राकेश अचल
महाराष्ट्रवाले गजब के जुनूनी हैं। महाराष्ट्र का जूनून देखना है, तो एक बार लालबाग जरूर जाइये। इस बार मैं गया और हैरान हूँ कि साबुत कैसे आ गया? लालबाग में मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित और धनवान राजा यानि गणेश जी विराजते हैं। मनुष्य योनि से मुक्त होने के पहले लालबाग जाने के मेरे निर्णय से मेरे परिजन और मित्र सहमत न थे। सबका कहना था कि एक क्विंटल की देह लेकर कैसे घंटों तक संघर्ष कर सकोगे?
सबकी चिंता जायज थी और मेरी नाजायज, लेकिन एक पत्रकार की हर चिंता में से ‘ना’ अपने आप नदारद हो जाता है। मेरा भी होना था, सो हुआ। मैं अपने परिवार के साथ चल पड़ा मुहिम पर। पहले वाशी से कॉटन जीन के लिए लोकल रेल की सवारी की और फिर कदम साहब की बग्घी पर सवार होकर पहुँच गए परेल के चिंचपोकली और शामिल हो गए ऐसी कतार में जो अंतहीन थी। ऊपर से रिमझिम-रिमझिम शुरू हो गयी। कतार में शामिल होना जीवन का एक गंभीर जोखिम था, लेकिन ले लिया।
रास्ते में कतारबद्ध लोगों से सामान्य ज्ञान बढ़त हुए जाना कि जिन लालबाग के राजा से मिलने हम जा रहे हैं, वे दरअसल इलाके के कोली समाज के लोगों की श्रद्धा का उत्पाद हैं। दस दिन तक चलने वाले इस उत्स्व में गणेश जी के मुखदर्शन के लिए आपको कम से कम पांच किलोमीटर और ज्यादा से ज्यादा दस किमी की यात्रा धक्कों के साथ पूरी करना पड़ती है। कुछ किमी तक सामूहिक धक्का-मुक्की होती है, बाद में रास्ता संकरा होने के बाद भीड़ दो कतारों में बंट जाती है। आधुनिक तकनीक के जमाने में जो काम घर बैठे मुमकिन है उसकी अनदेखी कर मुंबई और आसपास के लाखों लोग हर रोज इस धक्का-मुक्की का सामना करते हुए लालबाग के राजा से मिलने जाते हैं।
लालबाग के राजा की स्थापना 1934 में तब हुई जब अंग्रेजों का राज था और लोकमान्य तिलक गणेशोत्सव को जन-जागरण का माध्यम बनाने में जुटे थे। यहां के पूर्व पार्षद श्री कुंवरजी जेठाभाई शाह, डॉ॰ वी. बी. कोरगांवकर और स्थानीय निवासियों के लगातार प्रयासों और समर्थन के बाद, मालक रजबअली तय्यबअली ने बाजार के निर्माण के लिए एक भूखंड देने का फैसला किया। यहा धार्मिक कर्तव्यों के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक मुद्दों पर भी विचार विमर्श किया जाता था।
मुम्बई में गणेश उत्सव के दौरान सभी की नजर प्रसिद्ध ‘लालबाग के राजा’ के ऊपर होती है। इन्हें ‘मन्नतों का गणेश’ भी कहा जाता है। हमारी मन्नत सिर्फ उस प्रतिमा को देखने की थी जिसे लोग राजा के रूप में ही देखना पसंद करते हैं। हम धक्के खाते हुए आगे बढ़ रहे थे, हाफ पेण्ट और टी-शॉर्ट में हमने न जाने कितनी बार स्वेद स्नान कर लिया। इसी बीच तेज वर्षा शुरू हुई तो भगदड़ जैसी स्थिति बन गयी, लेकिन मैं अपनी पत्नी के साथ एक ओट में खड़ा अन्य परिजनों की राह देखता रहा। हम सब तितर-बितर हो चुके थे। जो साहसी थे वे तेज वर्षा में भी आगे बढ़े चले जा रहे थे।
