शिक्षक दिवस पर विशेष
गिरीश उपाध्याय
भारत में हर साल पांच सितंबर को शिक्षक दिवस, देश के पूर्व राष्ट्रपति और विख्यात शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की याद में मनाया तो जाता है, लेकिन आज की पीढ़ी को डॉ. राधाकृष्णन के शिक्षा क्षेत्र में किए गए योगदान के बारे में बहुत कम ही जानकारी होगी। ये डॉ. राधाकृष्णन ही थे जिन्होंने आजाद भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा कैसी होनी चाहिए, इसका खाका तैयार किया था। यहां तक कि उच्च शिक्षा में यानी कॉलेज और विश्वविद्यालयों में काम करने वाले शिक्षकों को वेतन कितना मिलना चाहिए,उन्हें कितने घंटे काम करना चाहिए, कितने प्रतिशत अंक पाने पर कौनसी उत्तीर्ण श्रेणी मिलनी चाहिए और विश्वविद्यालय शिक्षा पर सरकारों को कितना व किस तरह पैसा खर्च करना चाहिए ऐसी तमाम बातों पर दिशा उन्होंने ही दी थी।
भारत की आजादी के बाद एक तरफ डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनकी टीम देश का संविधान तैयार करने में लगी थी तो दूसरी तरफ 1948 में डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित आयोग देश के शिक्षा ढांचे की रूपरेखा तैयार करने का काम कर रहा था। वैसे यह तुलना करने का विषय नहीं है लेकिन डॉ. आंबेडकर जिस संविधान को तैयार करने के काम में लगे थे, उसे समझने और उस पर अमल करने वाले भारत को तैयार करने की दिशा देने वाला काम डॉ. राधाकृष्णन कर रहे थे। एक दृष्टि से डॉ. राधाकृष्णन की टीम का काम बुनियादी रूप से और अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि देश यदि पढ़ा लिखा और जागरूक ही नहीं होगा तो हम लाख कितना ही सार्थक संविधान बना लें उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
भारत जब आजाद हुआ उस समय देश की साक्षरता दर सिर्फ 12 प्रतिशत थी। साक्षरता के मामले में दुनिया के सामने भारत की स्थिति क्या थी इसका अंदाज इसी बातसे लगाया जा सकता है कि ठीक उसी समय अमेरिका की साक्षरता दर 97.3 फीसदी थी और भारत पर राज करने वाले इंग्लैंड की साक्षरता दर करीब 90 प्रतिशत। इंग्लैंड में फोरस्टर एलीमेंटरी एजुकेशन एक्ट के तहत 5 से 12 वर्ष के सभी बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूली ढांचा तैयार करने का कानून तो 1870 में ही लाया जा चुका था। यानी आजादी के बाद भारत को आगे बढ़ाने वाला बुनियादी तत्व ही बहुत कमजोर था।
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री और भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद के पूर्व सदस्य सचिव जे.पी. नायक ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिसी एंड परफॉरमेंस इन इंडियन एजुकेशन 1947-1974’में लिखा है कि आजादी के समय देश में 1,72,661 प्राइमरी, 12843 मिडलऔर 5297 सेकण्डरी स्कूल थे। 6 से 11 वर्ष की उम्र के तीन बच्चों में से सिर्फ एक बच्चा ही स्कूल जा रहा था जबकि 14 से 17 वर्ष की आयु वाले 20 बच्चों में से बड़ी मुकिश्ल से सिर्फ एक बच्चा स्कूल तक पहुंच रहा था। उस समय देश में कुल 636 कॉलेज और 17 विश्वविद्यालय थे, जिनमें 2 लाख 38 हजार बच्चे अध्ययन कर रहे थे।
ऐसे समय में डॉ. राधाकृष्णन को देश की शिक्षा की भावी दिशा तय करने का काम सौंपा गया। वैसे तो उनकी अध्यक्षता में जो आयोग गठित किया गया उसका नाम ‘विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग’ था और उन्हें उच्च शिक्षा पर खास ध्यान देना था, लेकिन आयोग ने स्कूल शिक्षा की स्थिति पर भी विचार और विश्लेषण करते हुए उच्च शिक्षा में उसकी भूमिका और भागीदारी पर अपनी राय रखी थी। इस आयोग का महत्व इसी बात से समझिये कि उसके अध्यक्ष डॉ. राधाकृष्णन खुद तो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने ही, आयोग के एक और सदस्य डॉ. जाकिर हुसैन भी बाद में राष्ट्रपति बने। आयोग के एक अन्य सदस्य डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में 1952 में भारत की स्कूली शिक्षा पर विचार करने के लिए राष्ट्रीय आयोग गठित किया गया था। राधाकृष्णन आयोग में डॉ. मेघनाथ साहा जैसे वैज्ञानिक भी शामिल थे।
यहां यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि राधाकृष्णन आयोग ने भारत की शिक्षा के लक्ष्य की चर्चा करते हुए जो सिफारिशें की थी उनमें सबसे प्रमुख था कि भारत की शिक्षा का लक्ष्य छात्रों को लोकतंत्र के लिए प्रशिक्षित करना होगा। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता क्योंकि राजनीतिक लोकतंत्र अपने आप में कोई साध्य नहीं है। वे यह भी कहते थे कि लोकतंत्र सिर्फ सरकार एक रूप भर नहीं है। यह मुख्य रूप से संयुक्त रहन सहन के सामूहिक अनुभव को व्यक्त करने का तरीका भी है। यह देशवासियों के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने का भाव है।
