सहकारी बैंकों की सेहत सुधारने आया अध्‍यादेश

डॉ. अजय खेमरिया

केंद्र सरकार ने 24 जून को देश के सभी सहकारी बैंकों को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के नियंत्रण में लाने वाले एक महत्वपूर्ण अध्यादेश को स्वीकृत किया है। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने भी इन बैंकों के फंसे हुए कर्ज को सरफेसी एक्ट के तहत वसूलने के आदेश दिए थे। पीएमसी बैंक में हुए घोटाले के बाद सहकारी क्षेत्र के बैंकिंग सेक्टर में बहुप्रतीक्षित सुधार की दिशा में यह दोनों निर्णय बेहद परिणामोन्मुखी साबित हो सकते है।

देश के करीब 8.6 करोड़ लोगों की 5 लाख करोड़ से ज्यादा की धनराशि इन 1482 शहरी सहकारी बैंकों में जमा है। मूलतः राजनीतिक नियंत्रण में संचालित इन बैंकों के एकल नियंत्रण की फिलहाल कोई मानक व्यवस्था नहीं है। रिजर्व बैंक के लगभग हर गवर्नर ने सहकारी, खासकर शहरी बैंकों को भारत के बैंकिंग सेक्टर के लिए खतरा ही बताया है। नोटबन्दी के दौरान इन बैंकों की संदिग्ध गतिविधियों ने सरकार की विवशता को उजागर करने का काम किया था।

पीएमसी घोटाले के बाद तो सरकार और रिजर्व बैंक दोनों के सामने इनके एकीकृत नियंत्रण के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। इस बीच मुंबई और ठाणे जिलों में कार्यरत  ‘सीकेपी सहकारी बैंक’ में भी तालाबंदी की स्थिति देख रिजर्व बैंक ने इसका लाइसेंस पिछले महीने ही ही रद्द किया है। सीकेपी में 11500 डिपोजिटर के 485 करोड़ रुपए अटक गए हैं।

इसी साल जनवरी में राघवेंद्र सहकारी बैंक बेंगलुरु में भी ऐसी ही परिस्थिति निर्मित हो चुकी है। जाहिर है नया प्रस्तावित कानून देश भर में फैले इन सहकारी बैंकों के नियमन और नियंत्रण की दिशा में काम करेगा। भारत में फिलहाल तीन तरह के सहकारी बैंक कार्यरत हैं, जिनमें 58 राज्य सहकारी बैंक, 370 जिला सहकारी बैंक एवं 1482 अर्बन कॉपरेटिव बैंक को मिलाकर एक बड़ा बैंकिंग नेटवर्क है।

इन बैंकों को लाइसेंस तो बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के तहत आरबीआई देता है, लेकिन इनकी कार्यविधि, उपविधि एवं नियंत्रण राज्यों के रजिस्ट्रार कॉपरेटिव सोसायटी के पास रहता है। स्थानीय राजनीति में सक्रिय लोगों के बीच से चुनकर आया एक संचालक मंडल इन्हें प्रशासित करता है। यही इस बड़े बैंकिंग सेक्टर की सबसे बड़ी कमजोरी है। रिजर्व बैंक के पास इन्हें नियंत्रित करने के लिए कॉमर्शियल बैंकों की तरह कोई मैकेनिज्म नहीं है।

देश के सभी 81 कॉमर्शियल बैंकों की समग्र रिपोर्ट हर सप्ताह आरबीआई को जाती है और कई मामलों में तो यह प्रतिदिन तक होती है। सहकारी बैंकों के मामलों में ठीक उलट स्थिति है, साल में एक बार रिजर्व बैंक इनका निरीक्षण कराता है और वह भी केवल कुछ बुनियादी आर्थिक संव्यवहार, केवाईसी औऱ संचालकों की भूमिका तक सीमित रहता है। नतीजतन इन बैंकों में बड़े पैमाने पर फ्राड होते हैं।

