गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश में निर्धारित समय से करीब दो साल बाद होने जा रहे पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव, संपन्न होने से पहले ही गहरे विवाद में उलझ गए हैं। यह विवाद चुनाव प्रक्रिया तक सीमित रहता तो भी ठीक था, लेकिन राजनीतिक कारणों से शुरू होकर यह दूरगामी सामाजिक दुष्परिणामों तक पहुंच गया है। इन दिनों चुनाव प्रक्रिया से लेकर चुनाव परिणामों तक को प्रभावित करने वाले आरक्षण के मुद्दे ने राज्य में पंचायत चुनाव के बहाने ग्रामीण अंचल के सामाजिक ताने बाने को खतरा पैदा कर दिया है।
एक तो पहले ही राज्य में पंचायत चुनावों की प्रक्रिया बहुत देर से शुरू हुई थी। ये चुनाव वैसे तो 2019 में ही हो जाने थे, लेकिन पहले कमलनाथ सरकार के दौरान पंचायतों के नए सिरे से परिसीमन और आरक्षण की प्रक्रिया के कारण और बाद में कोरोना महामारी के चलते ये टलते गए। आखिरकार इनकी घोषणा हुई तो पंचायतों में आरक्षण को लेकर मामला बुरी तरह उलझ गया। और, ऐसा उलझा कि सुप्रीम कोर्ट तक को दखल देकर राज्य के चुनाव आयोग को चेतावनी देनी पडी कि यदि उसने आरक्षण की प्रक्रिया तय करते समय सर्वोच्च अदालत के दिशनिर्देशों की अनदेखी की, तो अदालत को पूरी चुनाव प्रक्रिया ही रद्द कर देनी पड़ेगी।
दरअसल, यह विवाद पंचायतों में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण से जुडा है। वर्तमान शिवराज सरकार ने अव्वल तो ये चुनाव 2014 की स्थिति के अनुसार ही कराने का फैसला किया और साथ ही पंचायतों में अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का दायरा नए सिरे से तय कर दिया। विवाद यहीं से शुरू हुआ। कुछ लोगों ने संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार परिसीमन और आरक्षण का रोटेशन नए सिरे से तय किये बिना ये चुनाव कराए जाने को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी। अदालत में तर्क दिया गया कि सरकार ने 2019 में हुए पंचायतों के परिसीमन और आरक्षण के ढांचे को दरकिनार करते हुए नया ढांचा प्रस्तावित किया है जो ठीक नहीं है। क्योंकि इससे 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा वाले सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों का भी उल्लंघन होता है।
हाईकोर्ट से राहत न मिलने पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। वहां प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता सैयद जाफर के साथ जया ठाकुर ने याचिका लगाई। पहले तो सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को यह कहते हुए लौटा दिया कि उसे हाईकोर्ट में ही सुना जाना चाहिए। लेकिन हाईकोर्ट में शीतकालीन अवकाश लग जाने और इस बीच चुनाव की प्रक्रिया के आगे बढ़ते जाने को देखते हुए एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा कर विशेष सुनवाई का अनुरोध किया गया। इसी दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए पिछड़ा वर्ग का आरक्षण तत्काल रद्द करने को कहा। इसके बाद राज्य चुनाव आयोग ने पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित पंचायतों के चुनाव की प्रक्रिया स्थगित करते हुए बाकी पंचायतों के लिए चुनाव जारी रखने का ऐलान किया।
चुनाव को लेकर हुई अदालती लडाई अपनी जगह है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने ग्रामीण अंचलों के सामाजिक ताने बाने में नई तरह की हलचल पैदा कर दी है। दरअसल, जब चुनाव की घोषणा हुई थी, तो उस समय नई आरक्षण व्यवस्था को देखते हुए पिछड़ा वर्ग के कई उम्मीदवार अपने लिए संभावनाएं खोजने में लग गए थे। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद अब जब उनके लिए संभावनाओं के दरवाजे अचानक बंद हो गए हैं तो उनका निराश होना स्वाभाविक है। भविष्य में क्या होगा यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इस घटनाक्रम को लेकर गांवों में पिछड़ा वर्ग के लोगों के बीच नया असंतोष पनपा है। यह असंतोष अपना राजनीतिक असर तो दिखाएगा ही लेकिन पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के बीच नई खटास पैदा करेगा।
नई परिस्थिति के चलते समाजिक ताने बाने को पहुंचने वाले नुकसान का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोर्ट के आदेश को राज्य के दो प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने हिसाब से भुनाना शुरू भी कर दिया है। जैसे ही कोर्ट का फैसला आया प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता डॉ। हितेष वाजपेयी ने सोशल मीडिया पर लिखा- ‘पिछड़ा वर्ग विरोधी कांग्रेस ने पंचायतों में ‘पिछड़ा वर्ग आरक्षण’ खत्म करवा ही दिया। नरेंद्र मोदी और शिवराजसिंह चौहान मध्यप्रदेश की 54 फीसदी आबादी को आगे लाने का प्रयास कर रहे थे, जिस पर कमलनाथ ने पानी फेर दिया।’
भाजपा ने आरोप लगाया तो कांग्रेस ने भी पलटवार किया। प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता केके मिश्रा ने ट्वीट किया- ‘’पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर भाजपाई, कांग्रेस पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं। संघ प्रमुख डॉ। मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर 21 सितंबर 2015 को क्या कहा? देखिये, उन्हीं के सपने को, सदैव ओबीसी विरोधी रही शिवराज सरकार ने साकार किया है! अब कुछ कहेंगे?’’
