अजय बोकिल
संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) से लेकर भारत के बिहार राज्य तक चुनावों में हार के कारणों की व्याख्या या खीज अलग-अलग तरह से उतरती नजर आ रही है। हम दो जुमले बहुत शोर के साथ सुन रहे हैं। ‘जीत को चुराना’ और ‘जनादेश को शासनादेश’ में बदलना। चुनाव नतीजों में गड़बड़ी के आरोप तो अक्सर लगते रहते हैं। खासकर उस स्थिति में जब चुनाव बहुत कांटे की टक्कर के होते हैं तो हारा हुआ पक्ष परिणामों को आसानी से पचा नहीं पाता। इसका अर्थ यह भी नहीं कि उसके सारे आरोप रद्दी की टोकरी में डालने लायक ही होते हैं, उनमें कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन जनता उससे ज्यादा प्रभावित होती है, ऐसा नहीं लगता।
अमेरिका में चुनाव हार चुके रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो अभी भी सच को स्वीकार नहीं पा रहे हैं। ट्रंप ने डेमोक्रेटिक पार्टी के विजेता प्रत्याशी जो बाइडेन पर आरोप लगाया कि उन्होंने मेरी जीत चुरा ली है। उधर बिहार में भी चुनाव हारे महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने एक इंटरव्यू में कहा कि हमारी जीत तय थी कि लेकिन चुनाव आयोग ने हमें हरवा दिया। यही नहीं, महागठबंधन में शामिल कांग्रेस पार्टी के चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी नेतृत्व पर बाहर और भीतर से हमले शुरू हो गए हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने मार्के की बात कही कि हमने हार को नियति समझ लिया है तो मध्यप्रदेश में 28 सीटों पर उपचुनाव में कांग्रेस की बड़ी पराजय के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता सांसद दिग्विजयसिंह ने कहा कहा कि यह लोकतंत्र पर नोटतंत्र की विजय है।
अगर अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की ही बात करें तो वहां निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस तरह की कपड़े फाड़ हरकतें कर रहे हैं, वह वाकई हैरान करने वाला है। उन्होंने विजयी प्रत्याशी जो बाइडेन पर आरोप लगाया कि उन्होंने जीत ‘चुरा’ ली। ट्रंप का इल्जाम है कि वोटों की गिनती में धांधली हुई। फर्जीवाड़ा हुआ। यानी उनके समर्थकों के वोट खारिज कर दिए गए। अगर ऐसा न होता तो ट्रंप की जीत तय थी। नतीजे पूरी तरह घोषित होने के बाद भी ट्रंप समर्थकों ने सड़कों पर भारी हंगामा किया। इससे एक बात समझ आती है कि अमेरिका की तुलना में हमारे यहां चुनावी हार को स्वीकारने की परंपरा ज्यादा शालीन रही है। ट्रंप के संदर्भ में देखें तो अगर इन्हीं कथित धांधलियों के बाद वो जीत जाते तो उनकी जीत ‘चुराई’ हुई होने की जगह ‘इनाम’ के रूप में होती।
बिहार में भी लगता है कि महागठबंधन अपनी हार पचा नहीं पा रहा है। हार के कारणों की सर्चिंग जारी है, लेकिन दूसरों के सिर पर ठीकरे फो़ड़कर। तेजस्वी यादव ने इसका ठीकरा चुनाव आयोग पर यह कह कर फोड़ा कि 20 सीटों पर हम मात्र 200 वोटों से भी कम अंतर से हारे। क्योंकि डाक मत पत्रों की गिनती में गड़बड़ी की गई। इन मतपत्रों की गणना रात में क्यों की गई? हमने शिकायत भी की, लेकिन चुनाव आयोग ने उसे अनसुना किया। यानी इन सीटों पर चुनाव अधिकारियों ने राजग को जितवा दिया।
इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं कि एक तो मतपत्रों की गिनती में गड़बड़ी आसान है। दूसरी तरफ हारी हुई पार्टी ईवीएम में भी गड़बड़ी के आरोप लगा रही है। फिर सही क्या है? जो लोग मतपत्रों से वोटिंग कराना ज्यादा सुरक्षित मानते हैं, उन्हें ट्रंप के आरोपों पर भी ध्यान देना चाहिए। अमेरिका में पोस्टल बैलेट से वोटिंग होती है। वहां इन वोटों और ऑन लाइन वोटों की गिनती में भी गड़बड़ी के आरोप ट्रंप ने लगाए हैं। ट्रंप समर्थकों ने एक नारा दिया है ‘स्टॉप द स्टील’ यानी चोरी करना बंद करो! ट्रंप ने एक और आरोप लगाया कि चुनाव में गड़बडी की वजह वोटों की गिनती का काम उस वामपंथी कंपनी को देना है, जिसकी प्रतिष्ठा खराब है। उन्होंने दावा किया कि यदि वैध (लीगल) वोटों की गिनती हो तो मैं ही जीतूंगा।