लेकिन डॉ. आंबेडकर राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए जिस सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को अनिवार्य बता रहे थे वह लक्ष्य बगैर शिक्षित समाज के प्राप्त करना असंभव था। डॉ. राधाकृष्णन ने इसी विचार को आजाद भारत की भावी शिक्षा नीति एवं उसकी आधारभूमि तैयार करते समय केंद्र में रखा। और इसीलिए उन्होंने शिक्षा का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य इस बात को माना कि हमारे शिक्षा परिसर छात्रों को लोकतंत्र के लिए प्रशिक्षित करते हुए उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाएं।
शिक्षा के अन्य लक्ष्यों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि शिक्षा छात्रों में आत्मविश्वास जगाते हुए, ज्ञान के विकास के जरिये उनमें जीवन जीने की सहज क्षमता को विकसित करेगी। शिक्षा व्यावसायिक और पेशेवर प्रशिक्षण तो प्रदान करेगी ही लेकिन इसके साथ ही देश की वर्तमान और अतीत की संस्कृति की समझ भी छात्रों में विकसित करेगी। स्वामी विवेकानंद ने भारत की आजादी के संदर्भ में तन और मन दोनों की आजादी का उल्लेख किया था। राघाकृष्णन आयोग ने उसी बात को ध्यान में रखते हुए कहा कि शिक्षा छात्रों में मन की निडरता, विवेक शक्ति और उद्देश्य की अखंडता जैसे मूल्य विकसित करेगी।
भारत की नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के अंतर्गत शोध पर काफी जोर दिया गया है लेकिन राधाकृष्णन आयोग ने आज से 72 साल पहले कहा था कि विश्वविद्यालय की शिक्षा के तीन स्तर होने चाहिए- स्नातक (3 वर्ष), स्नातकोत्तर (2 वर्ष) और शोध (न्यनूतम 2 वर्ष ) इसी तरह उच्च शिक्षा को 3 श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए- कला, विज्ञान, व्यावसायिक और तकनीकी। कला, विज्ञान, व्यावसायिक और तकनीकी विषयों के लिए विश्वविद्यालयों में अलग अलग विभाग खोले जाने चाहिए। इसके साथ ही कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग, प्रद्योगिकी, चिकित्सा और शिक्षण प्रशिक्षण के लिए स्वतंत्र संबद्ध कॉलेजों की स्थापना की जानी चाहिए। विश्वविद्यालयों की आर्थिक जरूरतों का ध्यान रखने और उसकी पूर्ति के लिए उन्होंने ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्था की स्थापना की सिफारिश की थी।
राधाकृष्णन आयोग अपनी कुछ क्रांतिकारी सिफारिशों के लिए भी याद किया जाएगा। जैसे आज भले ही धर्म को लेकर काफी विवाद खड़ा किया जा रहा हो लेकिन आयोग ने इस बात की सिफारिश की थी कि विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा में धर्म की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। लेकिन जिस धर्म की बात इस सिफारिश में कही गई है वो समावेशी है। आयोग कहता है कि सभी शिक्षा संस्थाओं को अपने काम की शुरुआत कुछ मिनिट मौन और ध्यान से करनी चाहिए। स्नातक यानी डिग्री कोर्स के पहले वर्ष में छात्रों को विभिन्न धर्मों के महापुरुषों जैसे गौतम बुद्ध, कन्फ्यूशियस, जरथुस्त्र, सुकरात, ईसा, रामानुज, माधव, मोहम्मद, कबीर, नानक और गांधी आदि के बारे में पढ़ाया जाए।
आयोग के अनुसार डिग्री कोर्स के दूसरे वर्ष में विश्व के चुनिंदा शास्त्रों के कुछ चरित्रों के बारे में शिक्षा दी जाए जबकि तीसरे वर्ष में धर्म दर्शन की केंद्रीय समस्याओं पर विचार किया जाए। शिक्षा को समावेशी बनाने के लिए आयोग ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बारे में प्रचलित इस धारणा को भी तोड़ने के लिए कहा कि ये संस्थान क्रमश: हिन्दुओं और मुस्लिमों के लिए ही हैं। आयोग का कहना था कि इन संस्थानों के द्वार दुनिया भर के सभी वर्गों के लिए खोले जाने चाहिए। इसके अलावा आयोग ने शिक्षा में महिलाओं और विभिन्न वर्गों के साथ होने वाला भेदभाव समाप्त कर, सभी के लिए शिक्षा की निर्बाध रूप से उपलब्धता पर भी जोर दिया था। राधाकृष्णन आयोग की सिफारिशें आज भले ही सात दशक से ज्यादा पुरानी होकर हमें अतीत की बात लगती हों लेकिन उन सिफारिशों के मूल तत्वों और मूल भावना को पढ़ना और समझना आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक हो सकता है।(मध्यमत)
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