अजय बोकिल
देश के ‘ह्रदय प्रदेश’ मध्यप्रदेश के पथरिया से विधायक रामबाई ने अपने मुसाहिबों को रिश्वतखोरी का जो ‘नया दर्शन’ दिया, वह सिंहासन बत्तीसी टाइप न्याय का अनुपम और नितांत व्यावहारिक उदाहरण है। अक्सर विवादों में रहने वाली रामबाई का एक ताजा वीडियो वायरल हुआ है, इसमें रामबाई को यह नसीहत देते देखा जा सकता है कि सरकारी मुलाजिमों के लिए रिश्वत का ‘रीजनेबल पैकेज’ क्या होना चाहिए। रामबाई कहती हैं कि भइया 1 हजार रुपए तक की रिश्वत लेने में कोई बुराई नहीं है। आटे में नमक बराबर रिश्वत चलती है। हम भी यह बात समझते हैं। हजार-पांच सौ की घूस लेना समझ में आता है, लेकिन 10 हजार लेना तो गलत है। हमें पता है कि सब कुछ ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ चल रहा है, लेकिन इतना भ्रष्टाचार ठीक नहीं। यानी कि पहला गुनाह बेलज्जत और दूसरा गुनाह काबिले सजा है।
घटना का संदर्भ यह है कि पूर्व में बसपा और अब निर्दलीय विधायक रामबाई को शिकायत मिली थी कि स्थानीय रोजगार सहायक और सचिव प्रधानमंत्री आवास योजना के नाम पर गरीब हितग्राहियों से हजारों रुपये की वसूली कर रहे हैं। ये शिकायत गांव सतऊआ के सताए हुए लोगों ने की थी। इस पर विधायक रविवार शाम को सतऊआ पहुंचीं और जन चौपाल लगाई। इसमें रोजगार सहायक निरंजन तिवारी और सचिव नारायण चौबे को भी बुलाया गया। सुनवाई के दौरान परेशान ग्रामीणों ने विधायक के सामने ही सहायक और सचिव पर अवैध वसूली के आरोप लगाए। किसी ने 5 हजार तो किसी ने 8 हजार से लेकर 10 हजार रुपए तक लेने की बात कही।
शिकायत सुनकर विधायक ने व्यावहारिक फैसला सुनाया कि थोड़ा बहुत तो चलता है। यदि 1 हजार रुपए भी ले लेते तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन सवा लाख के घर में 5 से 10 हजार (रिश्वत) लेना तो बहुत नाइंसाफी है। विधायक के इस अपीलनुमा फैसले में समझाइश भी थी। विधायक रामबाई ने रोजगार सहायक से कहा कि यदि तुम्हारी बात की जाए तो तुम्हारे घर में तो 1 लाख रुपए का बाथरूम ही बना होगा और यहां गरीब सवा लाख में अपना पूरा घर बना रहे हैं। इसके बाद भी यदि तुम उनसे (बतौर रिश्वत) 5 से 10 हजार रुपये लोगे तो शर्म आनी चाहिए।
यह बात अलग है कि रिश्वती कर्मकांड में शर्म और ग्लानि जैसा कोई चैप्टर होता ही नहीं है। इस सुनवाई का मजेदार पक्ष यह था कि विधायक के इस ‘भ्रष्टाचार निरूपण’ को आरोपी मुलाजिम बगल में बैठकर निर्विकार भाव से सुनते रहे, मानो कुछ हुआ ही न हो। या फिर जो हुआ, वो तो सरकारी दस्तूर ही है। इसमें कैसा अपराध बोध? उधर रामबाई ने ग्रामीणों को भी यह कहकर हड़काया कि आप लोग बिना जानकारी लिए कुछ भी शिकायत करने लगते हैं। त्रस्त ग्रामीण भी आश्वस्त होने की जगह विधायक के इस न्याय को अवाक् भाव से सुनते-देखते नजर आते हैं। बेबस अपने मन को समझाने की कोशिश करते हैं कि भइया सरकार ऐसे ही चलती है। सरकार इसी का नाम है।
वायरल हुआ यह वीडियो मप्र की जमीनी सच्चाई का आईना है। उस सच्चाई का, जहां पटवारी, दरोगा, पंचायत सचिव और रोजगार सहायक ही असली हाकिम हैं और कलेक्टर ही ‘सरकार’ है। विधायक या मंत्री की हैसियत मुंसिफ की है। सो, विधायक रामबाई ने ऐसा फैसला सुना दिया जिसमें ‘दोनों की जीत’ है।
रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का वो पिलर है, जिसे इस तरह से गाड़ा गया है, जो शायद ही कोई उखाड़ सके। इतना नैतिक बल शायद ही जुटा सके। हकीकत में भ्रष्टाचार और घूसखोरी रोकने के लिए ज्यों-ज्यों नए और कड़े कानून बनते गए हैं, भ्रष्टाचार उससे दोगुनी निर्दयता से फलता-फूलता गया है। अब तो उसने कई रूप धर लिए हैं। सतऊआ गांव के गरीब तो भ्रष्टाचार की उसी पुरानी शैली के ही शिकार हुए, जिसमें हर योजना, टेंडर और अनुदान आदि में सरकारी सेवक को तय दक्षिणा देना पब्लिक का फर्ज है।
