जयंत तोमर
इस तरह के अखबारों को हम फिर भी पढ़ते रहते हैं। आप पूछेंगे कि किस तरह के? उत्तर है- वे अखबार जो सिर्फ अपने कारोबार के हिसाब से समाज के ‘गौरवों’ को चिह्नित करने का अधिकार हथिया लेना चाहते हैं। बिना कोई जूरी गठित किये। बिना तांबा मिलाये सोने का मुकुट नहीं बनाया जाता। अखबार इसके ठीक उलट तांबे के ढेर में एक कण सोना मिलाते हैं। बिल्डरों से आयोजनों का खर्चा पानी लेंगे फिर लिखेंगें ‘पावर्ड बाई … बिल्डर।‘

बिल्डर भी समाज का ही अंग होते हैं। वे भी बेहतर मनुष्य हो ही सकते हैं। दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार ‘नोबल पुरस्कार’ की स्थापना तो डायनामाइट जैसे विस्फोटक के आविष्कारक ने की थी। और लेखक-दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र जैसे लोग भी हुए जिन्होंने तीन-तीन बार नोबल पुरस्कार ठुकराया और एक बोरा आलू से उसकी तुलना की।

इसलिए किसी बिल्डर का किसी अखबार के आयोजन को सहारा देने में कोई वितंडा खड़ा करने की बात नहीं है। लेकिन यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि अखबार ने जिन लोगों को लाखों लोगों के बीच से चुनकर ‘गौरव’ घोषित किया है उसके निर्णायक दल के सदस्य कौन कौन हैं और वे कितने प्रामाणिक और विश्वसनीय हैं।

कोई भी अखबार, प्रकाशन या मीडिया समूह इस मामले में पारदर्शिता नहीं बरतना चाहता। इसीलिए अखबार उन्हें ‘गौरव’ घोषित कर देता है, जिन्होंने उसे नियमित रूप से विज्ञापन दिये हैं और भविष्य में देने की सम्भावना है। कुल मिलाकर यह ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे’ का खेल है। इस खेल पर सवाल न उठें इस लिए समाज में काम कर रहे एक-दो ठीकठाक लोगों को गौरवों में शामिल कर लेते हैं। ये प्रामाणिक लोग भी यह पूछना जरूरी नहीं समझते कि उनके साथ और किनको ‘गौरव’ के रूप में सम्मानित किया जायेगा, या किनके हाथों सम्मानित किया जायेगा।

अखबार ‘गौरवों’ को सम्मानित करने के लिए सरकार में बैठे किसी को आग्रह करते हैं कि ‘करकमलों’ से सम्मान प्रदान करने पधारें। ‘परमभट्टारक राजपुरुष’ भी नहीं पूछते कि जिन्हें गौरव घोषित किया गया है उनमें कोई कवि, लेखक, रचनाकार, कलाकार, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, शिक्षाविद, खिलाड़ी, पर्यावरण-प्रेमी, सामाजिक कार्यकर्ता है कि नहीं। अखबार के ‘गौरवों’ में इन्हें स्थान नहीं मिलता।

एक समय ऐसा भी था जब तीन-तीन हजार रुपये में अखबार किसी को भी अपनी-अपनी जाति का ‘गौरव’ घोषित कर देते थे। यह समझ पाना कठिन है कि ‘गौरवों’ को प्रामाणिक लोगों द्वारा चिह्नित करने में व किसी भी सभागार में उन्हें सम्मानित कर देने में अखबारों को क्या दिक्कत आती है। इसमें खर्चा ही कितना है। लेकिन अगर ठगी के माल में से ही अखबार को अपना हिस्सा लेना हो तो तब तो कोई बात ही नहीं, चाहे जैसे गौरव घोषित करें और सम्मानित करें।

सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न तो यह कि इन विषयों पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता। चहुँ ओर चुप्पी छाई है। अखबार को कला का आलोचक पसंद है, साहित्य का आलोचक पसंद है, लेकिन मीडिया पर सद्भावपूर्ण टिप्पणी करने वाला प्रेक्षक-समालोचक बर्दाश्त नहीं।
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)
(मध्यमत)
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