बिछोह : समाज सौहार्द से ही चल सकता है

होशंगाबाद के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं राजीव दुबे।  उनकी खासियत है कि वो समाज में तात्कालिक रूप से घटित हो रही घटनाओं को ध्यान में रखकर कहानी लेखन भी करते हैं।  वो अपने मित्रों सहित मुझे भी शेयर करते हैं। इस बार जो कहानी उन्होंने लिख भेजी है, उसमें उनकी अनुमति से केवल एक जगह कहानी के एक पात्र की उपस्थिति को ठीक किया है, बाकी पूरी कहानी ज्यों की त्यों बिना अल्पविराम, पूर्णविराम आदि को छेड़े शेयर कर रहा हूँ-

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सिस्टर जी! डॉक्टर साहब ने क्या कहा बाबू जी की तबीयत के बारे में। ऐसा सरला ने सिस्टर से पूछा। अम्मा जी बड़े डॉक्टर साहब सुबह राउंड पर आएंगे तो वो बताएँगे। सिस्टर ने सरला को बताया। सिस्टर जी तुम भी तो बहुत अनुभवी हो तुम ही बता दो कोई चिंता की बात तो नहीं है। सरला ने फिर सिस्टर से पूछा। अम्मा हम नहीं बता सकते कुछ। डॉक्टर साहब ही बताएंगे, यदि हम कुछ कहें तो हमको डांट पड़ जाती है, सिस्टर ने सरला को कहा। कोई बात नहीं सिस्टर जी, तुम मेरी बेटी जैसी हो इसलिए मैं पूछ रही हूँ। जी अम्मा जी, हम भी आप को अम्मा ही मानते हैं। पर क्या करें। चलो कोई नी, नर्मदा मैया सब ठीक करेगी। ऐसा कह कर सरला ने खुद को ही दिलासा दिया।

सरला मेरी धर्मपत्नी, लगभग 58 साल की हो गई। मैं गंभीर बीमारी के चलते हॉस्पिटल में हूँ, मेरी भी उम्र कोई 65 वर्ष है। मुझे लगभग एक माह पहले शुगर बढ़ने के कारण सायलेंट अटैक आया था, इस कारण हॉस्पिटल में हूँ। पिछले कुछ दिनों से मेरे शरीर के विभिन्न अंगों ने काम करना लगभग बंद ही कर दिया है। आंखों की रोशनी भी जाती रही। आंखें खुलना भी दूभर है। बेचारी सरला इस उम्र में भी अपनी परवाह किए बिना मेरी देख रेख में लगी है।

सरला की बेचैनी उसकी नर्स से हुई बात में साफ दिख रही थी। मैं सरला को लेकर खुद बहुत चिंतित हूँ पर विडम्बना देखिये कि मैं अपना ख्याल खुद नहीं रख पा रहा हूँ। मैंने सरला को आवाज दी ‘गुल्‍लन’… वास्तव में गुल्‍लन मेरी बड़ी बेटी का नाम है, दुर्भाग्य से दो वर्ष पूर्व कार एक्सिडेंट में दामाद जी और गुल्‍लन गुजर चुके हैं। उसके विवाह को भी  24 साल से ज्यादा हो गए, पर गुल्‍लन का नाम हम पति पत्नी के संवाद का सहारा ही रहा है। मैंने पुनः सरला को पुकारा गुल्‍लन।

थकान की वजह से शायद सरला की झपकी लग गई थी। इस बार उसने मेरी आवाज सुन ली और बोली क्या कह रहे हो आप। मैंने कहा अरे तू इतनी चिंता क्यो कर रई हे। मुझे कुछ नई होगा। वो बोली हाँ मैं तो नर्मदा मैया को चूनर चढ़ाउंगी, तुम बस ठीक हो जाओ। मैंने कहा अपन दोनों चलेंगे और विभोर और अनुष्का को भी बच्चों के साथ बुलाकर चूनर चढ़ाएंगे। हाँ, ठीक है, अब ज्यादा परेशान मत हो, पहले तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे।

सरला ऐसा कहकर मुझे बोलने में होने वाली कठिनाई को कम करना चाहती थी। ठीक है, मैंने कहा और सरला से पूछा क्यों मेरा सिर दबा दे रई क्या। वास्तव में मेरा सिर दर्द नहीं कर रहा था लेकिन मुझे सरला के अपनत्व भरे हाथ का स्पर्श जीने की ताकत देता था, इस कारण मैंने उससे आग्रह किया।   सरला ने भी बिना समय गंवाए मेरे मस्तक पर हाथ से थपकी देना शुरू किया।

आज सरला में मुझे माँ भी महसूस हुई। मैंने पूछा विभोर अमेरिका से कब आ रहा है। एक दो दिन में आ जाएगा, सरला ने बताया। सरला के हाथों की थपकी मुझे गहरी नींद में पहुंचा रही थी। मैं सोच रहा था कि क्या यह सरला के हाथों की थपकी का प्रभाव है या शरीर से साँसों का बंधन समाप्त हो रहा है।

