मीडिया के कारण समाज को हुए नुकसान के चलते हुए यह नितांत जरूरी हो गया है कि हम अभिव्यक्ति की आजादी की इस ढाल का दुरुपयोग करना छोड़ें और परिस्थितियों पर वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिव) होकर सोचें।
वाट्सएप पर चली अफवाहों के कारण पिछले दिनों हुई भीड़ हिंसा (मॉब लिंचिंग) की खबरों की आग अभी ठंडी नहीं पड़ी है। ये मीडिया प्लेटफार्म फेक न्यूज के प्रचार प्रसार का अड्डा बनते जा रहे हैं। खुद ट्विटर, फेसबुक और वाट्सएप जैसे प्लेटफार्म्स ने फेक न्यूज के प्रवाह के प्रति गंभीर चिंता जताते हुए इन्हें रोकने के उपायों की घोषणा करते हुए सार्वजनिक विज्ञापन भी दिए हैं।
हालत यह है कि हाल ही में टि्वटर द्वारा चलाए गए फर्जी अकाउंट बंद करने के अभियान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के फॉलोअर्स की संख्या में भारी कमी आई है।
मोदी के फॉलोअर्स में तो तीन लाख तक की कमी आई है। पहले उनके 4 करोड़ 34 लाख फॉलोअर्स थे जो अब घटकर 4 करोड़ 31 लाख रह गए हैं। ट्विटर ने इस अभियान के तहत दुनिया भर में अब तक 7 करोड़ फर्जी अकाउंट डिलीट किए हैं। इससे पता चलता है कि यह समस्या कितनी व्यापक है।
जरूरी है कि ट्विटर की तरह ऐसे हर प्लेटफार्म पर सफाई अभियान चलाया जाए और फर्जी अकाउंट होल्डर्स की पहचान कर उन्हें बाहर फेंका जाए ताकि अभिव्यक्ति के इस मंच पर गंदगी को फैलने से रोका जा सके। अभिव्यक्ति की आजादी और मौलिक अधिकार जैसे शब्द सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक और शासन से लेकर समाज तक सभी को यह ध्यान रखना होगा कि कोई भी अधिकार, कर्तव्य से ऊपर या उससे परे नहीं होता।
अधिकार यदि कर्तव्य रेखा का अतिक्रमण करने लगे तो व्यापक समाज हित में उस पर निगरानी रखना या उस पर चैक लगाया जाना जरूरी है।