राकेश दुबे
दो रिपोर्ट सामने हैं। ये दुनिया की हकीकत बतला रही हैं। पहली रिपोर्ट क्लाइमेट सेंट्रल नामक पर्यावरण से जुडी संस्था की है। यह बताती है कि पिछले एक वर्ष के दौरान तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन से दुनिया की 7.6 अरब यानि 96 प्रतिशत, आबादी प्रभावित हुई है। प्रभाव की तीव्रता किसी क्षेत्र में कम और किसी में अधिक हो सकती है, परन्तु प्रभाव हरेक जगह पड़ा है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय देश और छोटे द्वीपों वाले देश हैं, जिनका ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान लगभग नगण्य है।
दूसरी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित वार्षिक एमिशन गैप रिपोर्ट है, जिसके अनुसार पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से सम्बंधित कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज के 26 वें अधिवेशन के दौरान लगभग हरेक देश ने जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से संबंधित अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को पहले से अधिक सख्त करने का वादा किया था, और इनमें से अधिकतर देशों ने अपने परिवर्तित राष्ट्रीय लक्ष्य को जमा भी करा दिया है, परन्तु परिवर्तित राष्ट्रीय लक्ष्यों में कुछ भी नया नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार नए राष्ट्रीय लक्ष्यों और पुराने लक्ष्यों के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में एक प्रतिशत से भी कम का अंतर होगा। वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में से 75 प्रतिशत से अधिक उत्सर्जन आर्थिक तौर पर सशक्त जी-20 समूह के देशों द्वारा किया जाता है, और यही समूह जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के सन्दर्भ में सबसे अधिक उदासीन भी है। इनमें से हरेक देश पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से सम्बंधित प्रवचन देता है, पर स्वयं कुछ भी नहीं करता।
अमेरिका और यूरोपीय देश जीवाश्म ईंधनों के उपयोग को कम करने की खूब चर्चा करते हैं, पर इन्हीं देशों में स्थित पेट्रोलियम कंपनियों का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है। दुनिया इस शताब्दी के अंत तक तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की चर्चा करती है, घोषणा करती है और तमाम सम्मेलन आयोजित करती है, पर औद्योगिक युग के शुरुआती दौर से अब तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस शताब्दी के अंत में अभी 78 वर्ष शेष हैं।
वैज्ञानिकों का आकलन है कि तापमान बृद्धि को रोकने के सन्दर्भ में दुनिया विफल रही है और यदि तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है, तब सभी देशों को इसे रोकने की योजनाओं में कम से कम 45 प्रतिशत अधिक तेजी लानी पड़ेगी। दुनिया यदि ऐसी योजनाओं को 30 प्रतिशत अधिक तेजी से ख़त्म कर पाती है तब भी तापमान बृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है।
अभी तापमान बृद्धि का जो लक्ष्य तमाम राष्ट्रीय कार्ययोजनाओं में दिखता है, यदि सभी योजनाओं और लक्ष्यों को समय से पूरा कर भी लिया जाए तब भी वर्ष 2100 तक तापमान बृद्धि 2.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जायेगी। तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत कटौती की जरूरत है, जबकि वर्तमान परिस्थितियों में 10 से 20 प्रतिशत की कटौती ही संभव है।
पूरी दुनिया में लॉकडाउन के कारण लगभग सभी गतिविधियां बंद हो गईं थीं तब ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 7 प्रतिशत की कमी आ गयी थी। वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने इसे पर्यावरण के लिए वरदान माना था और आशा व्यक्त की थी कि दुनिया की सरकारें इससे कुछ सबक लेंगीं। इसके विपरीत अगले ही वर्ष दुनिया ने बता दिया कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन नियंत्रण की कोई मंशा नहीं है। वर्ष 2021 में दुनिया ने ग्रीनहाउस गैसों का 52.8 अरब टन के तौर पर रिकॉर्ड उत्सर्जन किया। वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2030 तक हरेक वर्ष ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाकर ही तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जा सकता है, पर वैश्विक गतिविधियां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं बल्कि भारी वृद्धि कर रही हैं।
बुलेटिन ऑफ अमेरिकन मेट्रोलॉजिकल सोसाइटी में प्रकाशित ‘स्टेट ऑफ क्लाइमेट रिपोर्ट’ में बताया गया है कि वर्ष 2021 में वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता के साथ ही महासागरों के सतह की ऊंचाई भी रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गयी। इस रिपोर्ट को अमेरिका के नेशनल ओसेनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वैज्ञानिकों की अगुवाई में 60 देशों के 530 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है।
इसके अनुसार जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि भविष्य की समस्या नहीं है, बल्कि यह वर्तमान की समस्या है और इसका घातक प्रभाव दुनिया के किसी एक हिस्से में नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर ही स्पष्ट हो रहा है। इसका प्रभाव विश्वव्यापी है और यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य यह कि वैश्विक स्तर पर जितनी चर्चा इसके नियंत्रण की होती है, इसका प्रभाव उतना ही बढ़ता जाता है।
(मध्यमत)
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