दीपक गौतम
हो आज रंग है री…आज रंग है री।
तन-मन अधिक उमंग हर्षायो।
बृज की होरी कान्हा की पिचकारी,
गोपियन की रंग-रास बरजोरी।
अंगिया-भंगिया संग कान्हा-किशोरी।
मन ललचा गयो मोरा फाग ने हिलोरी।
हो आज रंग है री सखी…आज रंग है री।
सखियां कहें मोसे कहाँ गओ कान्हा,
मैंने कह दयो रंग में सिमट गओ..
भंग में सिमट गओ…
मोरे अंग में लिपट गओ।
बो तो उलझ गओ मोरे गेसुअन में,
हमहुँ अरझ गये कान्हा की अंखियन में…
सखी री बांकी बतियन में…
रास और रसभरी रतियन में।
हो आज रंग है री सखी…आज रंग है री।
फाग सुनत मोरा जिया बौरायो।
जा फगुनहटा ने जी में आग लगायो,
हमसे कही न जाय पीर जौबन की।
कासे कहूं री सखी बतिया बैरी पिया की।
सखियाँ कहें मोसे मैंने करी चोरी…
मैंने हरष के कह दई मोरे मन
बस गओ माखनचोरी।
हो आज रंग है री सखी…आज रंग है री।
मैं तो कान्हा के रंग में रंग गई,
बन गई उसकी किशोरी…
सखी उसकी किशोरी।
और कोई रंग मोहे न सोहे अब,
कान्हा ने रंग दई मोरी अंगिया सारी।
लग गओ फागुन, जी में छायी है मस्ती..
.मन में घुल रही सखी…
ओ री सखी कान्हा की मस्ती…
बांके प्रेम की मिसरी।
हो आज रंग है री सखी.. आज रंग है री।