राकेश दुबे
अमृत महोत्सव मनाते हुए भारत को आर्थिक असमानता और जातिवादी दुराग्रहों के चलते सामाजिक न्याय की अवधारणा सिरे नहीं चढ़ सकने जैसी स्थितियों पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। ये परिस्थितियां कमजोर वर्ग को राहत की मांग करती नज़र आ रही हैं। आज भी विभाजन, विस्थापन, प्राकृतिक आपदाओं, दुर्घटनाओं व महामारियों के चलते लाखों आबाद लोग सड़कों पर आ जाते हैं। विश्व की साधारण अवधारणा है कि “किसी देश की तरक्की का एक पैमाना यह भी है उसका कोई नागरिक भूखा न सोये|” सत्ता में कोई भी रहा हो, यह सत्ताधीशों की जवाबदेही है तो प्रतिपक्ष पर निगहबानी जिम्मेदारी है।
अच्छी स्थिति तो यह है कि हर हाथ को काम मिले और व्यक्ति को किसी राहत योजना का मोहताज न होना पड़े। साल-दर-साल आने वाली प्राकृतिक आपदाएं बाढ़, सूखा व अन्य प्रकोप गरीबों की संख्या में इजाफा करते हैं। यही वजह है कि अपने भरण-पोषण के दायित्व का निर्वहन न कर सकने वालों को सरकारी मदद की दरकार होती है। जो सरकारों की संवैधानिक बाध्यता भी है।
कमोबेश इसी दायित्व के निर्वहन हेतु देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का क्रियान्वयन हुआ। खाद्य सुरक्षा योजना के तहत प्रत्येक निर्धन व्यक्ति को हर माह पांच किलो अनाज मुफ्त मुहैया कराने की व्यवस्था की गई, तो दूसरी ओर अत्यधिक निर्धन परिवारों के भरण-पोषण के लिये बनी अंत्योदय योजना के अंतर्गत प्रत्येक परिवार को पैंतीस किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई।
लेकिन जहां खाद्य सुरक्षा के तहत दिये जाने वाले अनाज के लिये प्रतीकात्मक कीमत देनी पड़ती थी, वहीं अंत्योदय योजना में दिये जाने वाला अनाज मुफ्त ही दिया जाता है। देशव्यापी कोरोना संकट के बाद जब विषम परिस्थितियों के चलते व्यापक रोजगार संकट पैदा हुआ तो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के जरिये भूख के संकट का समाधान निकालने का प्रयास किया गया। जिसका समय बढ़ाया भी गया। अब सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना को विराम दे दिया है। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना और अंत्योदय योजना के तहत दिये जाने वाले अनाज के वितरण की समय सीमा में एक वर्ष की वृद्धि की गई है। जो मुफ्त मिलेगा।
कहने को कहीं न कहीं सरकार की मंशा है कि कोरोना संकट काल में प्रारंभ प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के बंद होने से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य प्रभावित न हों। भूख और गरीबी भारत में बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी रहा है। यही वजह है कि सरकार कह रही है कि इस योजना का लाभ देश के इक्यासी करोड़ से अधिक लोगों को मिलेगा। इस पर जो भारी-भरकम खर्च आएगा, उसे सरकार वहन करेगी।
यह एक हकीकत है कि कोरोना संकट के चलते लगाये गये प्रतिबंधों व अन्य कारणों से देश में जो रोजगार संकट पैदा हुआ, वह भी अभी कोरोना पूर्व की अवस्था में नहीं पहुंचा है। देश में बेरोजगारी की दर बढ़ी हुई है। वहीं फिर कोरोना संकट को लेकर नई आशंकाएं जन्म ले रही हैं। ऐसे में गरीबी की रेखा के नीचे पहुंचे लोगों को संबल देना जरूरी था। वह भी तब जब विश्व भुखमरी सूचकांक में भारत की स्थिति में गिरावट देखी जाती रही है।
पर दूसरी ओर हकीकत यह भी है कि सरकार रूस-यूक्रेन युद्ध व मंदी के प्रभाव से आर्थिक चुनौती का सामना कर रही है। ऐसे में आधी से अधिक आबादी को मुफ्त अनाज लंबे समय तक उपलब्ध करा पाना मुश्किल ही रहेगा। वह भी तब, जब ग्लोबल वार्मिंग संकट के चलते खाद्यान्न उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ा है। साथ ही कच्चे तेल के दामों में वृद्धि से आयात बढ़ा है और निर्यात में गिरावट आई है। ऐसे में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत देश की पचास प्रतिशत शहरी व 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को अनाज उपलब्ध कराना यह भी संकेत है कि एकांगी विकास के चलते समाज के अंतिम व्यक्ति के जीवन में बदलाव लाने के प्रयास पूरी तरह जमीन पर नहीं उतर सके हैं।
हर हाथ को काम उपलब्ध कराने और सरकारी राशन पर लोगों की निर्भरता कम करने के लिये व्यापक रणनीति बनाने की आवश्यकता है। तभी सही मायनों में देश तरक्की कर पायेगा। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भारत अगले वर्ष तक दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जायेगा।
(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता, सटीकता व तथ्यात्मकता के लिए लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए मध्यमत किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है। यदि लेख पर आपके कोई विचार हों या आपको आपत्ति हो तो हमें जरूर लिखें।-संपादक