दो दिन पहले मातृभाषा दिवस पर यूं ही कुछ लिखा था, उस लंबी कविता के कुछ अंश…
गिरीश उपाध्याय
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भाषा कभी गद्य, कभी पद्य, कभी बोली है
भाषा जीवन की हमजोली है
भाषा कच्चा अमरूद है
कभी मूल है, कभी सूद है
अभी-अभी झाड़ी से तोड़ा बेर है
देर है, सबेर है, न्याय है, अंधेर है
भाषा एक बर्तन खाली है
ठंडी सुबह चाय की प्याली है
भाषा आसमान में उड़ती पतंग है
जीने का ढंग है
भाषा डोर और सुई है
कभी कांटा तो कभी छुईमुई है
भाषा इस पार है, उस पार है
चौक है, आंगन है, खिड़की और द्वार है
भाषा कभी दोस्त, कभी सहेली है
बूझ लिए तो मजा, वरना पहेली है
भाषा इठलाती, लजाती, शरमाती है
कभी कभी दो हाथ भी जमाती है
भाषा दियासलाई है
अभी अभी चूल्हा जलाके आई है
भाषा बम है, बारूद है, गोली है
गले लगा लो तो उतनी ही भोली है
भाषा प्यासे का नीर है, कटोरे में खीर है
दुखी का आंसू है, गरीब की पीर है
भाषा एक सपना है
कभी पराया, कभी अपना है
भाषा ओस है, पंखुरी है, हरी दूब है
कंपकंपी है, ठंड में गुनगुनी धूप है
भाषा लू है, लपट है, सावन की बौछार है
आंधी है, पतझड़ है, बसंत बहार है
भाषा लगन है, तपन है, छुअन है
किसी से बिफरी, तो किसी में मगन है
भाषा ही पलक, भाषा ही नींद भाषा ही लोरी है
सपनों को खींच लाने वाली डोरी है
भाषा ही अधर, भाषा ही चुंबन है
भाषा ही ठहर, भाषा ही कंपन है
भाषा गाल है, गुलाल है
जीवन का उन्नत भाल है
कभी अजूबा, कभी कमाल है
कभी रंगत तो कभी मलाल है
भाषा के बहुत नखरे हैं
इसके रंग जाने कहां-कहां बिखरे हैं
भाषा ही रूठती, भाषा ही मनाती है
मौका आए तो आईना दिखाती है
भाषा की सुनो वो बहुत कुछ कहती है
ये ऐसी नदी है जो दिल के भीतर बहती है
भाषा से दोस्ती करो तो जानोगे
ये कितनी अपनी, कितनी पराई है
कभी ब्याही तो कभी सिर्फ सगाई है
भाषा का सगा होना बड़ी बात है
भाषा जानती सबकी औकात है
भाषा का काटा भाषा ही उतारती है
भाषा से निपटना भाषा ही जानती है