राकेश अचल
कोरोना महामारी के सर्वाधिक शिकार भारत में क्या टीकाकरण को राष्ट्रीय कार्यक्रम की तरह अमल में नहीं लाया जाना चाहिए? क्या जिस तरह से टीकों को लेकर देश के अलग-अलग राज्यों में काम हो रहा है उसे देखते हुए देश अपनी 18 वर्ष तक की आबादी को एक साथ टीका देकर सुरक्षित बना पायेगा? ये ऐसे ज्वलंत सवाल हैं जिनका उत्तर किसी के पास नहीं है। टीकाकरण को लेकर हर राज्य की ‘अपनी ढपली और अपना राग’ है।
भारत में इस समय हर रोज औसतन तीन से चार हजार लोग कोरोना के कारण मारे जा रहे हैं और हमारी सरकारें अभी तक टीकाकरण का दूसरा और तीसरा तो छोड़िये पहला दौर ही पूरा नहीं कर पायी हैं, क्योंकि इस अभियान में एकरूपता का घोर अभाव है। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाले भारत देश में कोरोना के टीकों के लिए कोई व्यापक राष्ट्रीय नीति न बनाये जाने के कारण ये विसंगतियां सामने आ रही हैं और खमियाजा भुगत रही है देश की निरीह जनता।
एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 90 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका लगाया जाना है। सरकार ने टीका निर्माण से लेकर इसके वितरण और उम्र निर्धारण को लेकर ही कोई स्पष्ट नीति नहीं अपनायी। पहले 60 वर्ष की आयु के लोगों को टीका लगाने का फैसला किया, फिर 45 वर्ष के आयु तक के लिए टीका लगाने का निर्णय कर लिया और अंत में 18 वर्ष तक की आबादी के लिए टीका लगाने की घोषणा कर दी, वो भी टीकों का इंतजाम किये बिना। नतीजा ये है कि 1 मई से शुरू होने वाला टीकाकरण अभियान 5 मई तक भी पूरे देश में शुरू नहीं हो पाया है और जहाँ शुरू भी हुआ है, वहां सांकेतिक ही है। भाजपा शासित मध्यप्रदेश में पहले दिन राजधानी भोपाल में ही मात्र 200 युवाओं को टीके लगाए गए।
देश में ऐसा पहली बार हो रहा है कि किसी महामारी से आतंकित आबादी को बचाने के लिए हमारे पास कोई राष्ट्रीय समेकित नीति नहीं है। जिस सरकार के मन में जैसा आ रहा है वैसा किया जा रहा है। ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि सबको साथ लेकर चलने का भरोसा देने वाली सरकार अपना भरोसा खो चुकी ही, यदि केंद्र सरकार टीकों को लेकर बिहार विधानसभा चुनावों के समय ही राजनीति न करती तो शायद ये नौबत न आती। अब तो टीका खुद राजनीति का शिकार हो चुका है। टीका उत्पादन से लेकर उसके वितरण तक में राजनीति सतह पर दिखाई दे रही है और जनता बेमौत मर रही है।
आपको जानकार हैरानी होगी कि देश में पहली बार वैक्सीन लेने वालों की संख्या करीब 22 लाख है। अगर इसे साप्ताहिक औसत मान लिया जाए, तो अभी भारत को 90 करोड़ जनता तक वैक्सीन की डोज पहुंचाने में 15 महीने और लगेंगे। टीकाकरण के ये आंकड़ें भारत की जनसंख्या और लगातार बढ़ रहे मामलों के लिहाज से संतोषजनक नहीं कहे जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति देखकर तो लगता है कि समय रहते यदि केंद्र सरकार न चेती तो देश में कोरोना से मरने वाले लोगों की संख्या अविश्वसनीय हो जाएगी।
होना तो ये चाहिए था कि सरकार विधानसभा चुनावों में खुद को झोंकने के बजाय अपने आपको टीकाकरण अभियान में झोंकती। बहुत ज्यादा राजनीति आवश्यक थी तो माननीय प्रधानमंत्री जी के नाम से प्रधानमंत्री कोरोना टीकाकरण अभियान की घोषणा कर देती। सभी राज्यों से इस अभियान के लिए बजट लेकर एक राष्ट्रीय कोष बनाती और कम से कम ब्लाक स्तर तक टीकाकरण की व्यवस्था करती। राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान में एक तो टीका एकदम निशुल्क रखा जाता, दूसरे इस अभियान में सभी निजी अस्पतालों को भी शामिल किया जाता। भले ही टीका लगाने के एवज में शासन को निजी अस्पतालों को सेवा शुल्क देना पड़ता। लेकिन इस तरह से न किसी ने सोचा और न इसकी जरूरत समझी।
भारत में कोरोना का टीका लगाने का काम 16 जनवरी से शुरू किया गया था। बीते तीन महीने में अभी तक 45 वर्ष तक के कोई 16 करोड़ लोगों को ही टीका लग पाया है, इस रफ्तार से तो 90 करोड़ की आबादी तक पहुँचने में कितना समय लगेगा आप सोच सकते हैं। यानि जब तक हम आखरी जरूरतमंद तक पहुंचेंगे तब तक डेढ़ साल से ज्यादा का समय गुजर जाएगा। इस बीच कितने लोग अपनी जान से हाथ धो बैठेंगे, कोई नहीं जानता।