कुछ समय में मैं यह समझ गया कि अब जीवन का अन्त ही होना है। लेकिन मैं सरला को दुखी नहीं करना चाहता था। मन ही मन सोच रहा था कि प्रभु एक बार मुझे मेरे बेटे विभोर को गले लगाने का मौका दे दे। मैं मेरी बहू के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दे सकूं। नाती को दुलार सकूं और विभोर के सामने प्राण त्याग दूं, जिससे कि सरला को ज्यादा दुखी नहीं होना पड़े।

यही सब सोचते हुए मैं सुबक उठा। सरला ने डपटा अरे ये क्या कर रहे हो। बच्चे हो क्या। सरला की डांट मुझे भली सी लग रही थी। वह खुद भी भाव विह्वल थी, पर उसने मुझे दिलासा दिया। अरे तुम्हारा विभोर एक दो दिन में आ ही रहा है। मैं तुमको कुछ नहीं होने दूँगी। कह कर सरला ने अपने पल्लू से मेरे आँसू पोंछ दिये। मेरा मन किया सरला के सिर  पर प्रेम से चपत लगा दूँ। जब हम एक दूसरे से खुश होते थे तब मैं ऐसा ही करता था। मैंने सरला को कहा चपत मारना है। वह बोली बस रहने दो।

मैंने बमुश्किल आंखें खोल कर सरला को जी भर कर देखा।   उसकी आंखों से अविरल आँसू बह चले। मेरा जी भी भर आया। अब सरला ने मेरा हाथ पकड़ कर अपने सिर पर चपत मार ली। बोली तुम बहुत जिद्दी हो। मैं फिर से सिसकने लगा वह मेरा सिर दबाती रही।  कुछ देर बाद मैंने फिर सरला को आवाज दी गुल्‍लन ओए गुल्‍लन सो गई क्या। नहीं मैं जग रही हूँ। सरला ने कहा। विभोर आया क्या, मैंने पूछा। बस तुम तो एक ही रट लगाए हो, इस बार सरला झुंझला गई। विदेश कोई यहीं थोड़ी रखा है कि जब मन हुआ आ गए। और इस समय तो कोरोना में वीसा भी नहीं मिल रहा। फ्लाइट भी बंद है। मैंने कहा अच्छा ठीक है सो जा। हमारी बातचीत सुन कर सिस्टर आ गई, बोली बाबूजी सो जाओ बहुत रात हो गई है। हओ, सरला ने जवाब दिया। और सिस्टर ने बत्‍ती बुझा दी। मैं और सरला रात भर बेचैन और दुखी ही रहे।

रात के लगभग 3 या 4 बजे अचानक मेरी साँसे टूटने लगीं। मैंने सरला को आवाज देने की कोशिश की तो जबान ने भी साथ नहीं दिया। मेरी अस्त व्यस्त साँसों की आवाज से सरला अचानक उठ खड़ी हुई, उसने मुझे हिलाया डुलाया। क्यों क्या हो रहा है, उसने पूछा। मेरे शब्द साथ नहीं थे। मैं केवल गुल्‍लन… विभोर… ही बोल पा रहा था।

सिस्टर…सिस्टर… सरला ने आवाज लगाई। सिस्टर दौड़ कर आई उसने मेरी नब्ज देखी जो जाती सी लगी। शरीर ठंडा सा पड़ गया था। मैं अब केवल सरला… सरला… बुदबुदा रहा था। आखिरी समय में वो ही साथ जो थी। वह बहुत घबराई होकर भी हिम्मत से काम ले रही थी। बोली सुनो, ऐ उठो। उठो न। देखो ऐसे नई जाना। मैं अकेली हूँ, विभोर भी बहुत दुखी हो जाएगा। मैं सुन रहा था, तड़प उठा, सरला.. सरला.. हाँ मैं यहीं हूँ। तुम बस हिम्मत मत हारो, सरला बोली।

इस बीच सिस्टर ने बड़े डॉक्टर साहब को बुला लिया। डॉक्टर साहब ने मुझे चैक करने के बाद सिस्टर से पूछा, इनके साथ अम्मा के अलावा और कौन है। सरला ने कहा मेरा बेटा विभोर और इनके दोस्त हुसैन भाई हैं। डॉक्टर साहब ने कहा बेटे विभोर से मेरी बात करा दो अम्मा। सरला ने विभोर को विडियो काल लगाया। पापा.. पापा.. विभोर ने मुझे आवाज दी। मैं शिथिल रहा, पर बेटे विभोर की आवाज सुन कर खुद ब खुद आँसू बह निकले। डॉक्टर साहब मेरे पापा ठीक तो हो जायेंगे न, विभोर ने सुबकते हुए डॉक्टर से पूछा।

