राकेश अचल
सात बार की संसद सदस्य रह चुकीं सुश्री उमा भारती मुझसे एक सप्ताह छोटी हैं इसलिए उनके बारे में लिखते हुए मुझे कभी संकोच नहीं होता। उमा भारती के बारे में लिखते हुए लोग कतराते हैं, कौन ‘आ बैल मोर मार ‘कहे? लेकिन जब उमा भारती दीदी से दीदी मां बनने का उद्घघोष करती हैं तब मुझसे लिखे बिना नहीं रहा जाता।
मेरे शिष्यमित्र रवींद्र जैन ने मुझे जब उमा भारती की नई घोषणा की जानकारी वाट्स अप पर दी तभी से मैं लिखने के लिए आतुर था। उमा भारती के बारे में दुनिया जानती है किंतु नयी पीढ़ी शायद कुछ कम जानती होगी। इसलिए उमा भारती की नई घोषणा के प्रकाश में उनका मूल्यांकन आवश्यक है।
उमा भारती जब सियासत से दूर थीं, तब उनकी वाणी से सचमुच सरस्वती झरती थी। वे साध्वी ही रहतीं तो मुमकिन है कि आज उनकी लोकमान्यता आसमान छू रही होती, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। राजमाता विजया राजे सिंधिया ने पार्टी की जरूरत को ध्यान में रखकर उमा भारती को राजनीति में उतार दिया। उनका भगवा सात्विक स्वरूप भाजपा ने 1984 से लेकर तब तक भुनाया जब तक कि उसका रंग फीका नहीं पड़ गया।
उमा भारती की वर्तमान स्थिति ये है कि वे अब न ‘घर की रहीं, न घाट की’ साध्वी वे रह नहीं सकीं और सियासत ने उन्हें खारिज कर दिया है। उनकी भाग्य रेखा में जो कुछ दर्ज था वो लगभग उन्हें हासिल हो चुका है। ऐसे में उनके सामने अब रूप बदलने के अतिरिक्त कोई विकल्प बचा ही नहीं है। अब वे जो भी कर रही हैं वो आडंबर और पाखंड के इतर कुछ भी नहीं है।
उमा भारती अब दीदी मां बन जाएं या दादी मां इससे उनके भूत, भविष्य और वर्तमान पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। उन्होंने जब संन्यास लिया था तब जो कुछ उन्हें त्यागना था, उसमें से वे कुछ नहीं त्याग सकीं। एक साध्वी को सियासत ने लील लिया। माया, मोह, दंभ, क्रोध उनकी पूंजी बना रहा। कठिन संघर्षों के बाद मप्र में कांग्रेस का वटवृक्ष उखाड़ फेंकने वाली उमा अपने ही बोझ से दब गईं। उन्होंने अपने संतत्व की अनदेखी कर लालकृष्ण आडवाणी जैसे भाजपा के शिखर पुरुष की सार्वजनिक फजीहत की। पार्टी से बगावत की क्योंकि उनका संतत्व सियासत के बोझ के नीचे दब कर मर चुका था।
उमा भारती भले ही आगामी 17 नवंबर से परिवारजनों से सभी तरह के संबंध समाप्त कर विश्व को अपना परिवार बनाने का दावा करें, किंतु उनके इस दावे पर कौन भरोसा करेगा? ‘काठ की हांडी’ आग पर आखिर कितनी बार चढ़ाई जा सकती है? उमा भारती के नाम से भारती हट जाए और वे उमा ‘दीदी मां’ कहलाने लगें इसमें न मुझे आपत्ति है न किसी और को, किंतु बेहतर होता कि वे चौथेपन में अपना नाम बदलने के बजाय भूमिका बदलतीं।
1977 में आनंदमयी मां से दीक्षा लेने वाली उमा भारती ने प्रयाग में जो कुछ हासिल किया था उसे दिल्ली में खो दिया। वे साध्वी होकर भी परिवार से आसक्त रहीं। उनसे न माया छूटी न राम। उन्हें दुनिया ने इमरती देवी की तरह पारिवारिक आयोजनों में नाचते देखा। उन्हें क्रोध में शराब की दूकानों पर ईंट फेंकते देखा गया जो साबित करता है कि वे अपनी दीक्षा से जाने, अजाने विरत हुईं। सच कहूं तो उमा जी में अब ‘साध्वी’ को खोजना कठिन काम है। 1984 में सियासत की वीथियों में उतरीं उमा न उमा रह सकीं, न अपर्णा बन सकीं और पार्वती तो उन्हें बनना ही नहीं था।
उमा जी के इस दावे पर हम और आप यकीन कर भी ले किंतु टीकमगढ़ के लोग नहीं करेंगे कि ‘’उनके परिवार ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे उनका सिर लज्जा से झुके। इसके उलट उन्होंने मेरी राजनीति के कारण बहुत कष्ट उठाए। उन लोगों पर झूठे केस बने। उन्हें जेल भेजा गया। मेरे भतीजे हमेशा सहमे हुए-से एवं चिंतित-से रहे कि उनके किसी कृत्य से मेरी राजनीति न प्रभावित हो जाए। मैं उन पर बोझ बनी रही।‘’
उमा जी को मान लेना चाहिए कि वे अपने परिवार के लिए कभी बोझ नहीं रहीं, परिवार का बोझ उन पर रहा। हालात बदले हैं, अब वे पार्टी के लिए बोझ हैं। एक अरसे से पार्टी में उनकी कोई भूमिका नहीं है। वे छटपटाहट से भरी हैं। उनका साधुत्व खतरे में है। ऐसे में उन्हें पुनः तीस साल पहले के रास्ते पर लौट जाना चाहिए।
आनंदमयी मां की दीक्षा जो काम नहीं कर सकी वो काम अब यदि जैन मुनि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की समझाइश कर दे तो मैं इसे चमत्कार ही मानूंगा। उमा जी अपने नये गुरु के निर्देश पर यदि समस्त निजी संबंधों एवं संबोधनों का परित्याग करके मात्र ‘दीदी मां’ कहलाएं एवं अपने भारती नाम को सार्थक करने के लिए भारत के सभी नागरिकों को अंगीकार कर लें, संपूर्ण विश्व समुदाय को अपना परिवार बना लें तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है। हमें सियासत की भेंट चढी साध्वी उमा नहीं चाहिए, वो चाहे दीदी हो, दीदी मां हो या दादी मां! मैं उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामनाएं व्यक्त करता हूं।
(मध्यमत)
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