जेएनयू कुलपति- जाति न खोजो ईश्वर की

सिद्धार्थ शंकर गौतम

शिव महापुराण में शिव-पार्वती के विवाह का रोचक प्रसंग है। जब शिवजी अपने गणों के साथ भस्म रमाये राजा हिमावन (हिमाचल) के राज्य में पहुंचे और विवाह की रस्में प्रारंभ हुईं तो राजा की पुत्री होने के कारण पार्वती की वंशावली का जमकर बखान हुआ। जब बारी शिवजी के वंश की आई तो ऋषि गर्ग ने उनसे उनके पिता का नाम पूछ लिया। शिव मौन हो गये और उन्होंने ब्रह्मा-विष्णु की ओर देखा। दोनों मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। जब रिश्तेदारों की बात आई तो वहाँ बारात में कोई रिश्तेदार उपस्थित नहीं था। चारों ओर शिव की भर्त्सना होने लगी कि इन्हें न तो अपने पिता का नाम पता है, न वंश का और न ही गोत्र का ही भान है।

तब नारद जी ने सभी से कहा, ‘नहीं, इनके कोई माता-पिता ही नहीं हैं। इनकी कोई विरासत नहीं है। इनका कोई गोत्र नहीं है। इसके पास कुछ नहीं है क्योंकि यह स्वयंभू हैं। इन्होंने खुद की रचना की है। इनके न तो पिता हैं न माता। इनका न कोई वंश है, न परिवार। यह किसी परंपरा से ताल्लुक नहीं रखते और न ही इनके पास कोई राज्य है। इनका न तो कोई गोत्र है और न कोई नक्षत्र। न कोई भाग्यशाली तारा इनकी रक्षा करता है। शिव इन सबसे परे हैं। वह एक योगी हैं और इन्होंने सारे अस्तित्व को अपना एक हिस्सा बना लिया है। इनके लिए सिर्फ एक वंश है- ध्वनि। आदि शून्य प्रकृति जब अस्तित्व में आई तो अस्तित्व में आने वाली पहली चीज थी- ध्वनि। इनकी पहली अभिव्यक्ति एक ध्वनि के रूप में है। ये सबसे पहले एक ध्वनि के रूप में प्रकट हुए। उसके पहले ये कुछ नहीं थे।’

नारद जी के ऐसा कहने से सभी शांत हुए और शिव-पार्वती विवाह संपन्न हुआ। उक्त कथा को यहाँ कहने का अभिप्राय मात्र इतना है कि आप आदिदेव महादेव को जाति, गोत्र, वर्ण आदि में नहीं बांट सकते किन्तु ऐसा हो रहा है। जिन शिव को स्वयं का गोत्र, जाति, वर्ण इत्यादि नहीं पता, आधुनिक चिंतक उनकी भी जाति खोज रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कुलपति शांतिश्री धुलीपड़ी पंडित ने एक व्याख्यान में कहा कि शिव एससी या एसटी हो सकते हैं। इस दावे को सिद्ध करने हेतु उन्होंने बड़ा ही अजीब का उदाहरण भी दिया। चूँकि शिव भस्म लगाते हैं, गले में सर्प धारण किये हैं और शमशान में बैठते हैं अतः वे शूद्र हैं, कोई ब्राह्मण ऐसा नहीं कर सकता।

शांतिश्री यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि सभी देवी-देवता शूद्र हैं। मनुस्मृति का उल्लेख करते हुये उन्होंने सभी महिलाओं को भी शूद्र बता दिया। हालांकि इन बयानों पर विवाद बढ़ते ही उन्होंने सारा दोष बाबा साहब आंबेडकर पर मढ़ते हुये स्वयं को पाक साफ दिखा दिया। आंबेडकर के लेखन को यदि देखा जाये तो उन्होंने कभी देवताओं में जाति नहीं ढूंढी। वर्णों में विभाजित समाज पर उनकी लेखनी अवश्य तीक्ष्ण हुई है। पता नहीं, शांतिश्री पंडित ने आंबेडकर की कौन सी पुस्तक पढ़ी है जिसके उदाहरण वे प्रस्तुत कर रही हैं?

