इंजी. बीबीआर गांधी
हमारे महानतम देश में क्या विधायिका और कार्यपालिका वास्तव में सही विकास के प्रति गंभीर है? क्या देश के लोकतंत्र के इन दो बड़े स्तंभों ने अब कान में रुई और आँखों पर पट्टी लगा ली है? यदि ऐसा नहीं है तो, ऐसा होता हुआ क्यों नजर आ रहा है? हाल ही में मीडिया जगत की एक हस्ती का वीडियो देखा जिसमें वो सरकारी जमीनों पर मज़ार और मस्जिदों के साथ सेल्फ़ी लेकर अपने फेसबुक अकाउंट पर पोस्ट करने की अपील करते दिखाई दिए।
अब सवाल ये है कि क्या विधायिका ने या कार्यपालिका ने अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभाया? और जवाब है- बिल्कुल नहीं। यदि निभाया होता तो सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण कैसे होते? कैसे किसी को धर्म या पंथ के नाम पर ऐसे अतिक्रमणों के बारे में कुछ भी कहने की जरूरत पड़ती?
यदि मामले पर गौर किया जाए तो हम पाएंगे कि इस तरह का अतिक्रमण बेरोकटोक हो रहा है, फिर चाहे वह पंथ या धर्म के नाम पर हो, अन्य किसी महापुरुष के नाम पर या फिर कथित सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के नाम पर।
यदि देश की विधायिका और कार्यपालिका आज भी ठान लें तो क्या नहीं हो सकता? इन्हें केवल इतना ही तो करना है कि सड़कों की जो वास्तविक चौड़ाई है उसे पुनर्स्थापित करने के लिए कदम बढ़ाया जाए, तंत्र को निर्देशित किया जाए।
लेकिन ऐसा हो पाएगा यह स्वप्न जैसा ही लगता है। और यदि लोकतंत्र के ये दोनों जिम्मेदार स्तंभ अन्यान्य कारणों से आंख मूंदे बैठे हैं तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला स्तंभ गांधी जी का बंदर क्यों बना हुआ है?