कांग्रेस का लोकतंत्र अब चौराहे पर

राकेश अचल

कांग्रेस में लोकतंत्र अब कुलांचे भर रहा है।  ढाई-तीन साल पहले तीन-चार राज्यों में जीतकर पटरी पर आयी कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र अब चौराहे पर है। भाजपा से निराश जनता के लिए ये सबसे ज्यादा तकलीफ का समय है, क्योंकि अब देश में विपक्ष के नाम पर चौतरफा बिखराव ही बिखराव है, जो कांग्रेस के साथ ही देश के लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए भी ठीक नहीं है।

पिछले डेढ़-दो सालों में कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र बड़ी तेजी से मुखर हो रहा है। किसी भी दल का आंतरिक लोकतंत्र एक मिथक भर है।  हर राजनीतिक दल अनुशासन के चाबुक के जरिये पार्टी को बांधकर चलता है फिर चाहे राजनीतिक दल कैडर आधारित हो या न हो।  कांग्रेस में लम्बे समय तक अनुशासन के चाबुक के सहारे आंतरिक लोकतंत्र कायम रहा, किन्तु अब लगता है कि चाबुक से पार्टी के नेताओं ने डरना छोड़ दिया है। अब पार्टी के शीर्ष नेता खुलकर पार्टी नेतृत्व पर न सिर्फ आँखें तरेर रहे हैं बल्कि पार्टी नेतृत्व के फैसलों के खिलाफ जाकर फैसले भी ले रहे हैं। कांग्रेस लगातार इसका खमियाजा भुगत रही है।

पंजाब में कांग्रेस से छोड़-छुट्टी करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस हाईकमान के सामने खड़े होकर ये प्रमाणित कर दिया है कि पार्टी नेतृत्व संगठन को सम्हाल नहीं पा रहा है। पंजाब में कांग्रेस को सत्ता में लाने वाले कैप्टन के मुकाबले ताली ठोकने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को तरजीह देकर पार्टी हाईकमान ने जो कुछ किया उसकी वजह से अब पंजाब में कांग्रेस का सत्ताच्युत होना तय हो गया है। कैप्टन की आँखों में चूंकि ज़रा सी शर्म अभी बाक़ी थी इसलिए वे सीधे भाजपा में शामिल नहीं हुए, लेकिन उन्होंने भाजपा का सहयोग करने और सिद्धू को परास्त करने का निर्णय कर जाहिर कर दिया है कि वे अब कांग्रेस की विचारधारा के खूंटे से नहीं बंधे हैं।

कांग्रेस की विचारधारा के खूंटे से रस्सी तोड़कर भागने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह पहले नेता नहीं है। एक लम्बी फेहरिस्‍त है ऐसे नेताओं की। कैप्टन का कांग्रेस से जाना प्रमाणित करता है कि राजीव गांधी की पीढ़ी के नेताओं को कांग्रेस में वो तवज्जो नहीं मिल रही जिसके वे हकदार हैं।  दुर्भाग्य से कांग्रेस में भाजपा की तरह कोई मार्गदर्शक मंडल या वरिष्ठ नागरिकों की दर्शक दीर्घा नहीं है, शायद इसीलिए ये सब हो रहा है। एक तरफ कैप्टन की बगावत है तो दूसरी तरफ दिल्ली में कपिल सिब्बल के यहां युवक कांग्रेस का धमाल है। सिब्बल कांग्रेस के एक भारी-भरकम नेता हैं, लेकिन अब वे भी पार्टी नेतृत्व से आजिज नजर आ रहे हैं। मुमकिन है कि आने वाले दिनों में वे भी कैप्टन की राह चल पड़ें।

कैप्टन और सिब्बल में मामूली सा भेद है। दोनों एक ही पीढ़ी के नेता हैं और पार्टी की विचारधारा को पार्टी के युवराज राहुल गांधी से किंचित ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।  राहुल गांधी से देश को उम्मीदें कल भी थीं और आज भी हैं और शायद कल भी रहें,  क्योंकि कांग्रेस ही देश में राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने और उसमें बदलाव करने का एक औजार है।  लेकिन ये औजार अब भोथरा नजर आने लगा है।  अब ये तय है कि पार्टी में पीढ़ियों का टकराव होगा, लेकिन ये भी तय है कि इस टकराव से पार्टी मजबूत होने के बजाय कमजोर होगी।

कांग्रेस राजनीतिक संग्राम में अब तक अपने अनेक किले नेस्तनाबूद कर चुकी है। दक्षिण में कर्नाटक से लेकर हिन्दी पट्टी में मध्यप्रदेश और अब लगभग पंजाब का किला ध्वस्त हो चुका है।  राजस्थान और छत्तीसगढ़ कब तक महफूज हैं कहा नहीं जा सकता।  उत्तरप्रदेश से तो कांग्रेस को उखड़े तीन दशक हो चुके हैं,  ऐसे में बिना मजबूत सूबेदारों के कांग्रेस आने वाले दिनों में होने वाले चुनावों में कैसे अपने आपको सत्ता में वापस लेकर आएगी, कोई नहीं जानता। मुमकिन है कि राहुल गांधी के पास कोई जादू की छड़ी हो!

