गिरीश उपाध्याय
क्रूज ड्रग पार्टी केस में गिरफ्तार किए गए फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान की जमानत के मामले ने एक बार फिर न्याय व्यवस्था से जुड़ी विसंगतियों को उजागर किया है। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मुंबई हाईकोर्ट ने आर्यन को 28 अक्टूबर को जमानत दे दी थी लेकिन जमानत मंजूर होने के 24 घंटे बीत जाने के बाद भी औपचारिकताएं पूरी न होने के कारण आर्यन को एक रात और मुंबई की आर्थर रोड जेल में बितानी पड़ी।
अदालतों द्वारा जमानत मंजूर किए जाने के बाद भी जमानत का आदेश जेल अधिकारियों तक पहुंचने की कागजी खानापूरी पर पहले भी बहस होती रही है और इस प्रक्रिया में सुधार की मांग भी हुई है, लेकिन ढर्रा अब भी वही बना हुआ है। यह मामला कितना गंभीर है यह जानने के लिए इसी साल जुलाई माह में प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एन.वी.रमना की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ का ऑब्जर्वेशन ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।
जस्टिस रमना ने 16 जुलाई को ऐसे ही एक मामले को लेकर टिप्पणी की थी कि ‘यह बहुत ज्यादती है।‘ उनका कहना था कि किसी व्यक्ति को किसी भी अदालत, यहां तक की सुप्रीम कोर्ट तक से जमानत मिल जाती है तब भी उसे (जेल अधिकारियों के रवैये और कागजी खानापूरी के चलते) अपनी रिहाई के लिए कई दिनों तक इंतजार करना पड़ता है।
प्रधान न्यायाधीश ने अपनी विशेष खंडपीठ के सामने लाए गए उस मामले पर यह तीखी प्रतिक्रिया दी थी जिसमें कहा गया था कि जेल अधिकारी जमानत के कागजात की प्रामाणिक प्रति हाथ में दिए जाने की मांग करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि इससे व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का हनन होता है। जस्टिस रमना ने कहा था कि- ‘’सूचना और संचार तकनीक के इस युग में आज भी हम आकाश की तरफ ताक रहे होते हैं कि कोई कबूतर आदेश की प्रति लेकर आएगा।‘’
प्रधान न्यायाधीश और उनके सहयोगी न्यायाधीशों एल. नागेश्वर राव और ए.एस. बोपन्ना ने खुली अदालत में घोषणा की थी कि जल्दी ही एक नई योजना लाई जाएगी ताकि इस तरह के आदेशों के इलेक्ट्रानिक रेकार्ड का त्वरित और सुरक्षित तरीके से आदान प्रदान हो सके। अदालत का मानना था कि इससे कोर्ट के जमानत संबंधी आदेश जेल अधिकारियों, जिला अदालतों और हाईकोर्ट आदि को तत्काल, सीधे और सुरक्षित रूप से इलेक्ट्रानिक तरीके से भेजे जा सकेंगे।
अदालत की इस पहल की एटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने सराहना की थी। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जब जानना चाहा था कि क्या इस व्यवस्था में आदेश कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड कर दिया जाएगा तो जस्टिस राव का कहना था कि योजना के पीछे मूल विचार यह है कि आदेश सुरक्षित रूप से ट्रांसमिट हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में राज्य सरकारों से जेलों के भीतर इंटरनेट की उपलब्धता के बारे में भी जानकारी मांगी थी ताकि भविष्य में योजना के अमल को लेकर कोई दिक्कत न आए। खंडपीठ ने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को इस बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत करने को भी कहा था।
