सरयूसुत मिश्रा

हिंदूराष्ट्र की अलख जगाने के लिए देश के कोने-कोने में राम कथा, हनुमान कथा का प्रवचन देने वाले बागेश्वर धाम के कथावाचक पंडित धीरेंद्र शास्त्री कमलनाथ के कंधे पर चढ़कर चुनावी प्रचार की राजनीतिक राम कथा करने छिंदवाड़ा में हैं। कमलनाथ का कथा कराना गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन सियासी लाभ के लिए रामकथा को हिंदूवादी राजनीतिक एजेंडे से मुकाबले के लिए खड़ा करना सेकुलरवादियों की नींद हराम करने के लिए काफी है।

सवाल उठ रहा है कि छिंदवाड़ा के विकास मॉडल को मध्यप्रदेश में लागू करने का दावा करने वाले कमलनाथ का क्या विकास मॉडल से चुनावी जीत का विश्वास उठ गया है? एक हिंदू होने के नाते कमलनाथ की धार्मिक आस्था निश्चित रूप से हिंदूवादी है लेकिन धार्मिक आस्था को चुनावी आस्था के रूप में प्रदर्शित कर राजनीतिक लाभ की कोशिशें कांग्रेस की सेकुलर जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रही हैं।

पंडित धीरेन्द्र शास्त्री छिंदवाड़ा में भी उसी तरह की बात कर रहे हैं जिस तरह की बात वह पूरे देश में हिंदूराष्ट्र और सनातन धर्म को लेकर करते रहे हैं। चुनाव में जीत के लिए हर उस व्यक्ति और मुद्दे को सम्मान देना राजनीति की मजबूरी बन गई है, जिससे चुनाव में एक भी मत को अपने पक्ष में लाने के लिए प्रभावित किया जा सके। धर्मगुरु भी इसी राजनीतिक मजबूरी का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। इन्हीं, धीरेंद्र शास्त्री को लेकर कुछ समय पहले ही कांग्रेस आरोपों की झड़ी लगा रही थी। अब कांग्रेस चुपचाप धीरेंद्र शास्त्री की रामकथा को चुनावी सफलता की कथा के रूप में मानते हुए लड्डू बांट कर रही है।

कमलनाथ की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि वह जो कुछ करना चाहते हैं, अपनी मर्जी से उसे हर हालत में करते हैं। अपनी मर्जी के रास्ते में आने वाले किसी भी रोड़े को वह कभी बर्दाश्त नहीं करते। धर्मगुरुओं की कथाएं राजनीतिक लोगों द्वारा कोई पहली बार नहीं कराई जा रही हैं। अक्सर विभिन्न दलों के नेता ऐसी धार्मिक कथाएं अपनी छवि हिंदूवादी के रूप में स्थापित करने के लिए कराते रहे हैं। कमलनाथ जरूर छिंदवाड़ा में ऐसे नेता के रूप में नहीं देखे जा रहे थे जो विकास की अपनी छवि को छोड़ते हुए हिंदूवादी छवि को आगे बढ़ाएं।

भारतीय राजनीति में अब शायद हिंदुत्व की राजनीति से खुद को अलग दिखाकर अपना राजनीतिक वजूद लंबे समय तक बनाए रखना बेहद मुश्किल सा दिखने लगा है। बीजेपी ने कांग्रेस की हिंदूविरोधी नीतियों को ही जनमानस में सधे हुए कदमों से आगे बढ़ाते हुए ऐसा राजनीतिक वातावरण बनाने में सफलता हासिल की है। अब प्रत्येक राजनेता को बीजेपी द्वारा गढ़े गए राजनीतिक रास्ते पर चलने को मजबूर होना पड़ रहा है।

भोपाल में पिछले लोकसभा चुनाव के समय मिर्ची बाबा द्वारा हजारों साधु भेष वाले लोगों के साथ किया गया ‘मिर्ची यज्ञ’ बहुत चर्चित हुआ था। आजकल मिर्ची बाबा जेल में हैं और इस यज्ञ का राजनीतिक लाभ भी कांग्रेस को नहीं मिल पाया था। राजनीति विचारों का ही द्वन्द है। कांग्रेस सेकुलर विचारधारा को अपना आधार बताती रही है। कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर और राज्यों में नेतृत्व अधिकांश समय हिंदू नेताओं के ही हाथ में रहा है लेकिन उन नेताओं ने अपनी हिंदू आस्था को राजनीतिक आस्था के रूप में पेश करने से हमेशा परहेज किया।

