राकेश अचल
देश में घृणा संवाद को लेकर सियासत के साथ ही मीडिया के महंत यानि ऐंकर भी आखिरकार निशाने पर आ गए। लोग भले चुप हों लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने घृणास्पद तरीके से अपना काम करने वाले टीवी ऐंकरों की जमकर खिंचाई की है। हालांकि अदालत ने अपना काम अधूरा किया, इस प्रवृत्ति के खिलाफ कार्रवाई की जिम्मेदारी उसी पक्ष को सौंप दी जो खुद इस बीमारी से ग्रस्त है।
‘हेट स्पीच’ को लेकर दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जस्टिस के.एम. जोसेफ ने बड़ी महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। मैं इस बात के लिए जस्टिस जोसफ को सलाम करता हूँ। पूरे देश को सलाम करना चाहिए, क्योंकि जस्टिस जोसफ भले ही इस मामले पर कोई बड़ी राहत न दे पाए, लेकिन उन्होंने एक दुखती हुई रग पर हाथ रखने का स्तुत्य काम तो किया है। जस्टिस जोसफ का कहना है कि-‘’सबसे ज्यादा ‘हेट स्पीच’ मीडिया और सोशल मीडिया पर है, हमारा देश किधर जा रहा है? टीवी ऐंकरों की बड़ी जिम्मेदारी है। टीवी ऐंकर गेस्ट को टाइम तक नहीं देते, ऐसे माहौल में केंद्र चुप क्यों है? एक सख्त नियामक तंत्र स्थापित करने की जरूरत है।‘’ सु्प्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार से दो सप्ताह में जवाब मांगा है।
सरकार इस मामले पर क्या जवाब देगी, ये सब जानते हैं, क्योंकि ये पहला मौक़ा है कि देश में सबसे ज्यादा ‘हेट स्पीच’ सरकार में बैठे लोगों ने ही दिए हैं। दुर्भाग्य ये है कि ऐसे लोगों को सरकार के साथ-साथ अदालत का भी संरक्षण प्राप्त है। नूपुर शर्मा का प्रकरण आपको याद रखना होगा। सरकार को यदि ‘हेट स्पीच’ रोकना होता तो वो खुद अपने लोगों को रोकती। लेकिन ऐसा अभी तक तो नहीं हुआ। सरकार के भीतर और बाहर बैठे लोग आज भी धड़ल्ले से समाज में घृणा, वितृष्णा फ़ैलाने वाले संवाद कर रहे हैं। सोशल मीडिया और टीवी तो एक मंच भर है। असली स्रोत तो सियासी लोग हैं।
जस्टिस जोसफ की इस राय से सबका इत्तफाक होगा कि देश में सियासत ने ‘हेट स्पीच’ को अपनी पूँजी बना लिया है, लेकिन अफ़सोस ये कि इंग्लैंड की तरह भारत में ऐसे कृत्यों को रोकने के लिए कोई इंतजाम नहीं हैं। जस्टिस जोसफ ऐंकरों से उम्मीद करते हैं कि वे नेताओं को बताएं कि-‘’अगर आप गलत करते हैं तो परिणाम भुगतने होंगे। समस्या तब होती है जब आप किसी कार्यक्रम के दौरान किसी व्यक्ति को कुचलते हैं। जब आप टीवी चालू करते हैं तो हमें यही मिलता है। हम इससे जुड़ जाते हैं। हर कोई इस गणतंत्र का है। यह राजनेता हैं जो लाभ उठा रहे हैं। लोकतंत्र के स्तंभ स्वतंत्र माने जाते हैं। टीवी चैनलों को इन सबका शिकार नहीं होना चाहिए।‘’ लेकिन ये कैसे मुमकिन है?
