सरयूसुत मिश्रा
जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग कई बार स्टडी के नाम पर ऐसी बात कह जाते हैं जिससे बड़ी कोई स्टुपिडिटी नहीं हो सकती। बयानों से विवादों में अक्सर राजनेता घिरते हैं लेकिन कभी-कभी सयानी ब्यूरोक्रेसी भी चपेट में आ जाती है।
लाडली लक्ष्मी-2 योजना की शुरुआत के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की उपस्थिति में विभाग के अपर मुख्य सचिव ने ऐसी बात बोल दी जिसका ना कोई आधार है, ना तर्क है और ना ही कोई मर्यादा। एसीएस महोदय अपना भाषण देते हुए कह गए कि ‘हमारी बालिकाएं पीछे क्यों रह जाती हैं इसका कारण बालिकाओं को मां का दूध नहीं पिलाना है’ उनके दिव्य ज्ञान के मुताबिक 2005 में प्रदेश में 15 फीसदी माताएं ही बेटियों को अपना दूध पिलाती थीं आज 42 फीसदी माताएं अपनी बेटियों को दूध पिलाती हैं।
यह महान डाटा उनके ब्यूरोक्रेटिक माइंड में कहां से अवतरित हुआ है? इसका क्या आधार है? इस पर अभी तक उनके द्वारा कोई जानकारी नहीं दी गई है। यह और चिंतनीय है कि अधिकारी महोदय ने यह बात उस मंच पर कही जहां जन-जन के नेता, लाडली लक्ष्मियों के मामा मुख्यमंत्री उपस्थित थे। वे या तो इस बात को सुन नहीं पाए होंगे या ध्यान नहीं दिया होगा लेकिन ऐसी ब्यूरोक्रेटिक दिव्यवाणी पर सरकार का स्पष्टीकरण जरूर आना चाहिए।
महिला राजनेता भी अपर मुख्य सचिव महोदय के बयान पर भड़क गई हैं। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती का कहना है कि हर मां अपनी बेटी को दूध नहीं पिलाती तो सारी महिलाएं जिंदा कैसे रहतीं? महिला बाल विकास विभाग में मंत्री रहीं कुसुम मेहदले और रंजना बघेल ने भी अधिकारी के इस बयान पर नाराजगी जता गंभीर प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
जो डाटा दिया गया है उसका विभाग के पास कोई आधार हो ही नहीं सकता है। इसका क्या पैमाना हो सकता है कि कोई भी मां किस बच्चे को दूध पिला रही है और किसको दूध नहीं पिला रही है? बेटियों के साथ नाइंसाफी ऐतिहासिक तथ्य हो सकती है लेकिन कहीं भी ऐसा तथ्य अब तक नहीं आया है कि लड़कियों को मां दूध ही नहीं पिलाती हो।
मध्यप्रदेश में भ्रूण हत्या पहले बहुत गंभीर स्थिति में थी। अब धीरे-धीरे परिस्थितियां बदली हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में शिशु लिंगानुपात बेहतर होकर वर्ष 2020-21 में 956 पर पहुंच गया है जबकि 2015-16 में यह 927 था। लिंगानुपात में सुधार समाज में आई जागररुकता का योगदान माना जा सकता है। मध्य प्रदेश सरकार ने इस दिशा में प्रयासों को तेज किया था। बेटी बचाओ का एक विस्तृत अभियान प्रदेश में चलाया गया था।
सरकारी सेक्टर में आंकड़ों की बाजीगरी आम बात मानी जाती है। शायद इसी बाजीगरी में महिला बाल विकास के सबसे बड़े अफसर द्वारा ऐसी नासमझी की बात कही गई है। कई बार भूल से कुछ बातें निकल जाती हैं लेकिन अगर कोई गलती हुई है तो उस पर सफाई भी आनी चाहिए। महिला बाल विकास और आंकड़ों का द्वन्द तो आए दिन दिखाई पड़ता है। अभी कुछ दिन पहले ही पोषण आहार की आपूर्ति के संबंध में महालेखाकार द्वारा उठाई गई आपत्तियां प्रकाश में आई थी। इस पर काफी विवाद भी हुआ था।
महालेखाकार की रिपोर्ट में ऐसा पाया गया था कि आंकड़ों में हेरफेर हुआ है। उस समय सरकार द्वारा कहा गया था कि ये पूर्व सरकार के समय के आंकड़े हैं। राजनीतिक बयानबाजी भी हुई थी लेकिन विभाग के प्रमुख अफसर की ओर से न कोई प्रतिक्रिया आई और ना ही सच्चाई बताई गई थी. जो उनकी जिम्मेदारी थी। वास्तविकता क्या है? रिपोर्ट सही है या उनके आंकड़े सही हैं? इस पर उन्हें बोलना चाहिए था लेकिन तब चुप्पी साधे रखी गई।
अपर मुख्य सचिव महोदय जिस महिला बाल विकास विभाग के मुखिया हैं, उस विभाग का दायित्व, विभिन्न विभागों द्वारा महिलाओं व बच्चों के सर्वांगीण विकास से संबंधित योजनाओं में समन्वयक की भूमिका निभाना है। स्वास्थ्य पोषण की स्थिति में सुधार लाना, कुपोषण से बचाना, महिलाओं के पोषण की स्थिति में सुधार, महिलाओं के संवैधानिक हितों की सुरक्षा के साथ सामाजिक कुरीतियों के प्रति जागरुकता, महिलाओं की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए विभागों से समन्वय कर काम करना शामिल है। विभाग के सबसे बड़े अफसर को महिलाओं की और बालिकाओं की इतनी चिंता है तो उन्हें विभाग के दायित्वों को पूरा करने के लिए किए गए काम और नवाचार को सामने रखना चाहिए।
मां का दूध पिलाने के संबंध में अनर्गल टिप्पणी करने वाले अफसर की गिनती कुशल अफसरों में होती रही है। इस टिप्पणी पर उन्हें लेकर हो रही चर्चाओं पर विराम लगाने के लिए आगे आना चाहिए। अगर उनके आंकड़े तथ्य या किसी स्टडी पर आधारित हैं या राज्य सरकार के किसी आंकड़ों पर आधारित हैं तो उन्हें वह सारे तथ्य सार्वजनिक करना चाहिए।
इन आंकड़े को कोई भी विश्वसनीय नहीं मान सकता है। सोशल मीडिया के इस युग में जानकारी के लिए विकिपीडिया जैसे प्लेटफार्म का उपयोग लोग करते हैं। ब्यूरोक्रेसी पीडिया से जब इस तरह के डाटा सामने आते हैं तब आम जनमानस में ब्यूरोक्रेसी के प्रति विश्वास कम होता है। ऐसी स्थिति व्यवस्था के लिए सही नहीं मानी जाती।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)
(मध्यमत)
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