जैसे-तैसे हमारी कतार आगे बढ़ी और एक बड़े से छायादार हाल की लहरों में विलीन हो गयी। इस हाल में भीड़ के नियमन के लिए लोहे के खंभों से ऐसी लम्बी रैलिंग बनाई गयी थी जिसमें आप कम से कम दो घण्टे तो कदमताल करते ही रहते हैं। हम भी यही करते रहे, क्योंकि इस व्यवस्था में सिर्फ आगे जाने का रास्ता है, आप पीछे नहीं लौट सकते। इस कक्ष में एक ही सुविधा थी कि पंखे चल रहे थे, लेकिन पंखे भी हलकान, आखिर कितने लोगों का स्वेद सुखाते। सब चिपर-चिपर हो रहा था लेकिन लालबागा के राजा अभी भी अदृश्य थे।
बहरहाल रात दो बजे हमारी कतार एक ऐसे बाजार की सड़कों पर थी जहाँ से लालबाग के राजा के ऊपर जगमग रोशनी का इंतजाम था। दोनों और दुकानें, प्रसाद, फूल मालाएं बिक रही थीं, लेकिन जो समझदार थे उन्होंने कुछ नहीं खरीदा। हम भी समझदार हैं ही, सो हमने भी कुछ नहीं खरीदा, हालाँकि पत्नी का आग्रह था कि हम कम से कम एक-दो टोपी तो खरीद लें। जैसे-जैसे भीड़ लालबाग के राजा के दरबार के नजदीक पहुँच रही थी वैसे-वैसे उनके जयकारे भी तेज हो रहे थे। हमारे बगल से कुछ ख़ास लोगों की भी एक कतार थी जो हमें चिढ़ाने के लिए काफी थी, लेकिन हम चिढ़े नहीं।
हमें बताया गया कि हम खुशनसीब हैं कि पांच घंटे में ही लालबाग के राजा के दर्शन करने वाले हैं, अन्यथा चतुर्थी के दिन तो बीस घंटे कतारबद्ध रहना पड़ता है। मैं अपने झुण्ड का सबसे उम्रदराज आइटम था, सो सब मेरी फ़िक्र करते रहे। किसी ने पानी पिलाया, किसी ने नीबू पानी। मैं भी बिना किस चूं-चपड़ के अपना एक क्विंटल का जिस्म लिए खरामा-खरामा आगे बढ़ता रहा। हालाँकि हर एक कदम एक जंग के समान था। दर्शन हुए और झपक दर्शन हुए। लेकिन तिरुपति से ज्यादा वक्त मिला। हमने राजा को प्रणाम किया। सामने राजा हो और करोड़ों के जेवर पहने सजाधजा बैठा हो तो लोग श्रद्धा से झुक ही जाते हैं, लेकिन बहुत कम लोग हैं जो प्रतिमा का स्पर्श कर पाते हैं। ये केवल अति विशिष्ट लोगों के नसीब में होता है।
यहां मन्नत मांगने के लिए, मन्नत में रहने वाले देश के सबसे बड़े मालदार अभिनेता और उद्योगपति भी आते हैं। लेकिन छिपते-छिपाते आते हैं। उन्हें स्वेद स्नान नहीं करना पड़ता। वे भी आखिर नव सामंत होते हैं, उनका स्थान हम आम लोगों से ऊंचा होता है। पिछले दो साल से कोरोना के चलते लालबाग के राजा का दरबार भी स्थगित था, लेकिन इस बार कोरोना भीड़ का सब्र टूटने से न जाने कहाँ बह गया। हमने भीड़ में जाने से पूर्व एक बढ़िया वाला मास्क खरीदा, लेकिन उसका इस्तेमाल करना मुमकिन नहीं हुआ। मास्क भी स्वेद स्नान कर चुका था और फिर उसे लगाने से दम भी घुटता सा लगा। जब जान हथेली पर रख ली तब डर कैसा?
लालबाग के राजा की मुख मुद्राएं और आकार-प्रकार हर बार नया होता है। सम-सामयिक भी होता है, किन्तु राजा की राजसी शान बरकरार रहती है। शायद हम भक्तों को देवताओं का सामंती स्वरूप ही भाता है, अन्यथा गणेश जी कहाँ के राजा थे, हम तो नहीं जान पाए। लालबाग के राजा के दर्शन कर हम जैसे-तैसे सजीव, वापस रात के आखरी पहर में घर आ गए और स्नान-ध्यान के बाद कटे पेड़ की तरह अपने बिस्तर पर गिर पड़े।
हमारा सुझाव है कि यदि आप खामखां धर्मभीरु नहीं बनना चाहते, तो ऑनलाइन दर्शन कीजिये, पेटीएम और जिओ से घर बैठे प्रसाद मंगाइये। मेरी तरह भीड़ का हिस्सा मत बनिये। बेहतर हो कि आप वाशी के राजा के दर्शन कर लें। वहां भीड़ भी कम है और प्रतिमा भी भव्य है।
(मध्यमत)
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