विभोर को भावुक देख कर सरला उसे दिलासा दे रही थी। चल चुप हो, पापा एकदम ठीक होंगे, फिर हम भी अमेरिका आएंगे। विभोर बहुत होनहार और माता पिता से स्नेह रखने वाला बेटा है, लेकिन वर्तमान कोरोना काल में विदेश से आना कठिन है, इस कारण वह नहीं आ पाया है। इस बीच डॉक्टर साहब ने मेरे दोस्त हुसैन भाई से कहा- अब ईश्वर का ही सहारा बचा है। हम इन्हें डिस्चार्ज कर देते हैं। घर में जो सेवा हो सके, वह कर लो। और इन्हें बेटे से जरूर मिलवा दो।

हुसैन भाई मेरे बचपन के सहपाठी थे। हमारे परिवार के सदस्य ही थे। हुसैन भाई का बेटा अलताफ़। मेरे बेटे विभोर का दोस्त है। हुसैन भाई ने सरला से कहा, भाभी तुम हिम्मत मत हारना। इस रज्जु (मेरा नाम) को मैं सम्हाल लूँगा। हुसैन मेरे बेड के पास आया। कान मरोड़कर बोला- ओए यारा। कहां जा रहा है। मत जा यार, तुझे मेरी कसम। हुसैन की आवाज सुनकर मैं कुछ बेफिक्र सा हुआ। आखिर मेरा दोस्त जो है, वह सब संभाल लेगा। मैंने हाथ हिलाने की कोशिश की, हुसैन ने मेरा हाथ पकड़ा, बोला- ओए, रज्जु ऐसे मत जाना यार। वह बेजार रोता जा रहा था। मैं सोचने लगा, यह सच्चाई दुनिया को दिखे। आखिर मुसलमान होने मात्र से इन्हें लोग अपने से अलग क्यों समझते हैं। इन्हें आतंकी और कोरोना फैलाने वालों के तौर पर क्यों देखा जाता है? आज हुसैन की भावनाएं भी इंसानी ही हैं।

मैंने हुसैन को कहना चाहा कि भाई तेरी भाभी और भतीजा विभोर तेरे हवाले कर रहा हूँ। मैं बोल नहीं पाया, लेकिन हुसैन समझ गया। बोला रज्जु, तू बिलकुल ठीक होगा। मैं तेरे साथ हूँ। इस बीच एम्बुलेंस आ गई और मुझे हॉस्पिटल से घर वापस भेज दिया गया।

घर में आज बहुत लोग मुझे देखने आए, लेकिन मेरी निगाह विभोर और बहू अनुष्का व नाती को तलाश रही थीं। सरला ने मेरे पास विभोर के जन्म के समय मेरे द्वारा लाया गया प्लास्टिक का गुड्डा रखा। उसका स्पर्श मुझे विभोर की मौजूदगी महसूस कराता रहा। रात को सरला ने कहा, सुनो।  ऐ, सुनो, देखो विभोर और बहू आ गए। मैंने देखने की कोशिश की लेकिन मेरी आंखों में रोशनी नहीं थी। इस बीच मुझे विभोर की आवाज सुनाई दी- पापा! मैं बेचैन हो गया।   अचानक मेरे सीने से विभोर आ लिपटा। मैं पुनः भावविह्वल हो गया, लेकिन वह विभोर नहीं था, अपितु हुसैन का बेटा अलताफ़ और बहू शन्नो मेरे बेटे विभोर और बहू अनुष्का के कपड़े पहन कर, मुझे विभोर के अमेरिका से आने का दिलासा दे रहे थे।

मैं समझ गया की विभोर नहीं आ पाया है। लेकिन हुसैन और अलताफ़, बहू शन्नो और सरला की यह कोशिश मुझे सुखद लगी। हुसैन और अलताफ़ ने मुझे सुकून देने की ईमानदार कोशिश की और इंसानी दोस्ती के रिश्ते का मान बढ़ाया। लेकिन नियति के आगे सब बेमानी है। आखिरी बार मैं बुदबुदाया विभोर… गुल्लन… और मेरी साँसे टूट गईं…।

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दोस्तो, इस कथा में जीवन के उतार चढ़ाव और वृद्ध माता पिता के परस्‍पर स्‍नेह और कठिनाइयों तथा जीविका हेतु विदेश में सेवारत युवाओं की दुविधा और सांप्रदायिक सौहार्द व विश्वास को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। आशा है आप इसे अवश्‍य पसंद करेंगे।

इस कहानी के अंतिम पैराग्राफ में राजीव जी ने जिस भाव को प्रकट किया, उसे आपको समझने के लिए छोड़ रहा हूँइसे कहानी के मूल शीर्षक (बिछोह) के बाद मेरे जोड़े गए शब्दों (समाज आपसी सौहार्द से ही चल सकता है) में छिपे भाव को मानवीय सरोकार के चश्मे से देखिएगा।  

भारतभूषण आर. गाँधी

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