कांग्रेस में अब ‘कांग्रेस बनाम कांग्रेस’ की लड़ाई दिलचस्‍प ही नहीं बल्कि खतरनाक हो गई है। वरिष्‍ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्‍बल के खिलाफ कांग्रेसियों का हुड़दंग जी-23 के नेताओं को बिल्‍कुल रास नहीं आया है। वो खुलकर सिब्‍बल के पक्ष में उतर आए हैं। उन्‍होंने सिब्‍बल का बचाव किया है। सिब्‍बल के समर्थन में मनीष तिवारी,  आनंद शर्मा और शशि थरूर फिलहाल सामने आये हैं। आनंद शर्मा और मनीष तिवारी ने सिब्‍बल के घर पर कांग्रेसियों के विरोध प्रदर्शन की तीखी आलोचना की। इसे गुंडागर्दी और हुड़दंग बताया।

सिब्बल का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने पार्टी की पंजाब इकाई में मचे घमासान और कांग्रेस की मौजूदा स्थिति को लेकर पार्टी नेतृत्व पर सवाल खड़े किए थे। सिब्बल ने कहा था कि कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाकर इस स्थिति पर चर्चा होनी चाहिए। सिब्बल थोड़ा आगे बढ़ गए, उन्होंने गांधी परिवार पर तंज कसते हुए कहा था कि जो लोग इनके खासमखास थे वो छोड़कर चले गए,  लेकिन जिन्हें वो खासमखास नहीं मानते वो आज भी इनके साथ खड़े हैं। सिब्बल ने जोर देकर कहा था,  हम ‘जी हुजूर 23’ नहीं हैं। हम अपनी बात रखते रहेंगे। कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र का मुजाहिरा करते हुए कांग्रेस के पुराने से लेकर युवा नेताओं तक ने उन पर हमला शुरू कर दिया। सिब्बल की ओर से जी-23 नेताओं के उठाए गए व्यापक सुधारों की मांग दोहराए जाने के कुछ घंटे बाद ही उनके घर के आगे प्रदर्शन शुरू हुआ। दिल्ली कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने उनके विरोध में प्रदर्शन किया। ‘गेट वेल सून कपिल सिब्बल’ की तख्तियां दिखाईं। जमकर हुड़दंग किया।

अच्छी और महत्‍वपूर्ण बात ये है कि अब कांग्रेस में लोग मुखर हो रहे हैं। सिब्बल के बाद जी-23 के नेता शशि थरूर ने सिब्‍बल को आलाकमान के एहसान की याद दिलाने वालों को आईना दिखाया है। थरूर ने सिब्‍बल को सच्‍चा कांग्रेसी बताया। कहा कि उन्‍होंने न जाने कांग्रेस के लिए कितनी कानूनी लड़ाइयां लड़ी हैं। कांग्रेस को जानने वाले जानते हैं कि कांग्रेस का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कायम रखने का इतिहास कैसा रहा है। राय और धारणा के मतभेद लोकतंत्र के अभिन्न अंग हैं। असहिष्णुता और हिंसा कांग्रेस के मूल्यों और संस्कृति से अलग है। अब देखना ये है कि कांग्रेस हाईकमान की भी हाईकमान श्रीमती सोनिया गांधी इस ताजा घटनाक्रम के बाद कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र को सम्हाल पाएंगी या नहीं?

कांग्रेस के बिखराव में भाजपा का हाथ देखने वालों की कमी नहीं है, लेकिन ऐसा सोचने वाले नादान हैं। राजनीति में किलाबंदी एक अभिनव और जरूरी किला है। जो इसमें कोताही करता है ढेर हो जाता है,  फिर चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा या वामपंथी दल या समाजवादी दल। फ़िलहाल तमाशा जारी है।(मध्‍यमत)

डिस्‍क्‍लेमर ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता, सटीकता व तथ्‍यात्‍मकता के लिए लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए मध्‍यमत किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है।
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