एक कविता- विश्व रंगमंच दिवस पर

गिरीश उपाध्‍याय 
मुखौटे पूछ रहे हैं एक दूसरे से
देखा है कभी अपना असली चेहरा
डोरियां पूछ रही हैं कठपुतलियों से
कभी खुद की मर्जी से नहीं होती
नाचने की इच्छा
आंसू पूछ रहे हैं आंखों से
सच में दुखी होने पर भी
क्या तुम इसी तरह भर आती हो
हो रहा है सवाल होठों से
क्या करते हो तुम, जब होता है
निर्धारित सीमा से ज्यादा
मुसकुराने का मन
भंगिमाएं पूछ रही हैं देह से
अपने बस में कभी पाया है तुमने खुद को
तभी हुआ अट्टहास परदे का
निर्देश खामोशी का
सब हो गए मौन,
स्थिर, जड़वत अपनी जगह
हुई आकाशवाणी
कोई नहीं पूछेगा किसी से
कोई भी सवाल
कोई नहीं देगा किसी को
कोई भी उत्तर
मैं हूं नियंता
सम्मुख और नेपथ्य
दोनों जगह मेरी ही सत्ता
मेरे ही उठने और गिरने से
अस्तित्व है तुम्हारा
मैं ही हूं प्रश्न और मैं ही उत्तर
मैं ही यक्ष हूं इस रंगमंच का…

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