प्रणय कुमार
नई शिक्षा नीति लागू करने की घोषणा केंद्र सरकार ने अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में की थी। भिन्न-भिन्न अवसरों पर गाजे-बाजे के साथ वह इसका प्रचार-प्रसार भी करती रही है। शिक्षा-जगत में भी इसे लेकर आशा एवं उत्सुकता का मिश्रित वातावरण रहा है। पर सरकारी तंत्र की लापरवाही एवं अनुत्तरदायी कार्यशैली के कारण उसके सुनियोजित-समयबद्ध क्रियान्वयन को लेकर चिंता एवं आशंकाओं के बादल गहराने लगे हैं। सीबीएसई, एनसीईआरटी, यूजीसी के कामकाज के तौर-तरीकों पर तो पहले से सवाल खड़े किए जाते रहे हैं, अब राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) भी सवालों के घेरे में हैं। शिक्षा एवं परीक्षाओं के आयोजन से जुड़ी इन संस्थाओं में व्यापक फेर-बदल एवं प्रभावी-पारदर्शी-परिणामदायी कार्ययोजना समय की माँग है।
गौरतलब है कि सत्र 2021-22 की परीक्षाओं में सीबीएसई ने ऐसे-ऐसे प्रयोग किए कि दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम में संयुक्त रूप से लगभग 11 प्रतिशत (दसवीं-4.4 प्रतिशत, बारहवीं-6.66 प्रतिशत) की गिरावट दर्ज की गई। प्रश्नों की रचना, परीक्षा पद्धत्ति में बदलाव, परीक्षा के दौरान होने वाले कदाचार, मूल्यांकन में लापरवाही, ज्ञान एवं कौशल की तुलना में अधिक-से-अधिक अंक देने की बढ़ती प्रवृत्ति आदि को लेकर गत वर्ष भी सीबीएसई की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न खड़े किए गए और कुछेक मुद्दों पर उसे सार्वजनिक स्पष्टीकरण भी देना पड़ा। उसके अनुचित एवं अदूरदर्शी निर्णयों के कारण बोर्ड कक्षाओं का पिछला सत्र अनावश्यक रूप से लंबा खिंचा, परीक्षा के परिणाम विलंब से घोषित किए गए, जिसके परिणामस्वरूप सभी प्रतियोगी परीक्षाएँ भी विलंब से संपन्न हुईं। बल्कि स्नातक कोर्सेज में प्रवेश के लिए आयोजित की जा रही ‘कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट’ (सीयूईटी) तो अभी तक जारी है। जबकि पूर्व घोषणा के अनुसार इसे 15 जुलाई से प्रारंभ होकर 20 अगस्त तक संपन्न हो जाना चाहिए था।
यूजीसी द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार अब छठे चरण की परीक्षा 30 अगस्त तक खिंच गई है। दूसरे चरण यानि 4 से 6 अगस्त के मध्य जिन अभ्यर्थियों की परीक्षाएँ स्थगित की गईं, उन्हें भी छठे चरण में ही परीक्षा में बैठने का विकल्प दिया गया है। बार-बार के स्थगन एवं परीक्षा-प्रक्रिया के बहुत लंबा खिंचने के कारण अब वर्तमान अकादमिक सत्र के नियमित रहने की संभावना क्षीण है। माना जा रहा है कि सितंबर के अंत तक तो विभिन्न केंद्रीय विश्वविद्यालयों एवं संबंधित कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया ही संपन्न हो पाएगी। अक्टूबर से पूर्व नियमित कक्षाएँ प्रारंभ होने के कोई आसार नहीं दिख रहे।
संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) के दौरान सामने आए कुप्रबंधन ने राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) की साख़ को बट्टा लगाया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो एनटीए ने परीक्षा-व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए न तो पर्याप्त तैयारी की थी, न ही कोई ठोस एवं विस्तृत कार्ययोजना ही बनाई थी। सहसा यकीन ही नहीं होता कि एक राष्ट्रीय स्तर की एजेंसी से भी ऐसी भयावह त्रुटियाँ या लापरवाही हो सकती है! लापरवाही की फेहरिस्त लंबी है। सीयूईटी की परीक्षा दे रहे बहुत-से अभ्यर्थियों के प्रवेश-पत्र अंतिम समय तक साईट पर अपलोड नहीं किए गए, बहुतों के परीक्षा-केंद्र अंतिम समय में बदल दिए गए और उन्हें चंद घंटे पूर्व तक उसकी कोई सूचना नहीं दी गई।