देश में आज जितने भी समाचार माध्यम हैं उनमें से अधिकांश उन हाथों में हैं जो खुद सरकार को अपने हाथों का खिलौना बनाये हुए हैं। ये लोग तो मीडिया का इस्तेमाल सरकार के लिए ही करेंगे। ऐसा करने से उन्हें और सरकार दोनों को फायदा है, जनता के नफे-नुक्सान से किसी का कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए यदि ‘हेट स्पीच’ को रोकना है तो ऐंकरों को ताड़ना देने से कुछ नहीं होने वाला। कार्रवाई तो उनके खिलाफ की जाना चाहिए जिनके हाथों में ऐंकरो का ‘रिमोट’ होता है।
जस्टिस जोसफ की चिंता देश के आम आदमी की चिंता का प्रतिनिधित्व करती है। वे सवाल करते हैं कि-‘’केंद्र चुप क्यों है आगे क्यों नहीं आता? राज्य को एक संस्था के रूप में जीवित रहना चाहिए। केंद्र को पहल करनी चाहिए। एक सख्त नियामक तंत्र स्थापित करें।‘’ इससे पहले चुनाव के दौरान हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने हलफनामा दाखिल किया था और कहा था कि उम्मीदवारों को तब तक प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता जब तक केंद्र ‘हेट स्पीच‘ या ‘घृणा फैलाने’ को परिभाषित नहीं करता। आयोग केवल भारतीय दंड संहिता या जनप्रतिनिधित्व कानून का उपयोग करता है। उसके पास किसी राजनीतिक दल की मान्यता वापस लेने या उसके सदस्यों को अयोग्य घोषित करने का कानूनी अधिकार नहीं है। अगर कोई पार्टी या उसके सदस्य ‘हेट स्पीच’ में लिप्त होते हैं तो उसके पास ‘डी-रजिस्टर’ करने की शक्ति नहीं है।
हम सब जानते हैं कि चुनाव आयोग ने केंद्र के पाले में गेंद डाल दी थी। उसने कहा था कि ‘हेट स्पीच’ और अफवाह फैलाने वाले किसी विशिष्ट कानून के अभाव में, चुनाव आयोग भारतीय दंड संहिता के विभिन्न प्रावधानों को लागू करता है जैसे कि धारा 153 ए- समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम। समय-समय पर एडवाइजरी भी जारी कर पार्टियों से इन सबसे दूर रहने की अपील करते हैं। यह चुनाव आचार संहिता का भी हिस्सा है.
आयोग ने अपने हलफनामे में कहा कि ‘हेट स्पीच’ को लेकर स्पष्ट कानून नहीं है। और मौजूदा दौर में ‘हेट स्पीच’ के जरिए नफरत फैलाने वाले भड़काऊ भाषण या बयान देने वालों पर समुचित कार्रवाई करने में मौजूदा कानून सक्षम नहीं हैं। चुनाव के दौरान हेट स्पीच और अफवाहों को रोकने के लिए आयोग आईपीसी और जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत राजनीतिक दलों समेत अन्य लोगों को सौहार्द बिगाड़ने से रोकने को लेकर काम करता है। लेकिन ‘हेट स्पीच’ और अफवाहों को रोकने के लिए कोई विशिष्ट और निर्धारित कानून होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में समुचित आदेश देना चाहिए क्योंकि, विधि आयोग ने पिछले साल यानी 2017 के मार्च में सौंपी 267वीं रिपोर्ट में यह सुझाव भी दिया है कि आपराधिक कानून में ‘हेट स्पीच’ को लेकर जरूरी संशोधन किए जाने चाहिए। यानि चुनाव आयोग ने मान लिया है कि वो इस मामले में नख-दन्त विहीन है।
मजे की बात ये है कि भड़काऊ और घृणित भाषण (हेट स्पीच) को लेकर भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने याचिका दायर की है, इसमें कथित घृणित और भड़काऊ भाषण पर विधि आयोग की रिपोर्ट को तुरंत लागू करने का निर्देश जारी करने का कोर्ट से अनुरोध किया गया है। उपाध्याय ने ‘हेट स्पीच’ पर विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट को लागू करने की मांग की है। दरअसल, साल 2017 में विधि आयोग ने घृणित एवं भड़काऊ भाषण को परिभाषित किया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर, भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में धारा 153 सी और 505 ए को जोड़ने का सुझाव दिया था।
जाहिर है कि ये मुद्दा भले ही आम जनता से जुड़ा हो लेकिन याचिकाकर्ता इसके जरिये अपनी पार्टी और सरकार के मकसद को ही पूरा करना चाहता है। इस याचिका का मकसद ही मीडिया को नियंत्रित करने के लिए अदालत के हस्तक्षेप से नए औजार हासिल करना है। मुमकिन है कि अदालत की नजर इस छिपे हुए मकसद तक न गयी हो। जो भी है, यदि अदलात देश में घृणा फैलाने वाले तौर-तरीकों पर रोक लगाने के लिए सरकार, सियासी दलों, चुनाव आयोग और मीडिया को रोक पाती है तो इससे बड़ा पुण्य कार्य कोई दूसरा हो नहीं सकता। क्योंकि इस घृणा ने देश के ताने-बाने को जर्जर कर दिया है। (मध्यमत)
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