गिरीश उपाध्याय
हिन्दी में एक प्रचलित मुहावरा है- तोल-मोल के बोलना, यानी कोई भी बात कहने या बताने से पहले उसका आगा-पीछा सोचना, उसके कारण होने वाले परिणामों को जानना, समझना। लेकिन ऐसा लगता है कि इन दिनों यह मुहावरा अपनी अहमियत पूरी तरह से खोता जा रहा है। अब लोग तोल-मोल कर नहीं, बल्कि जो मन में आए उसे मुंह फाड़ कर बोल रहे हैं और बिना विचारे, बिना सोचे समझे या कि जानबूझकर बोली जाने वाली बातों से समाज लहूलुहान हो रहा है।
ऐसा नहीं है कि अविचारित अभिव्यक्ति का यह आलम सिर्फ बोलने तक ही सीमित है। इसका प्रसार लिखे हुए शब्दों में भी तेजी से हो रहा है। खबरों और सोशल मीडिया से लेकर विज्ञापनों की दुनिया तक में ऐसी बाते धड़ल्ले से हो रही हैं, जिनका सोच विचार से कोई लेना देना नहीं। चाहे अपनी बात पर जोर देने के लिए हो, या फिर अपना माल बेचने के लिए, भाषा के निकृष्टतम इस्तेमाल की मानो होड़ सी लगी है।
हाल ही के कुछ मामले ले लीजिये। ताजा मामला भाजपा से निलंबित नूपुर शर्मा का है। नूपुर शर्मा को दो साल पहले भाजपा ने अपने प्रवक्ताओं की टीम में शामिल किया था। लेकिन उनके एक बयान से बवाल मच गया। यहां तक कि नूपुर शर्मा के बयान का समर्थन करने वाले दिल्ली भाजपा के नेता नवीन जिंदल की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता भी चली गई।
दूसरा मामला एक मशहूर कंपनी के परफ्यूम से जुड़ा है। इस परफ्यूम के ताजा विज्ञापन में ‘शॉट’ शब्द का द्विअर्थी इस्तेमाल करते हुए महिलाओं की गरिमा के खिलाफ जो बात कही गई और जिस बेशर्मी के साथ उसका फिल्मांकन किया गया है वह कल्पना से परे है। समझना मुश्किल है कि अपना माल बेचने के लिए आखिर बाजार से जुड़ी ताकतें कहां तक गिर सकती हैं। अभी तक महिलाओं को एक प्रॉडक्ट के तौर पर देखे जाने पर ही आपत्ति होती थी, लेकिन अब तो उन्हें सीधे-सीधे एक सेक्स डॉल की तरह पेश किया जा रहा है। मराठी फिल्मों में एक समय दादा कोंडके की फिल्मों में इस तरह के संवाद हुआ करते थे लेकिन अब उससे भी कहीं आगे जाकर, बाजार ने यह जिम्मा संभाल लिया है।
और भाषा के पतन की यह जो लहर चली है उसका नतीजा यह हुआ है कि मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा है। शॉट परफ्यूम के विज्ञापन के खिलाफ कार्रवाई को लेकर हाल ही में एक चर्चित अखबार में एक खबर देखी। उसमें लिखा गया था कि यह विज्ञापन ‘रेप कल्चर’ को बढ़ावा देने वाला था। रेप के साथ कल्चर का यह ‘मणि कांचन’ (?) मेल देकर होश उड़ गए। इस तरह की अभिव्यक्ति को देखकर क्या यह माना जाए कि अब रेप हमारे यहां कोई अपराध नहीं रहा बल्कि वह ‘कल्चर’ का रूप ले चुका है। आखिर ‘रेप कल्चर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके हम समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं, क्या साबित करना चाहते हैं?
