अजय बोकिल

गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत कई मायनो में खास है। एक तो यह जीत प्रतिशत के हिसाब से भाजपा को 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली जीत से भी बड़ी है। दूसरा, गुजरातियों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि रोजमर्रा के मुद्दों से भी ज्यादा अहम उनके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा है, तीसरे कांग्रेस राज्य में जनाधार की दृष्टि से अब तक से सबसे निचले स्तर पर चली गई है और चौथा ये कि महज 10 साल पहले वजूद में आई आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन गई है।

हालांकि भाजपा ने इस चुनाव में एक और राज्य हिमाचल प्रदेश खो दिया है, लेकिन हिमाचल के नतीजे उसी परंपरा की पुष्टि हैं, जिसमें हर पांच साल बाद वहां राज बदल जाता है। भाजपा ने इस ‘रिवाज’ को बदलने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही। दमदार रणनीति के अभाव और पार्टी के बागी उम्मीदवारों ने भाजपा के अरमानो पर पानी फेर दिया।

लेकिन इन दो राज्यों के विस चुनाव में भी भाजपा और देश के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव की बहुत ज्यादा अहमियत थी। इसका पहला कारण तो यह है कि गुजरात लगभग तीन दशकों से भाजपा और आरएसएस के हिंदुत्व की अटल प्रयोगशाला बना हुआ है, जिसे वह विकास के माॅडल के रूप में पेश करते आए हैं। साथ ही वह देश के प्रधानमंत्री और हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे नरेन्द्र मोदी का गृह राज्य है। इसीलिए गुजरात हारना भाजपा कभी गवारा नहीं कर सकती। लेकिन इस बार जिस तरह वोटरों ने तुलनात्मक रूप से कम वोटिंग के बाद भी भाजपा की झोली भरी है, वह असाधारण और देश की भावी राजनीति की दिशा तय करने वाली है।

भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में उसकी हालत खराब होने की तमाम खबरों के बावजूद इस चुनाव में न केवल 182 में से 156 सीटें जीतीं बल्कि कुल का 52.51 फीसदी वोट भी हासिल किया। यह पार्टी के उत्तर प्रदेश में 2017 के विस चुनाव में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से भी बेहतर है। वहां भाजपा ने कुल 403 विधानसभा सीटों में 312 यानी 78 फीसदी सीटें जीती थीं, जबकि गुजरात में यह प्रतिशत 85 फीसदी होता है। तब यूपी में भाजपा का वोट शेयर ( प्रचंड विजय के बाद भी) 39.67 फीसदी ही था।

एग्जिट पोल और अन्य स्रोतों से यह संकेत तो मिल रहे थे कि गुजरात में भाजपा सत्ता में लौट रही है। लेकिन तब भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा चुनाव सभाओं में किए गए दावे कि भाजपा इस बार जीत का रिकाॅर्ड बनाएगी, पर कम ही लोगों को भरोसा था। इसलिए भी कि चुनाव पर मोरबी हादसे की छाया थी, विपक्ष बिल्कीस बानो के दुष्कर्मियों को जेल से छोड़ने के फैसले को मुद्दा बना रहा था, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जातिवाद और किसानों की परेशानी जैसे स्थायी मुद्दे तो थे ही। इससे भी बढ़कर यह माना जा रहा था कि गुजरात की जनता अब सत्ता का सारथी बदलना चाहती है। आखिर अच्छे-बुरे अनुभवों के साथ 27 साल कम नहीं होते।

लगता है कि गुजरात का मतदाता ‍दुविधा में था। वो ये कि जमीनी मुद्दों या मुश्किलों के मद्देनजर सत्ता परिवर्तन के लिए वोट करे या‍ फिर गुजराती अस्मिता को ध्यान में रखते हुए भाजपा को फिर से भगवा थमाकर नरेन्द्र मोदी का जलवा कायम रखे। दरसअल मोदी ने हिंदुत्व के साथ-साथ स्वयं को जैसे गुजराती अस्मिता से जोड़ लिया है, वह असाधारण है। वरना पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई भी गुजराती थे और देश के प्रधानमंत्री रहे, लेकिन गुजराती अस्मिता उनके व्यक्तित्व से वैसी चस्पां नहीं हुई, जैसी कि मोदी के साथ है। इसके पहले यह गौरव केवल महात्मा गांधी को मिला है, जो गुजराती, भारतीय और वैश्विक अस्मिता को एक साथ धारण किए हुए थे।

यह भी अहम है ‍कि गुजरात में भाजपा के संदर्भ में सीएम चेहरा कोई खास मायने नहीं रखता था। राज्य के मुख्‍यमंत्री भूपेन्द्र भाई पटेल एक गुमनाम सा चेहरा थे। बतौर सीएम भी उन्होंने खुद को बहुत ‘स्मार्ट मुख्यमंत्री’ के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। वो चुपचाप काम करते रहे। जनता भूपेन्द्र भाई में भी शायद मोदी का चेहरा ही देख रही थी। भाजपा ने पिछले चुनाव में नाराज रहे उन पाटीदार मतदाताओं को भी अपने खेमे में लाने में पूरी ताकत लगा दी, जो सत्ता का समीकरण बदलने की कूवत रखते हैं। इसका नतीजा सामने है।