इधर मध्यप्रदेश में 28 में से 19 विधानसभा सीटों पर हार के बाद कांग्रेस ने कहा कि यह धन तंत्र की जीत है। जो नतीजे आए या जनता ने जो फैसला सुनाया, उसने कांग्रेस और भाजपा के चुनाव पूर्व आंतरिक सर्वे की पोल भी खोल कर रख दी। वैसे ऐसे सर्वेक्षणों की प्रामाणिकता संदिग्ध ही रहती है। लेकिन पलट कर यह जानना दिलचस्प है कि कांग्रेस के आंतरिक सर्वे में 28 में से 25 सीटों पर पार्टी की जीत पक्की मानी गई थी, क्योंकि कांग्रेस के मुताबिक इन सीटों पर ‘दलबदलू’ चुनाव लड़ रहे थे और जनता इनको उप चुनावों में सबक सिखाने के लिए उधार बैठी हुई थी।
उधर उपचुनाव पूर्व भाजपा के आंतरिक सर्वे में कहा गया था कि बीजेपी के 27 ( एक सीट बाद में और बढ़ गई) सीटों में से सिर्फ 7 सीटों पर जीतने की संभावना है। लेकिन वास्तविक नतीजे ठीक उलट आए। कांग्रेस 19 सीटों पर हारी और भाजपा 19 पर जीती। हालांकि बीजेपी के आंतरिक सर्वे की एक बात काफी हद तक सही निकली कि ग्वालियर चंबल संभाग की अधिकांश सीटों पर पार्टी की स्थिति कमजोर है। लेकिन नतीजों से समझा जा सकता है कि किस पार्टी का सर्वे ज्यादा जमीनी और किसका हवाई था।
दरअसल लोकतंत्र में चुनावशास्त्र की नैतिकता और अनैतिकता अंतिम हार-जीत से तय होती है। मतों की गणना और जनादेश से निर्धारित होती है। यहां ‘जो जीता वही सिकंदर‘ होता है तो हारे के खाते में सिर्फ हरिनाम ही बचता है। चुनाव में जीत का ताज (येन केन प्रकारेण ही सही) जिसके सिर रखा जाता है, उसके चाल चरित्र और नीयत को पवित्र मान लिया जाता है। कोई यह सवाल नहीं खड़ा करता कि भई हमने यह चुनाव जीता को इसके पीछे असल कारण क्या है? जनता का आशीर्वाद या फिर साम दाम दंड भेद का हथकंडावाद?
अर्थात जीत का परवाना परमेश्वर की पाती के रूप में लिया जाता है तो हार की होम डिलीवरी में मिले खाली डिब्बे को भी बजा बजाकर देखा जाता है कि ऐसा हुआ तो किस कारण? इस आत्मविश्लेषण में खुद की गलती का बटन कोई दबाना नहीं चाहता। कहने का आशय ये कि चुनाव में हार के कारण और उनकी नई-नई व्याख्याओं से हम रूबरू हो रहे हैं। अभी बिहार में राजद ने राजग की जीत की एक नई परिभाषा पेश की है। महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने ट्वीट किया कि वो नीतीश कुमार शपथ ग्रहण समारोह को बहिष्कार कर रहे हैं, क्योंकि ‘जनादेश’ को ‘शासनादेश’ में बदल दिया गया है। यानी जनता तो हमें (महागठबंधन को) जिताना चाहती थी, लेकिन प्रशासन ने राजग के सिर जीत का सेहरा बांध दिया है। हालांकि वो इस सवाल पर चुप हैं कि ‘शासनादेश’ के रहते 110 सीटें भी वो कैसे जीत गए?
इसका अर्थ यह नहीं कि चुनाव लड़ना कोई पवित्र नैतिक अनुष्ठान है और मिथ्याचार के लिए इसमें कोई गुंजाइश नहीं है। खासकर तब कि जब चुनाव लड़ना मैनेजमेंट में तब्दील हो गया है, उस स्थिति में चुनाव लड़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण उसे ‘जीतना’ हो गया है। बीजेपी ने इसमें महारत हासिल कर ली है, जबकि कांग्रेस अपने उन्हीं पिटे हुए तरीकों से चुनाव लड़ती है। लेकिन यह मैनेजमेंट भी तभी काम करता है, जब आपमें जनभावना की नब्ज सही पहचानने की कूवत हो। लोकमानस के ऑक्सीमीटर पर गहराई से नजर हो। केवल नेताओं की रीडिंग और चश्मे के भरोसे कोई भी लड़ा गया चुनाव जीत की इबारत नहीं लिख सकता।