एक महिला होकर महिलाओं को शूद्र बताकर वे समस्त महिला जाति का अपमान कर रही हैं। इस अपमान के लिये उन्होंने जिस मनुस्मृति का उल्लेख किया है संभवतः वह उन्होंने या तो पढ़ी नहीं है अथवा वह पढ़ ली है जिसे विकृत कर समाज में वैमनस्य हेतु फैलाया गया है। मनुस्मृति में महिलाओं को देवी सदृश्य माना गया है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनुस्मृति ३/५६)

अर्थात जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका सम्मान नहीं होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।। (मनुस्मृति ३/५७)

अर्थात जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती हैं वह कुल सदैव फलता-फूलता और समृद्ध रहता है। क्या यही मनुस्मृति शांतिश्री जी ने पढ़ी है? यदि हाँ, तो वे मात्र क्षणिक प्रसिद्धि हेतु थोथी बयानबाजी कर रही हैं क्योंकि इसमें कहीं भी महिलाओं को शूद्र नहीं कहा गया है अपितु उन्हें देवी की संज्ञा दी गई है जिनकी पूजा का विधान है। शांतिश्री धुलीपड़ी का यह कहना कि कोई भी देवता ब्राह्मण नहीं है और सभी शूद्र हैं, भी समाज में वैमनस्यता को बढ़ावा देने वाला है। श्रीमद्भगवतगीता के 10 अध्याय के द्वितीय खंड में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं कि-

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:।।

अर्थात मेरी उत्पत्ति को न देवता जानते हैं और न महर्षि ही जानते हैं क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदि कारण हूं। सनातन का इतिहास साक्षी है कि भगवतगीता साक्षात ईश्वर की वाणी है अतः उसे झुठलाकर अपना नैरेटिव सेट करना ईशनिंदा के बराबर पाप है। यह पहली बार नहीं है जब मनुष्यों में व्याप्त जाति व्यवस्था की जद में ईश्वर को घसीटा गया हो। अगस्त, 2019 में तत्कालीन नीतीश सरकार के खनन और भूतत्व मंत्री बृजकिशोर बिंद ने भगवान् शिव की जाति ‘बिंद’ बता दी थी। अपने तर्क में उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास लेखक विद्याधर महाजन का उल्लेख करते हुये कहा था कि उन्होंने अपनी पुस्तक के पैरा 4 में लिखा है कि भगवान शंकर जाति से बिंद थे।

इससे पूर्व राजस्थान विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान जी को दलित व वंचित कहा था जिस पर बड़ा विवाद हुआ। दरअसल, बाबा साहब आंबेडकर के दलित सुधार को वर्तमान की राजनीतिक व्यवस्था ने वोट बैंक बना लिया है। क्या नेता, क्या चिन्तक; सभी को बाबा साहब के बहाने दलितों को साधकर स्वयं के उच्च प्रतिमान गढ़ने हैं ताकि सत्ता के शीर्ष की नजर में बना रहा जाये। वर्ण व्यवस्था को गाली देते-देते ये कथित चिन्तक अब ईश्वर को भी नहीं छोड़ रहे जो चिंतनीय है। हिन्दू होकर हिन्दू धार्मिक मान्यताओं, चिन्हों व ईश्वर पर प्रश्नचिन्ह लगाकर ये ईशनिंदा तो कर ही रहे हैं, विधर्मियों के लिए भी रास्ता बना रहे हैं कि भविष्य में वे भी इसी प्रकार का आपत्तिजनक भाष्य करें और दोष आप पर मढ़ दें।

शांतिश्री धुलीपड़ी पंडित को चाहिए कि वे अपने प्रदत्त दायित्वों का पालन सही ढंग से करें और धार्मिक विषय के सन्दर्भ में उन्हें जानकारी नहीं है, उसे न छेडें। जेएनयू में स्कॉलरशिप मांगने पर विद्यार्थी पीटे जा रहे हैं। कक्षाएं समय पर लग नहीं रही हैं। पुस्तकालय से विद्यार्थी पुस्तकें नहीं ले पा रहे हैं और कुलपति महोदया शिवजी की जाति खोज रही हैं, समस्त महिलाओं को शूद्र बताकर सामाजिक अन्याय कर रही हैं। कुलपति महोदया का यह अक्षम्य अपराध है और यदि वे इसे आंबेडकर के नाम के पीछे छुपाना चाहती हैं तो इसके समाज में दूरगामी परिणाम होंगे।

दुःख और क्षोभ तो इस बात का भी है कि इनके विवादित बयानों पर हिन्दू संगठनों की चुप्पी इन्हें मूक सहमति दे रही है। मानो राजनीति अब धर्म से बड़ी हो चली है और सहिष्णु हिन्दू इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता।
(सोशल मीडिया से साभार)
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(मध्यमत)
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