जानी मानी पत्रकार शीला भट्ट ने चुनाव के पहले अपने एक विश्लेषण में इस बात का खुलासा किया था कि तमाम अंतर्विरोधों के बीच एक आम गुजराती गहरे अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा है। दूसरे तमाम मुद्दों को देखे या फिर मोदी की प्रतिष्ठा को देखे। चुनाव में भाजपा को जिस तरह चौतरफा जीत मिली है, उससे जाहिर है कि गुजरातियों ने मोदी को एक स्वर से समर्थन दिया है, उनके हाथ और मजूबत किए हैं।

इन नतीजों ने 2024 के लोकसभा चुनावो के परिणामों को अभी से रेखांकित कर दिया है। यानी सीटें भले कुछ कम ज्यादा हों, सत्ता का परचम मोदी के हाथ ही रहने वाला है। मुमकिन है कि इन परिणामों के बाद एनडीए छोड़ कर गए दल वापसी के बारे में सोचें। इसी चुनाव में भाजपा ने समान नागरिक संहिता का मुद्दा उछाल कर उसकी चुनावी टेस्टिंग भी कर ली है। तय मानिए कि अगले लोकसभा चुनावों में यह पार्टी का मुख्‍य एजेंडा होगा।

यह सवाल भी उठ रहा है कि गुजरात में भाजपा की इस भारी जीत का पड़ोसी राज्य मप्र में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर क्या असर होगा? क्या यहां भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उनकी टीम एंटी इनकम्बेंसी को मात देकर ताज फिर भाजपा को सौंपेगी अथवा नहीं? बेशक मप्र और गुजरात की परिस्थिति में अंतर है। यहां मोदी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दांव पर नहीं हो सकती, क्योंकि यह उनका गृह राज्य नहीं है। अलबत्ता मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की हो सकती है, लेकिन वो भी पिछले विस चुनाव में पार्टी की पराजय का स्वाद चख चुके हैं। ऐसे में मप्र में भाजपा की सत्ता में वापसी की कुशल रणनीति और एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने पर निर्भर करती है।

गुजरात चुनाव नतीजों का एक अहम मुद्दा भाजपा और संघ द्वारा आदिवासी वोटों को साधने का है। आदिवासी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बनाना एक बड़ा और दूरगामी कदम था। गुजरात विधानसभा में आदिवासियों के लिए 27 सीटें आरक्षित हैं। इनमें से भाजपा ने इस चुनाव में 25 सीटें जीत ली हैं। इस हवा का असर मप्र की आदिवासी सीटों पर भी हो सकता है। मप्र में आदिवासियों के लिए आरक्षित कुल 47 सीटें हैं। इनमें से भी 21 सीटें उस मालवा-निमाड़ क्षेत्र में हैं, जो या तो गुजरात सीमा से या उससे प्रभावित होने वाले इलाकों में हैं। अगर भाजपा इनमें से ज्यादातर सीटें जीत लेती है तो उसे पांचवी बार सत्ता में आने से रोकना मुश्किल होगा।

उधर दिल्ली एमसीडी में हार के बाद हिमाचल प्रदेश गंवाना भाजपा के लिए झटका है। हिमाचल में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में लौट रही है। लेकिन पार्टी की इस जीत को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का नतीजा बताकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने जबरन एक नए विवाद को हवा दे दी है। क्योंकि राहुल गांधी का हिमाचल जाने कोई कार्यक्रम नहीं है। उल्टे गुजरात में भी वो या‍त्रा से छुट्टी लेकर एक दिन चुनाव प्रचार के लिए सूरत गए थे। वहां सूरत सहित जिले की सभी 16 सीटों पर भाजपा जीत गई है। सूरत ग्रामीण की एक सीट पहले उसके पास थी, वह भी कांग्रेस गंवा बैठी है।

समझना मुश्किल है कि अगर खुद कांग्रेसी नेता बार-बार यह कह रहे हैं कि चुनावी राजनीति से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कोई लेना-देना नहीं है तो हिमाचल की जीत का श्रेय राहुल गांधी को देने का क्या मतलब है? अगर श्रेय देना ही है तो हिमाचल की जनता और कांग्रेस के स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं को देना चाहिए। इन बातों का अर्थ यह नहीं कि देश में मुद्दे ही नहीं बचे या फिर चारो तरफ हरा ही हरा है। जनता की समस्याएं तकरीबन जस की तस हैं, लेकिन एक बार फिर चुनाव उन मुद्दों पर सिमट रहे हैं जहां दूसरे जज्बात निर्णायक सिद्ध होते हैं।

गुजरात और दिल्ली में भी कांग्रेस अगर पिटी है तो इसका कारण यह है कि अभी भी पार्टी चुनावों को लेकर बहुत संजीदा नहीं है। पार्टी की अतंर्कलह पर भारत जोड़ो यात्रा भी मरहम नहीं लगा पा रही है। कांग्रेस व दूसरी पार्टियां चुनाव के शुरू में गुजरात में मोदी पर व्यक्तिगत हमले से बच रही थीं, लेकिन प्रचार के आखिरी दौर तक आते-आते वही गलती कर बैठीं, जिससे उन्हें बचना चाहिए था। मोदी की लाख आलोचना की जाए पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मोदी से ज्यादातर हिंदू और खासकर गुजराती अपनी अस्मिता को जोड़कर देखते हैं और यह सिलसिला थमने वाला नहीं है।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
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