दरअसल यह मामला सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति के तौर पर कैदियों की आजादी और गरिमा को लेकर आने वाली समस्याओं के संदर्भ में स्वत: संज्ञान में लिया था। इसका तात्कालिक कारण भी यह था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत मंजूर किए जाने के बावजूद आगरा जेल के अधिकारियों ने 13 कैदियों को रिहा करने में चार दिन लगा दिए थे। ये वो कैदी थे जो बीस साल से जेल में थे और इनके बारे में किशोर न्यायालय पहले ही फैसला सुना चुका था कि जब उन पर आरोपित अपराध घटित हुआ था तब वे किशोर अवस्था में थे।
पिछले दिनों ऐसा ही एक और मामला इंदौर के स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी का भी सामने आया था जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत पर रिहा करने का आदेश दे दिए जाने के बाद भी इंदौर जेल अधिकारियों ने छोड़ने में देरी की थी। ‘पिजंरा तोड़’ संगठन की कार्यकर्ता देवांगना कालिता और नताशा नरवाल तथा जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को भी दिल्ली हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बावजूद तिहाड़ जेल से रिहा होने में दो दिन लगे थे।
भारत में कैदियों की स्थिति वैसे भी बहुत बदतर है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि देश में कैदियों की कुल संख्या का 75 प्रतिशत हिस्सा विचाराधीन कैदियों का है। आयोग लगातार इस बात पर जोर देता आ रहा है कि यदि ऐसे कैदी जमानत के पात्र हैं तो उन्हें जमानत मिलनी चाहिए। लेकिन अध्ययन कहते हैं कि ऐसे कैदी इसलिए जेलों में रहने को मजबूर हैं क्योंकि पुलिस सुरक्षा के अभाव में उन्हें अदालतों के सामने प्रस्तुत नहीं किया जा सका है।
आर्यन मामले में तो उसकी ओर से मुकदमा लड़ने वाले देश के नामी गिरामी वकीलों की फौज थी और जमानत एवं मुचलके की राशि की भी कोई समस्या नहीं थी, लेकिन हजारों की संख्या में आज भी जेलों में ऐसे विचाराधीन कैदी हैं जिनके लिए अपना वकील कर पाना मुश्किल है। दूसरी तरफ मानवाधिकार आयोग की ही रिपोर्ट में इस बात का हवाला है कि तिहाड़ जेल में बंद करीब 400 कैदी ऐसे थे जिनको विभिन्न अदालतों ने जमानत तो दे दी थी लेकिन वे जमानत राशि या मुचलका भरने की स्थिति में नहीं थे।
इस स्थिति को लेकर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट और देश के सभी हाईकोर्ट को लिखा था और उसी संदर्भ में पहल करते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायाधीश वी.के.बाली ने पंजाब की कई जेलों का खुद दौरा किया था। उन्होंने विचाराधीन कैदियों के मामलों की पड़ताल करने के बाद सौ से अधिक कैदियों को जमानत या व्यक्तिगत बांड पर रिहा करने का आदेश दिया था।
बिहार से तो एक और हैरान कर देने वाला मामला आयोग के सामने आया था। बिहार स्टेट लीगल सर्विसेस अथारिटी ने आयोग को सूचित किया था कि ट्रेन में बिना टिकट यात्रा करने वाले लोग बड़ी संख्या में छह महीने से भी अधिक अवधि तक जेलों में बंद हैं और उन्हें कोर्ट के सामने पेश तक नहीं किया जा सका है। इस बारे में जिला पुलिस का कहना था कि ‘रस्सी और हथकड़ी’ की कमी के चलते ऐसे कैदियों को अदालत के सामने पेश करने के लिए ले जाया जाना संभव नहीं हो पा रहा है। इस मामले में स्टेट लीगल सर्विसेज अथारिटी ने सुझाव दिया था कि ऐसी स्थिति में रेलवे मजिस्ट्रेट को समय समय पर जेलों में ही अपनी अदालत लगानी चाहिए।
कागजी खानापूरी से लेकर बहुत ही छोटे मोटे कारणों के चलते लोगों का बिना सुनवाई और बिना जमानत के जेलों में पड़े रहना बताता है कि हमारी अपराध और अपराधियों से निपटने वाली व्यवस्था कितनी गली हुई है। खुद सुप्रीम कोर्ट इस बात को कह चुका है कि जेल के बजाय बेल के विकल्प को देखा जाना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की इस भावना को नीचे तक पहुंचने में अभी और समय लगेगा।(मध्यमत)