गिरीश उपाध्याय
स्त्री..
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स्त्री त्रिकोण नहीं
वृत्त है
पथ है
प्रदक्षिणा का
घूमती है धुरी पर अपनी
पृथ्वी की तरह
रचती है दिन-रात
स्त्री प्रमेय है जीवन का
जो स्वयंसिद्ध है
स्त्री रेखा है
जो अंकित करती है
मानवता का अस्तित्व
स्त्री चतुर्भुज है
बांध रखी है जिसने
चारों दिशाएं
मत आंकिये उसकी ‘वैल्यू’
‘एक्स’ में
इनफिनिटी है वह, अनंत है
परे है वो
काल और दर के सवालों से
स्त्री बूंद है
भरती है घट
लगातार निसृत होकर
स्त्री स्पर्श है
जो संपूर्ण करता है
सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना को
काया नहीं है वह
आत्मा है… अजर, अमर
स्त्री दृष्टि है
जिसका विस्तार
ब्रह्माण्ड के उस पार
स्त्री ही तत्व है
स्त्री ही सार…