चाहे सार्वजनिक जीवन हो या निजी जीवन में होने वाले संवाद। भाषा के इस्तेमाल में गरिमा, शालीनता, लिहाज, भद्रता जैसे तत्व गायब होते जा रहे हैं। जिन शब्दों और गालियों अथवा संकेतार्थों को निजी स्तर पर होने वाले संवाद में भी गलत या आपत्तिजनक माना जाता था, वे अब सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनते जा रहे हैं। यथार्थ के नाम पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाले सीरियल्स में गालियों और गोलियों दोनों की बौछार समान रूप से होती है।
टीवी पर आने वाले कई रियलिटी शो खासतौर से कॉमेडी शो में तो भाषा के साथ यह अश्लील खिलवाड़ और भी अधिक होता दिखाई दे रहा है। दिक्कत यह है कि चाहे बाजार हो या फिर टीवी सीरियल्स, ऐसे गुनाह पर न तो कोई खास चिंता दिखाई देती है और न ही कोई सख्त कार्रवाई की जाकर ऐसा संदेश देने की कोशिश होती है जिससे कि भविष्य में लोग ऐसा करने से बाज आएं।
एक समय था जब इस तरह के शब्दों का मुंह से निकल जाना जबान की फिसलन माना जाता था। कहने वाला भी अपनी गलती का अहसास कर लेता था, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि जुबान शायद फिसलने या कि बंजी जंपिंग के लिए ही बनी है। चारों तरफ से सार्वजनिक संचार में मौजूद लोगों को ट्रेनिंग भी यही दी जा रही है कि जो जितना मुंहजोर है, वह उतना ही सफल है। जो जितना अशालीन भाषा का इस्तेमाल करे वह उतना ही चर्चित है।
शब्दों के महत्व या ह्रास की शुरुआत ऐसे ही होती है। ऐसे ही उनके अर्थ, अनर्थ में बदल जाते हैं। कालांतर में वे शब्द उसी तरह से प्रचलित होकर समाज जीवन पर तैरने लगते हैं और अपने मूल अर्थ से भटकते हुए जाने किन-किन अर्थों में अभिव्यक्ति देने लगते हैं। शब्दों के साथ होने वाला यह खिलवाड़ न सिर्फ भाषा को बरबाद करता है बल्कि हमारे समाज जीवन के ताने-बाने को भी बिखेरता है।
जब भी हम रेप कल्चर, ड्रग कल्चर या माफिया कल्चर जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे होते हैं तो परोक्ष रूप से ऐसे सारे अपराधों या ऐसी अपराधिक मनोवृत्ति को महिमामंडित कर रहे होते हैं। ऐसे घृणित या जघन्य अपराधों के साथ कल्चर शब्द जोड़ना, कल्चर या संस्कृति जैसे शब्दों को मुर्दा बना देना है, उनकी हत्या कर देना है। लेकिन अखबारों में बिना सोचे समझे इस तरह की भाषा इस्तेमाल हो रही है। ऐसे ही एक खबर में रेत माफिया के अपराधों का हवाला देते हुए सरकार से सवाल किया गया कि वो बताए उसकी ‘माफिया नीति’ क्या है। अब कोई पूछे ऐसी भाषा इस्तेमाल करने वालों से, कि ‘माफिया विरोधी नीति’ तो हो सकती है पर ये ‘माफिया नीति’ क्या है?
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ‘हेट स्पीच’ के साथ भी यही मामला है। नूपुर शर्मा का केस यही है। यह अलग बात है कि अभी नूपुर शर्मा ऐसे मामले को लेकर चर्चा में हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा गुनाह सिर्फ नूपुर शर्मा ने ही नहीं किया है, पहले भी सार्वजनिक जीवन में रहने वाले कई लोग ऐसा अपराध कर चुके हैं और इन दिनों तो यह अपराध धड़ल्ले से होने लगा है।
जब भी इस तरह के बयानों की बात होती है, बहुत सफाई से उसके साथ अभिव्यक्ति की आजादी के मामले को पूंछ की तरह जोड दिया जाता है। लेकिन ऐसा करते समय, फेसबुक पर हुई एक आपत्तिजनक पोस्ट के मामले में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की 2020 में की गई उस टिप्पणी को नहीं भूला जाना चाहिए जिसमें अदालत ने कहा था कि- “वह याचिकाकर्ता द्वारा सार्वजनिक रूप से की गई टिप्पणी पर फिलहाल कोई कमेंट नहीं कर रही है, लेकिन वह स्पष्ट कर देना चाहती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी व्यक्ति को, किसी भी समुदाय या जेंडर के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी/पोस्ट करने का अधिकार नहीं देती है।”
इन संदर्भों में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि भाषा का इस्तेमाल करने से पहले लाख बार सोचा जाए। ऐसा सोचना न सिर्फ व्यक्ति के तौर पर बल्कि एक सामाजिक के तौर भी बहुत जरूरी है। हमने भले ही ‘तोल मोल के बोल’ वाले मुहावरे को भुला दिया हो, लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ये सारे मुहावरे हमारी पूर्वज पीढ़ी के अनुभवों का निचोड़ हैं, इन्हें यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता।
(मध्यमत)
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