जनजाति और जंगल के रिश्तों पर हुई एक जरूरी पहल

गिरीश उपाध्‍याय

जल, जंगल और जमीन से जनजातियों के रिश्ते की बहस बहुत पुरानी है। चाहे वह जंगल बचाने का मामला हो या पर्यावरण का, जनजातियों के अधिकारों का मामला हो या फिर विकास का, हमेशा से इस मुद्दे पर अलग अलग तरीके से विमर्श होता रहा है। लेकिन मध्यप्रदेश सरकार का हाल का एक फैसला इस दिशा में एक नई पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकार ने राज्य  के 29 जिलों के 827 वनग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदलने का फैसला लागू कर दिया है। इस फैसले से बड़ी संख्या में जनजाति के वे लोग लाभान्वित होंगे, जो बरसों से वन कानूनों की आड़ में शोषण और उत्पीड़न का शिकार होते आए थे।

वनग्राम दरअसल ऐसे गांव हैं जो घने जंगलों के बीच बसे हैं। शुरुआती दौर में ये ‘गांव’ की परिभाषा में भी नहीं थे। ये जंगलों में रहकर वहीं की वन-संपदा के सहारे अपना गुजर बसर करने वाले जनजाति समूहों की ऐसी बस्तियां थीं जो वनों में बस गई थीं। मध्यप्रदेश में सघन वन क्षेत्र वाले 29 जिलों में 925 वनग्राम हैं जिनमें से 827 वनग्रामों को राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने के लिए बीस साल से कवायद चल रही थी। 2002 से 2004 के बीच मध्यप्रदेश सरकार ने इसके लिए जिलेवार प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजे थे।

सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर इन वनग्रामों के राजस्व ग्रामों में तब्दील होने का मतलब क्या है और इसका असर किस तरह होगा। तो इसके जवाब के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि वनग्राम की व्यवस्था क्या है। दरअसल वनग्रामों की नियति अब तक वन विभाग ही तय करता आया है। इसके कारण वनों में रहने वाले जनजाति समुदायों को कई तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता था। वे पीढ़ी दर पीढ़ी जंगल के निवासी होने के बावजूद वहां के अधिकृत रहवासी नहीं थे।

जंगल इन वनवासियों का स्वाभाविक निवास थे लेकिन अंग्रेजों के जमाने में जब वनों को संरक्षित करने की नीति बनी तो ऐसे क्षेत्रों को भी संरक्षित वन क्षेत्र में शामिल कर लिया गया जहां वनवासी कई पीढ़ी से रहते हुए वन-संपदा पर ही अपना जीवन यापन करते आए थे। उन्होंने जंगल के बीच ही कुछ भूमि को खेती के लिए तैयार करते हुए वहां अपने उपयोग लायक अन्न उगाना शुरू कर दिया था। लेकिन ऐसे सारे लोग उस समय की वन नीति और कानूनों के चलते एक तरह से अपनी ही जमीन पर अतिक्रमणकारी बन गए। उनकी खेती वाली भूमि को भी कृषि भूमि या राजस्व भूमि नहीं माना गया।

यह एक ऐसी गंभीर गलती थी जिसने आगे चलकर आदिवासियों के बीच व्या‍पक असंतोष भी पैदा किया। दुर्भाग्य यह रहा कि इस गलती को सुधारने के लिए आजादी के बाद भी कोई ठोस प्रयास नहीं हुए। इसका नतीजा हम आजादी के बाद जल, जंगल, जमीन को लेकर हुए आंदोलनों के रूप में देख सकते हैं। मध्यप्रदेश देश के उन राज्यों में है जहां आज भी जंगल काफी बड़े भूभाग पर हैं। 1956 में मध्यप्रदेश राज्य का गठन होने के बाद भी वनग्रामों का मुद्दा उठा था और तत्कालीन वनाधिकारियों का भी मत था कि इन गांवों को राजस्व गांव के रूप में मान्यता दिए जाने की पहल होनी चाहिए।

ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि उस समय वनग्रामों का जो ब्योरा तैयार गया गया था उसमें तीन-चार प्रकार के वनग्राम प्रमुख थे। पहली श्रेणी ऐसे गांवों की थी जो आजादी से पहले ही जंगलों में बसे हुए थे। उसके बाद जब इनके आसपास के वन क्षेत्र को आरक्षित वन घोषित किया गया तो इन गांवों के आदिवासियों को बिना खेती का पट्टा दिए या उनकी कृषि भूमि को मान्यता दिए उन्हें आरक्षित वन क्षेत्र का हिस्सा बता दिया गया। बाद में आरक्षित वन क्षेत्र का विस्तार किए जाते समय भी कई ऐसे गांव वन क्षेत्र में आ गए जो पहले राजस्व क्षेत्र में थे। एक विवाद ऐसे लोगों को पहले ही मिल चुके जमीन के पट्टे का भी रहा। इनमें से कुछ लोगों के पास जमीन के स्थायी पट्टे थे तो कुछ को बाद में अस्थायी पट्टे दिए गए। इनसे अलग कुछ बस्तियां ऐसी भी बस गईं जहां के लोगों को वन विभाग अपनी जरूरत के हिसाब से मजदूरी के लिए लेकर आया था।

वन ग्रामों की पहली सुध 1977 में ली गई जब मध्यप्रदेश सरकार ने इसके लिए नियम बनाए। इन्हें ‘आरक्षित तथा संरिक्षत वनों में वन ग्रामों की स्थापना’ नियम कहा गया। इन नियमों के तहत ऐसे गांवों में बसे लोगों के लिए उनकी खेती की जमीन का पट्टा देने की व्यवस्था की गई। नियमानुसार अधिकतम पांच हेक्टेयर जमीन के लिए ऐसा अस्थायी पट्टा 15 वर्ष की अवधि के लिए दिया गया। इस मामले में नया मोड़ उस समय आया जब 1980 में वन संरक्षण कानून के संदर्भ में ऐसे सभी पट्टों की समीक्षा हुई।

इसका नतीजा यह हुआ कि 1977 से पहले जिन लोगों को जमीन के पट्टे मिल चुके थे उनके अलावा बाकी लोगों को ‘अतिक्रमणकारी’ मान लिया गया। इससे बहुत असंतोष फैला क्योंकि इनमें कई लोग ऐसे भी थे जो बरसों से जंगल में रहते हुए ही अपना जीवन यापन कर रहे थे। यहीं से जंगल पर जनजाति या आदिवासियों के अधिकार के मामले ने भी जोर पकड़ा। बाद में यह मामला राजनीति का भी विषय बना।

वनग्रामों को लेकर एक बहुत बड़ा मसला यह भी रहा कि अन्‍यान्‍य कारणों से वन विभाग खुद इन ग्रामों पर से अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहता था। हालांकि मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता के तहत उसे ऐसा करने का अधिकार नहीं था फिर भी यह मामला कभी नियमों में तो कभी कानूनों की लड़ाई में सालों साल उलझा रहा। और इसका शिकार बने वे आदिवासी जो जंगल में रहकर जंगल के लिए ही जीते आए थे।

ऐसे में 23 जून को भोपाल में केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की मौजूदगी में जब 827 वन ग्रामों को राजस्व ग्राम में बदलने की आधिकारिक प्रक्रिया पूरी होने की घोषणा की गई तो एक तरह से यह उन सैकड़ों आदिवासियों के लिए राहत की बात थी, जो कानून-कायदों के कांटों में उलझकर उस जमीन को ही अपना नहीं बता पा रहे थे जिस पर वे पीढ़ी दर पीढ़ी खेती करते आ रहे थे। कार्यक्रम में अमित शाह ने ठीक ही कहा कि मध्यप्रदेश, देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जिसने जनजाति भाइयों को सही मायने में जंगल का मालिक बनाया है।

वनग्रामों के राजस्व ग्रामों में बदलने के बाद वहां के रहवासी भी सामान्य ग्रामवासियों की तरह जमीन और कृषि संबंधी अपने अधिकारों को पा सकेंगे, उनका उपयोग कर सकेंगे। ऐसे गांवों में बुनियादी सुविधाओं की पहुंच का रास्ता भी साफ होगा। आदिवासियों के सिर पर जंगल के कानून की तलवार नहीं लटकेगी। बस ध्यान इतना ही रखना होगा कि जंगल के ये रहवासी कहीं वन विभाग के चंगुल से निकल कर राजस्व विभाग के चंगुल में न फंस जाएं। (मध्यमत)
—————-
नोट- मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected]  पर प्रेषित कर दें। – संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here