मामला यहीं नहीं थमा। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को लेकर कांग्रेस को घेरने और उसे ओबीसी विरोधी बताने के मामले में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी।डी। शर्मा और नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्रसिंह भी पीछे नहीं रहे। संयोग से सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई एक याचिका के लिए पैरवी चूंकि कांग्रेस के नेता और राज्यसभा सदस्य विवेक तनखा कर रहे थे इसलिए उन्हें भी निशाना बना लिया गया।
विवेक तनखा की ओर से इस पर तीखा कानूनी जवाब दिया गया। उन्होंने अपने वकील के जरिये शिवराजसिंह चौहान, वी।डी।शर्मा और भूपेंद्रसिंह को दस करोड़ रुपये का मानहानि नोटिस भेजते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर की गई उसमें और उस पर हुई सुनवाई के दौरान ओबीसी आरक्षण का जिक्र तक नहीं किया गया। पूरा मामला संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार पंचायतों के नए सिरे से परिसीमन और आरक्षण से जुड़ा है, जिसका इस सरकार ने पालन नहीं किया। हमने कोर्ट से इसी मामले में राहत की मांग की थी।
अब हालत यह है कि पंचायतों की यह लड़ाई एक तरफ सत्ता और विपक्ष के गलियारों तक पहुंच गई है, वहीं दूसरी ओर जमीनी स्तर पर सामान्य वर्ग और पिछड़ा वर्ग के बीच दूरियां पैदा कर रही है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद राज्य निर्वाचन आयोग ने उन सभी पंचायतों के चुनाव की प्रक्रिया स्थगित कर दी है, जहां ओबीसी के लिए आरक्षण किया गया था। अब ये स्थान सामान्य वर्ग को मिल जाएंगे। यानी जिन पंचायतों पर ओबीसी उम्मीदवारों की नजर थी उन्हें पाने का उनका सपना एक ही झटके में बिखर गया है। राज्य चुनाव आयोग के आयुक्त बसंत प्रताप सिंह का कहना है कि चुनाव प्रक्रिया जारी रहेगी बस उन जगहों पर चुनाव नहीं होंगे जहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत प्रक्रिया को स्थगित किया गया है।
इस बीच सरकार पर भी ओबीसी समुदाय का दबाव बढ़ने लगा है। हाल ही में पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव और दो साल बाद मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए सरकार ओबीसी समुदाय को किसी भी सूरत में नाराज नहीं करना चाहती। इसीलिए शिवराज सरकार उच्चस्तरीय परामर्श कर इस मामले का ‘अनुकूल’ हल तलाशने में जुट गई है।
उधर सरकार को उनकी ही पार्टी की एक नेता और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने और मुश्किल में डाल दिया है। उमा ने सोमवार को लगातार तीन ट्वीट किये जिनमें उन्होंने लिखा कि- ‘मध्य प्रदेश के पंचायत चुनावों में ओबीसी आरक्षण पर लगी हुई न्यायिक रोक चिंता का विषय है। मेरी अभी सुबह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी से फोन पर बात हुई है तथा मैंने उनसे आग्रह किया है कि ओबीसी आरक्षण के बिना मध्यप्रदेश में पंचायत का चुनाव प्रदेश की लगभग 70 फीसदी आबादी के साथ अन्याय होगा। इसलिए पंचायत चुनाव में पिछड़े वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करने का समाधान किए बिना पंचायत चुनाव ना हो सकें, इसका रास्ता हमारी मध्य प्रदेश की सरकार को निकालना ही चाहिए। मुझे शिवराज जी ने जानकारी दी है कि वह इस विषय पर विधि विशेषज्ञों से परामर्श कर रहे हैं।’
जाहिर है ओबीसी मुद्दे को लेकर कांग्रेस को घेरने वाली भाजपा इस मुद्दे पर अब अपने ही घर में घिर रही है। यह दबाव क्या रंग लाएगा उसी पर प्रदेश की पंचायतों के चुनाव से लेकर ग्रामीण सामाजिक परिवेश के ताने बाने का भविष्य तय होगा। (मध्यमत)
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