अब यह एक राजनीतिक मजबूरी भी कही जा सकती है क्योंकि मुस्लिम वोट बैंक, हिंदुत्व की राजनीति के समर्थक राजनीतिक दल को वोट करने से दूर रहता है। शायद इसीलिए बीजेपी मुस्लिम वोट बैंक की स्वाभाविक दावेदार नहीं मानी जाती है। देश में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति पर ही अपने जनाधार को खड़ा किए हुए हैं।

बीजेपी के कारण देश में आए राजनीतिक बदलाव के कारण ही अब सभी दलों के नेता रोजा अफ्तारी छोड़कर हिंदू धर्म गुरुओं की कथाएं कराने में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं। कोई भी श्रद्धालु रामकथा या भागवत कथा कराने का जब पुण्य प्रयास करता है तो उसकी समाज में वाहवाही होती है। राजनीतिक राम कथाओं को लेकर समाज में स्पष्ट धारणा बनी हुई है कि राजनेता चुनाव में लाभ के लिए ऐसी कथाओं का दुरुपयोग करते हैं।

जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है मुस्लिम वोट बैंक अभी तक कांग्रेस के पक्ष में मतदान करता रहा है। कांग्रेस मुस्लिम समर्थन के प्रति सुनिश्चित होने के बाद शायद अपना हिंदूवादी चेहरा आगे बढ़ा रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि मुस्लिम मतदाताओं के सामने कांग्रेस के अलावा किसी के साथ जाने का विकल्प ही नहीं है। मुस्लिम समुदाय को अपनी राजनीतिक आस्था के बारे में विचार करने का वक्त आ गया है। जब हिंदूवादी एजेंडे पर सभी दल आगे जा रहे हैं तो फिर किसी एक दल या नेता को थोकबंद मुस्लिम वोट क्यों दिए जाने चाहिए? मुस्लिम समाज ने वोट बैंक की अवधारणा अगर तोड़ दी तो फिर धार्मिक आस्थाओं और राजनीतिक आस्थाओं पर ईमानदारी से अमल होने लगेगा।

मध्‍यप्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस के हिंदूवादी चेहरे के बीच अगले चुनाव की संभावना देखी जा रही है। अब ऐसा लगने लगा है कि चुनाव के नजरिए से कांग्रेस ने अपना सेकुलर चेहरा कम से कम मध्यप्रदेश में तो उतारकर सुरक्षित रख दिया है। ऐसा करने का कांग्रेस शायद इसलिए साहस कर सकी है क्योंकि यहां मुस्लिम वोटों के विभाजन की उसे कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ रही है।

धर्मगुरु पंडित धीरेंद्र शास्त्री को पहले बीजेपी के समर्थक के रूप में देखा जा रहा था। उन्होंने बड़ी चालाकी से अपनी राजनीतिक आस्था को मध्यप्रदेश में दोनों दलों में समान रूप से स्थापित करने में सफलता पाई है। ऐसा कोई दल नहीं है जिसके बड़े नेताओं ने पंडित शास्त्री को अपने कंधे पर बिठाकर जय जयकार न की हो। यह जय-जयकार हिंदुओं में बनी उनकी छवि के राजनीतिक राजनीतिक रूप से भुनाने के इरादे से की जा रही है।

अब ऐसा लगने लगा है कि बिना हिंदुत्ववादी चेहरे को चमकाए, सेकुलर विचारधारा के नाम पर कांग्रेस अपना चुनावी भविष्य उज्‍ज्‍वल मानकर नहीं चल रही है। कमलनाथ ने 2018 में ही इसकी शुरुआत की थी। इसमें उन्हें सफलता भी मिली थी। आने वाले विधानसभा चुनाव में तो उन्हें खुलकर कांग्रेस का हिंदुत्ववादी एजेंडा आगे बढ़ाने की चालें चलते देखा जा सकता है। छिंदवाड़ा के विकास मॉडल के सामने शायद कमलनाथ का हिंदुत्ववादी चुनावी चेहरा ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। लेकिन धार्मिक आस्था का राजनीतिक पाखंड ना तो राजनीतिक विश्वास को मजबूत करेगा और ना ही आत्मबोध को बल प्रदान करेगा।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
(मध्‍यमत)
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