राकेश अचल
भारतीय जन मानस के जितने भी आदर्श पुरुष हैं उनमें से अपवादों को छोड़कर अधिकांश ने पापी पेट के लिए नैतिकता और अनैतिक का भेद किए बिना विज्ञापनों के लिए काम किया है। अभिनय के कथित शहंशाह, बादशाह, डान से लेकर सरकार तक माने जाने वाले अमिताभ बच्चन हों या अन्नू कपूर सब इस मायाजाल में उलझे हुए हैं। हाल के दिनों में अन्नू कपूर को मैंने जब एक जुआ खिलाने वाली कंपनी का विज्ञापन करते देखा तो माथा पीट लिया। आम जनता माथा पीटने के अलावा कया कर सकती है? जनता जिन छवियों से सम्मोहित होती है, उसका कहा करने के लिए बिना सोचे-समझे तैयार हो जाती है।
अन्नू कपूर का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं और मेरे जैसे तमाम लोग उसे एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी और जहीन अभिनेता मानते हैं। लगता है बेचारे के पास आजकल फिल्मों में कोई काम नहीं है इसलिए सोशल मीडिया के लिए बनाए गए ‘तीन पत्ती’ नाम के ऑनलाइन जुए का विज्ञापन करने पर मजबूर हैं। तीन पत्ती का विज्ञापन बेरोजगार पीढ़ी को पांच सौ रुपए का गारंटीशुदा और तीन लाख रुपए प्रतिदिन जीतने का आश्वासन देता है। बेरोज़गारी सरकार की समस्या है, जुआ इसका निदान नहीं है।
इस विज्ञापन के लिए अन्नू कपूर जिस तरह से चीख रहे हैं उसे देखकर उनका खोखलापन साफ जाहिर हो जाता है। अन्नू कपूर की तरह फिल्मी दुनिया का शायद ही कोई छोटा, बड़ा और मझला अभिनेता होगा जिसने विज्ञापन में काम न किया हो। एक जमाने में विज्ञापन अभिनय की पहली सीढ़ी समझा जाता था। आज विज्ञापन फिल्मी दुनिया की आखरी सीढ़ी है। अब जब रोजी रोटी खतरे में होती है तो बड़े से बड़ा अभिनेता घटिया से घटिया और अनैतिक विज्ञापनों में काम करने के लिए तैयार हो जाता है।
अभिनेताओं की इस दयनीय दशा पर तरस भी आता है और घृणा भी होती है, लेकिन इस सामाजिक अपराध के लिए आप न किसी को सजा दे सकते हैं और न उन्हें रोक सकते हैं। विज्ञापन की दुनिया में नवरत्न तेल से लेकर टायलेट क्लीनर बेचने का काम करवाने के लिए अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की जरूरत पड़ती है। तम्बाकू, शराब यहां तक कि जनसंख्या नियंत्रण के उपकरण में भी इन्हीं चॉकलेटी चेहरों के जरिए अरबों, खरबों का कारोबार हो रहा है। और जनता ठगी जा रही है।
विज्ञापन की दुनिया में अनैतिक अभिनय के लिए सिर्फ अभिनेता ही नहीं बल्कि क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेलों के शीर्ष खिलाड़ी तक उपलब्ध हैं। ये लोग खेल से कहीं ज्यादा विज्ञापन से कमाते हैं। क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर से लेकर दादा कहे जाने वाले सौरभ गांगुली तक इस दलदल में फंसे हुए हैं। अब अन्नू कपूर और सौरभ गांगुली में कोई फर्क नहीं रह गया है।
अभिनेताओं और खिलाड़ियों के साथ ही अब अदब की दुनिया में काम करने वालों को भी इससे कोई परहेज नहीं रहा। स्वर्गीय जगजीत सिंह, गुलजार और जावेद अख्तर भी यही सामाजिक अपराध कर रहे हैं। करें भी क्यों न बेचारे? इन सबका पापी पेट आम आदमी के पापी पेट से सौ गुना बड़ा जो होता है।
दुर्भाग्य ये है कि हमारे यहां विज्ञापन की दुनिया का नैतिकता या कानून से कोई रिश्ता नहीं है। कोई भी विज्ञापन एजेंसी, किसी भी उत्पाद के लिए कुछ भी कर सकती है। विज्ञापन के जरिए अब तीज त्योहार और संस्कृति भी निशाने पर है। बड़ी कंपनियां ही नहीं अपितु सरकारी प्रतिष्ठानों तक को विज्ञापन के लिए खास व्यक्ति चाहिए। आपको याद होगा कि पेटीएम के विज्ञापन के लिए तो देश के प्रधानमंत्री तक का गलत इस्तेमाल किया जा चुका है।
अमूल, कैडबरी जैसी कितनी संस्थाएं हैं जो कथित रूप से नैतिकता की चादर ओढ़े दिखाई देती है। अब तो विज्ञापनों में लोग सांप्रदायिकता तक सूंघने लगे हैं। ऐसे में कम से कम खुद को प्रगतिशील और नैतिकतावादी बताने वाले महापुरुष अपने गिरेबान में झांकें और घृणित, असामाजिक तथा आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों से अपने आप को दूर रखें।
हकीकत ये है कि अधिकांश विज्ञापन भ्रामक होते हैं। भ्रामक विज्ञापन उपभोक्ता के सूचना, सुरक्षा और चयन के अधिकारों का हनन करते हैं। भ्रामक विज्ञापनों के प्रभाव में आकर उपभोक्ता कई बार ऐसी वस्तुओं एवं सेवाओं का प्रयोग कर बैठता जो उसके स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए घातक हो सकती हैं। इसकी वजह से उसे शारीरिक और मानसिक के साथ-साथ आर्थिक क्षति भी पहुंचती है।
विज्ञापनों में दिखाए जाने वाले दृश्यों का बच्चों के मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विज्ञापनों में दिखाए जाने वाले हिंसक और उत्तेजक दृश्य बच्चों के दिमाग में इस तरह से बैठ जाते हैं, कि वे इसकी नकल करने लगते हैं।
(मध्यमत)
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