संचालक मंडल के कतिपय दबाव में कार्मिकों की भर्तियां औऱ ब्याज दरें निर्धारित होती हैं। ऋण स्वीकृति में भी बैंकिंग रेगुलेशन की सीमाओं को दरकिनार कर दिया जाता है जैसा कि पीएमसी, सीकेपी, राघवेंद्र बैंक के ताजा मामलों में हुआ है। रिजर्व बैंक की 2017 की सालाना रिपोर्ट में करीब 2000 से अधिक मामले बैंकिंग जालसाजी के सामने आ चुके हैं। इन बैंकों के लेखों में भी कामर्शियल बैंकों की तरह पारदर्शिता का अभाव रहता है। नेटवर्थ और सीआरआर के गलत आंकड़े संधारित किये जाते है।

संचालक मण्डल स्थानीय राजनीतिक लाभ के नजरिये से इनकी कार्यविधि को सीधे प्रभावित करते रहते हैं, इसीलिए नोटबन्दी के दौरान महाराष्ट्र, गुजरात, यूपी, मप्र में गंभीर शिकायतें सामने आई थीं। असल में अर्बन कॉपरेटिव बैंक 1990 के बाद छोटे कारोबारियों के लिए स्थानीय जरूरतों के हिसाब से आरम्भ हुए थे। तथ्य यह है कि अधिकतर अर्बन बैंक सहकारिता के पवित्र उद्देश्य से भटक चुके हैं।

छोटे कारोबारियों के लिए आर्थिक समावेशी सोच के उलट इन बैंकों में समाज के वे लोग ज्यादा धन जमा करते हैं जो कम समय में अधिक ब्याज की चाह रखते हैं। ऋण वितरण के लिए जो मानक अहर्ताएं रिजर्व बैंक तय करता हैं, उनकी अनदेखी कर चिन्हित लोगों को यहां उपकृत किया जाता है। चूंकि इनका कार्यक्षेत्र एक शहर या जिला रहता है इसलिये इनकी गतिविधियों पर कोई विशिष्ट केंद्रीयकृत निगरानी नहीं होती है।

एक दूसरा पक्ष रजिस्ट्रार कॉपरेटिव सोसायटी के हस्तक्षेप और नियंत्रण का है। इस पद पर आईएएस पदस्थ रहते हैं जिन्हें बैंकिंग या वित्तीय क्षेत्र में कोई विशेषज्ञता हासिल नहीं रहती है। रजिस्ट्रार अन्य सरकारी महकमों की तरह ही इन बैंकों के मामलों को डील करते है। राजनीतिक दबाब में अपने यहां प्रस्तुत प्रकरणों को लंबित रखते हैं या बैंक हित के प्रतिकूल निर्णय भी देते हैं।

मोदी सरकार ने पिछले बजट सत्र में ही इस सेक्टर की विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए कानून का मसौदा बनाया था जिसके तहत अब बाकायदा यह अध्यादेश लाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ दिन पहले सरफेसी एक्ट के तहत इन बैंकों को अपनी ऋण वसूली के अधिकार दे दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन बैंकों को मिले बैंकिंग लाइसेंस की परिभाषा के आधार पर इसकी अनुमति देकर अच्छा निर्णय दिया है। अभी तक ऋण वसूली रजिस्ट्रार के बनाये दिशा निर्देशों के अनुसार होती है।

इस बड़े बैंकिंग नेटवर्क को उद्देश्य अनुरूप समावेशी बनाने के लिए सरकार आरआरबी (ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक) की तर्ज पर इनके पुनर्गठन का एक कदम और उठा सकती है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यविधि भी एक लंबे समय तक बुरी तरह गड़बड़ियों का शिकार थी और देश भर में इनका भी कोई नियमन नही था। बाद में सरकार ने सभी बैंकों को आपस में मर्ज कर 45 क्षेत्रीय बैंक बना दिये। बड़े कॉमर्शियल बैंकों को इनके मालिकाना हक देकर मानक परिचालन उपविधियों का निर्माण किया गया।

ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक आज  बेहतर ढंग से काम कर सरकार के वित्तीय समावेशन के लक्ष्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। अर्बन सहकारी बैंकों के मामले में भी ऐसा ही किया जा सकता है। बेहतर होगा राज्य सरकारें भी इन बैंकों के नियंत्रण का राजनीतिक मोह त्याग दें, क्योंकि उनके पास बैंकिंग क्षेत्र के न तो जानकार अफसर हैं न ही सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी से लोग मानक परिचालन को कायम रख सकते हैं।

(लेखक अर्बन सहकारी बैंक के पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा संचालक हैं।)

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