आपको मालूम ही होगा कि इस समय भारत में केवल कोविशील्ड और कोवैक्सीन ही आधी-अधूरी उपलब्ध हैं। हाल ही में भारत सरकार ने रूसी वैक्सीन स्पूतनिक V को मंजूरी दी है। लेकिन, यह वैक्सीन भी अगले महीने से पहले उपलब्ध नहीं हो सकेगी। अन्य वैक्सीन को भी भारत में मंजूरी देने की कोशिशें तेज कर दी गई हैं, लेकिन उनके आने में भी समय लग सकता है। इस लिहाज से यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में वैक्सीनेशन की रफ्तार आने वाले समय में धीमी पड़ सकती है। वैक्सीनेशन की गति में कमी का सीधा असर वैक्सीन को लेकर बनाए गए लक्ष्य और समयसीमा पर पड़ेगा।
मजे की बात ये है कि भारत सरकार ने टीकाकरण के लिए 35 हजार करोड़ रुपये का बजट तो निर्धारित कर लिया, लेकिन देश में कोई भी कम्पनी अग्रिम पैसा लेकर भी वैक्सीन देने की स्थिति में नहीं हैं। उलटे वैक्सीन को लेकर मिलने वाली धमकियों से आजिज आकर एक वैक्सीन निर्माता तो अपना बोरी-बिस्तर बांधकर परदेश चला गया।
राज्यों को साथ लेकर चलने के कथित दावे के बावजूद राज्यों और केंद्र सरकार के बीच समन्वय की कमी का ही नतीजा है कि अभी तक देश में 9 फीसदी आबादी को पहली खुराक और 2 फीसदी आबादी को दूसरी खुराक मिल पायी है। अगर आप भारत सरकार के ही आंकड़े देख लें तो आपको हकीकत का पता लग जाएगा। राज्यों में चाहे किसी भी दल की सरकार हो अभी तक टीकाकरण अभियान को गति दे ही नहीं पायी है। भाजपा शासित उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में दशा बंगाल से भी गयी-बीती है। यहाँ एक फीसदी आबादी तक भी वैक्सीन की खुराक नहीं पहुंची है।
टीकाकरण अभियान में सरकार की प्राथमिकताएं भी समय-समय पर बदलीं। सबको टीका देने के बजाय पहले पहल सरकारी कर्मचारियों, स्वास्थ्यकर्मियों और बाद में फ्रंटलाइन कार्य करने वालों जैसे पुलिस, अर्धसैनिक बल, सफाई कर्मचारी और आपदा नियंत्रण कार्यकर्ताओं को टीका लगाने में प्राथमिकता देने का निर्णय लिया गया। चौथे चरण में 45 वर्ष तक की आयु के लोगों को टीके लिए चुना गया और अब कहीं जाकर 18 वर्ष तक के लोगों को टीका लगाने का निर्णय किया गया है। सरकार के पास हर विषय के विशेषज्ञ होते हैं इसलिए आप इस प्राथमिकता पर सवाल खड़े नहीं कर सकते, करेंगे तो आपको राष्ट्रद्रोही बता दिया जाएगा। जबकि हकीकत ये है कि टीकाकरण का समुचित ही नहीं बल्कि सर्वाधिक अनुभव होते हुए भी कोरोना के टीकाकरण अभियान में सरकार ने मुंह की खाई है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि गरीब जनता का वोट कबाड़ने के लिए बूथ लेवल का प्रबंधन करने में दक्ष भाजपा, कांग्रेस और वामपंथियों के अलावा दूसरे राजनीतिक दलों के अनुभवों का लाभ भी इस टीकाकरण अभियान में लिया जाना चाहिए था। आज की तारीख में देश में अनेक हिस्सों में कोरोना के मरीजों को ऑक्सीजन और रेमडेसिविर इंजेक्शन और पलंग देने में डाक्टरों के बजाय नेताओं की चल ही रही है। ऐसे में टीकाकरण अभियान की कामयाबी को लेकर संदेह कभी समाप्त नहीं हो सकता। आज सवाल राजनीति का नहीं देश की जनता की जान बचने का है, इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि कोरोना के टीकाकरण का एक राष्ट्रीय, समेकित और निशुल्क अभियान चलाया जाना चाहिए, इसमें कोटा प्रणाली का इस्तेमाल अविवेकपूर्ण है।
कोविड का टीका लगाने की सुविधा केवल अस्पताल में ही नहीं बल्कि मॉल्स, डाकघरों, बैंकों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों, स्कूलों, कालेजों, सिनेमाघरों, डिपार्टमेंटल स्टोर्स तक में उपलब्ध कराई जाये तब शायद हम इस महामारी पर विजय हासिल कर पाएं। मारामारी से बचने, कोविड अनुशासन का पालन करने के लिए ये उपयोगी साबित हो सकता है। टीकाकरण में सिफारिश को नहीं जरूरत को महत्व दिया जाना चाहिए। इसमें वीआईपी संस्कृति को प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए। अभी यदि टीका खुले बाजार में न लाया जाये तो बेहतर होगा ताकि ‘राजा और रंक’ सभी एक ही तरीके से टीका हासिल कर सकें।(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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