धर्म में भी दान-पुण्य का महात्म्य शायद इसीलिए बताया गया है। तमाम योजनाएं और बजट आवंटन होते ही इस पूर्वाकलन से हैं कि इससे हमारी जेब में कितना माल आएगा। स्व-कल्याण में लगने वाला दो नंबर का ये पैसा अमूमन सभी को चाहिए। भ्रष्टाचार करने वालों को भी और भ्रष्टाचार को रोकने की मुहिम चलाने वालों को भी। यानी भ्रष्टाचार की पुंगी दोनों सिरों से बजती है। यही वो पैसा है, जो छप्पर फाड़कर बरसता है। यह पैसा चपरासी को भी चाहिए, बाबू को भी चाहिए, अफसर को भी चाहिए और नेता-मंत्री को भी चाहिए। केवल अर्जित करने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं।
विख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी ने ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’ में लिखा था कि ‘कहां पर नहीं खिल रहे हैं भ्रष्टाचार के फूल। जहां-जहां जाती है सूरज की किरण, वहां-वहां पनपती है भ्रष्टाचार की पौध।‘ रामबाई के क्षेत्र के गांव की यह ‘सत्यकथा’ उन तमाम बड़बोले दावों पर कि ‘नहीं छोड़ूंगा’, ‘गाड़ दूंगा’, ‘उखाड़ दूंगा’, ‘लटका दूंगा’ ‘मरोड़ दूंगा’ आदि पर सरेआम तगड़ा तमाचा है। क्योंकि सतऊआ जैसे गांवों के ग्रामीण भी ऐसी बातों को बालसुलभ जोक मानकर हंसते हैं और वापस सरकारी मुलाजिम द्वारा मांगी गई रिश्वत का इंतजाम करने की जुगत में लग जाते हैं।
यूं कहने को सरकारें भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए नित नए कानून बनाती रहती हैं ताकि सनद रहे। तीन साल पहले बने एक कानून में प्रावधान था कि रिश्वत लेने वाले के साथ रिश्वत देने वाला भी अपराधी माना जाएगा। उसे भी सजा मिलेगी। इस प्रावधान से भ्रष्टाचार कितना कम हुआ, यह तो पता नहीं, लेकिन सरकार ने राजनीतिक वाहवाही लूटने कोशिश जरूर की। हकीकत में यह हुआ कि रिश्वत के ‘रेट रिवाइज’ हो गए। जो काम पहले सौ के पत्ते में हो जाता था, उसके लिए पांच सौ के दो नोटों से नीचे काम नहीं चलता।
यह पैसा भी बड़ी बेशरमी और निडरता से मांगा जाता है। ‘कोई क्या उखाड़ लेगा’ के भाव से वसूला जाता है। काम कराना हो तो भइया नोट सरकाओ वरना सालोंसाल सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते लगाते स्वर्ग सिधार जाओ। यहां ‘स्वर्ग’ इसलिए क्योंकि यमराज के पाप-पुण्य के अकाउंट में बिना रिश्वत दिए काम की उम्मीद में चक्कर लगाते-लगाते मरने वालों के खाते में जन-धन का एक प्लस पांइट तो आएगा ही। रहा सवाल रिश्वतखोर को परलोक में जगह अलाटमेंट का तो उन्हें वहां भी कोई दिक्कत होने की संभावना नहीं है। क्योंकि रिश्वतखोरी का बेसिक उसूल है कि ‘लेके अंदर जाओ और देके बाहर आ जाओ।‘
सरकारी कर्मचारियों-अफसरों की तनख्वाहें कितनी ही बढ़ाओ, सुविधाओं में कितना ही इजाफा करो, रिश्वत के पैसे के बिना जीना भी क्या जीना है यारो। आलम यह है कि सरकारी नौकरी ज्वाइन करने के पहले जो लोग समाज सुधार के दावे करते हैं वो व्यवस्था का हिस्सा बनने के बाद रिश्वत को सरकारी तंत्र की ऑक्सीजन समझने में ज्यादा देर नहीं करते (कुछ अपवादों को छोड़ दें)। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून कितने ही ‘तालिबानी’ बना दिए जाएं, फितरतें ‘हिंदुस्तानी’ ही रहनी हैं।
बहरहाल रामबाई ने जो न्याय दिया, वो जमीनी हकीकत के अनुरूप ही माना जाना चाहिए। यह मानते हुए कि जब रोकने से कोरोना नहीं रुका तो ये तो रिश्वत है। वो कहीं बाहर से नहीं आई। जिसकी जड़ें अपनी ही जमीन में हैं। जिसकी लालसा अपने ही मन में है। इसे समझने के लिए ज्यादा पढ़ा-लिखा होना भी जरूरी नहीं है। रामबाई ने जो समझाइश दी, उसके मूल में वही मंत्र है कि भाया ऐतराज पीने पर नहीं है, ज्यादा पीने पर है। लिहाजा थोड़ी-थोड़ी पिया करो। अगले का बजट भी नहीं बिगड़ेगा और तुम भी पकड़े नहीं जाओगे।
रामबाई के ‘न्याय’ में उस शाश्वत सत्य का स्वीकार है कि सरकारी नौकरी लगने का दूसरा अर्थ रिश्वत लेने का पट्टा मिलना भी है। और इसे कोई ‘माई का लाल’ नहीं रोक सकता। ‘माई’ को भी पता है कि ‘लाल’ क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, किसकी खातिर कर रहा है फिर भी उसका ‘जलाल’ क्यों कायम है? (मध्यमत)
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