बहुत-से अभ्यर्थियों को परीक्षा-केंद्र पर जाकर जानकारी मिली कि उनका केंद्र बदल दिया गया है। और तो और ऐसी संस्थाओं को भी परीक्षा-केंद्र बनाया गया जो कुछ वर्षों पूर्व बंद हो चुके थे। कुछ संस्था-संचालक तो यह कहते पाए गए कि उनके संस्थान को परीक्षा-केंद्र बनाए जाने की पूर्व सूचना उन्हें नहीं थी या एक-दो दिनों पूर्व ही उन्हें बताया गया। 4 से 6 अगस्त को जिन केंद्रों पर परीक्षा स्थगित की गई, उनमें से अधिकांश अभ्यर्थियों को परीक्षा-केंद्र पर पहुँचने के बाद यह जानकारी मिल पाई कि उनकी परीक्षा स्थगित कर दी गई है।
ज़रा कल्पना कीजिए कि ऐसी स्थिति में 150-200 किलोमीटर की दूरी से परीक्षा देने गई अकेली लड़कियों या दिव्यांग अभ्यर्थियों को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा? राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में न्यूनतम दायित्वबोध का ऐसा अभाव कचोटता है और तंत्र में ऊपर से नीचे तक व्याप्त छिद्रों एवं कमियों को उजागर करता है। सवाल है कि एक साथ कई-कई राज्यों और कई-कई शहरों में परीक्षा स्थगित करने से पूर्व क्या परीक्षार्थियों को सूचित नहीं किया जाना चाहिए था? क्या स्थगन के तुरंत बाद या अगले दो-चार दिनों में परीक्षा की अगली तिथि नहीं बताई जानी चाहिए थी? हज़ारों अभ्यर्थियों को कई-कई दिनों तक भ्रम और असमंजस में रखना क्या उचित था? क्या कोई व्यवस्था या एजेंसी अपने ही नौनिहालों के प्रति इतना संवेदनहीन रवैया अपना सकती है?
किसी शहर के प्रतिष्ठित एवं यातायात की दृष्टि से सुगम्य संस्थानों को छोड़कर रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से 30-40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपेक्षाकृत अपरिचित संस्थानों को परीक्षा-केंद्र बनाया गया। ऐसे परीक्षा-केंद्रों पर सुबह 7.00 बजे पहुँचना या शाम को 7.00 बजे छूटकर सुरक्षित अपने घर लौटना कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा, इसका अनुमान कोई भी संवेदनशील मन सहज ही लगा सकता है। तमाम परीक्षा-केंद्रों पर परीक्षार्थियों को तकनीकी व्यवधानों का सामना करना पड़ा। कुछ विषयों के प्रश्नपत्र परीक्षा शुरू होने के बाद तक अपलोड नहीं किए गए। प्रश्नपत्र के प्रारूप और परीक्षा की पद्धत्ति को लेकर भी अंत-अंत तक भ्रम और संशय का वातावरण बना रहा।
पूर्व तैयारी, संपूर्ण स्पष्टता एवं पर्याप्त जागरुकता के अभाव में कोई भी नीति या योजना धरातल पर भला कैसे साकार हो सकती है! तंत्र व कुछ अर्थों में सरकार भी, नीतियों व निर्णयों के ठोस एवं ज़मीनी क्रियान्वयन, सुचारु संचालन एवं सूक्ष्म निरीक्षण के मोर्चे पर सतर्क व सजग दृष्टि बनाए रखने में लगातार कमज़ोर पड़ती रही है। शिक्षा से जुड़ी संस्थाओं की दिशा-दशा व यथार्थ अवस्था और भी चिंताजनक है। सीयूईटी इसका ताज़ा व जीवंत उदाहरण है। नई शिक्षा नीति लागू किए जाने के पश्चात ज्ञान के क्षेत्र में भारत के एक बार पुनः विश्वगुरु बनकर उभरने का स्वर समय-समय पर सुनाई देता रहा है। परंतु पुनः विश्वगुरु बनना तो दूर, आज उससे बड़ा एवं ज्वलंत प्रश्न यह है कि क्या ऐसी तैयारियों के बल पर बाक़ी दुनिया के साथ हम क़दम मिलाकर चल भी सकेंगें?
(लेखक शिक्षाविद हैं और उनका यह विचारोत्तेजक लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है जो गंभीर चिंतन की माग करता है। इस पर विमर्श की दृष्टि से हम इसे जनहित में साभार प्रकाशित कर रहे हैं।)
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(मध्यमत)
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